Sunday, 24 April 2016

राष्ट्रपति राजा नहीं, उनके फैसलों की भी समीक्षा हो सकती है

उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने के केंद्र सरकार के फैसले की सुनवाई कर रहे नैनीताल उच्च न्यायालय द्वारा राष्ट्रपति शासन की अधिसूचना को रद्द कर देने के बाद हरीश रावत सरकार की बहाली तो हो गई लेकिन यह फैसला केंद्र सरकार के लिए एक बड़ा झटका है। राष्ट्रप]ित शासन से पूर्व की स्थिति बहाल करने से हाई कोर्ट के आदेश में लोकतंत्र और हमारी संसदीय तथा संघीय व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के कई सबक हैं। ये सबक खासकर ऐसे दौर में जरूरी हो गए हैं जब हमारी संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था कई तरह के सवालों से घिरती जा रही है। सियासी बढ़त हासिल करने की होड़ इस कदर कटुता का माहौल पैदा कर रही है कि स्थापित मर्यादाओं और संस्थाओं का ख्याल रखने की जरूरत भी नहीं समझी जा रही है। बेशक केंद्र सरकार इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देगी पर इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि इस फैसले से मोदी सरकार और भाजपा को धक्का लगा है। भाजपा के प्रबंधक यह कहकर अपना बचाव नहीं कर सकते कि यह कांग्रेस का अंदरूनी मामला है। हकीकत तो यह है कि विजय बहुगुणा और हरक सिंह रावत के नेतृत्व में हरीश रावत के खिलाफ हुई बगावत के बाद भाजपा उत्तराखंड में अरुणाचल प्रदेश जैसी स्थिति की पुनरावृत्ति देख रही है, जहां कांग्रेस के बागियों को साथ लेकर वह सरकार बनाने में सफल हुई है। उत्तराखंड में जैसे विनियोग विधेयक पर विधानसभा अध्यक्ष के कथित तौर पर पक्षपातपूर्ण रवैये को निरस्त करने के लिए राष्ट्रपति शासन लगाने और केंद्र से विनियोग अध्यादेश जारी करने के लिए संसद का बीच में सत्रावसान करने का तरीका अपनाया गया, उसकी मिसाल अपवादस्वरूप ही मिलती है। हाई कोर्ट ने इसे बेहद आपत्तिजनक और केंद्र का बेमानी हस्तक्षेप माना। फिर अगर हरीश रावत की सरकार विधायकों की खरीद-फरोख्त और भ्रष्टाचार में लिप्त थी तो यह कोई मासूम ही मान सकता है कि कांग्रेसी बागी और भाजपा नेतृत्व विशुद्ध लोकतांत्रिक मर्यादाओं के तहत जुटे थे। कोर्ट ने साफ कर दिया है कि संविधान के अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग को अदालतें बेहद गंभीरता से लेती हैं और इस मामले में जरा भी कोताही उसे मंजूर नहीं है। अदालत ने तो मोदी सरकार पर लोकतंत्र की जड़ें काटने तक का आरोप लगा दिया। इतना ही नहीं, अदालत ने कांग्रेस के नौ बागी विधायकों की सदस्यता खत्म करने के स्पीकर के फैसले को भी सही करार देते हुए हरीश रावत को 29 अप्रैल को विधानसभा में विश्वास मत हासिल करने का आदेश दिया। इस फैसले के बाद कांग्रेस में खुशी की लहर फैल गई और नैनीताल हाई कोर्ट का फैसला पार्टी के लिए संजीवनी बनकर आया है। कांग्रेसी रणनीतिकार महसूस कर रहे हैं कि फैसले के बाद राज्य में कांग्रेस प्लस में आ गई है। लोगों की सहानुभूति अब हरीश रावत के साथ होगी। यह भी कि सुप्रीम कोर्ट में चाहे जो भी फैसला हो, लेकिन आम लोगों में यह संदेश चला गया है कि उत्तराखंड में कांग्रेस सरकार को गलत तरीके से हटाकर राष्ट्रपति शासन लगाया गया। लोगों में गए इस संदेश का कांग्रेस को बड़ा फायदा होने की उम्मीद है। हमें भाजपा के रणनीतिकारों की समझ नहीं आई। वैसे भी अगले साल तो उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव होने ही थे। रावत की चुनी हुई सरकार को इतनी जल्दी में हपड़छपड़ में गिराने का क्या तुक था? लोगों की सहानुभूति अब कांग्रेस और हरीश रावत के साथ होगी और ऐसे में रावत यदि निकटभविष्य में या समय पर भी चुनाव का ऐलान कर देते हैं तो कांग्रेस को फायदा मिल सकता है। यदि 29 अप्रैल को हरीश रावत अपना बहुमत साबित कर लेते हैं तो भाजपा और केंद्र सरकार की नए सिरे से किरकिरी होगी, लेकिन यदि किसी कारणवश ऐसा नहीं होता तो भाजपा को अपनी और साथ ही लोकतंत्र की जीत का दावा करने का मौका तो मिलेगा ही, उच्च न्यायालय के फैसले का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। वैसे बेहतर होता कि हाई कोर्ट महामहिम पर टिप्पणी न करता। नए राजनीतिक घटनाक्रम में सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फैसले पर 27 अप्रैल तक स्थगन लगा दिया है। न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा और न्यायमूर्ति शिव कीर्ति सिंह की पीठ ने संक्षिप्त आदेश जारी कर भारतीय संघ सुनवाई की अगली तारीख तक राष्ट्रपति शासन की घोषणा रद्द नहीं करेगा।

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