Sunday, 10 April 2016

सुशासन बाबू की शराबबंदी और जमीनी चुनौतियां

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपने चुनाव अभियान में शराबबंदी लागू करने का वादा किया था और इस मुद्दे पर उन्हें काफी समर्थन खासकर महिला वोटरों के बीच मिला था। सरकार बनाने के बाद अब नीतीश ने अपना वादा पूरी तरह निभा दिया है। एक तरफ चुनावी वादा पूरा करने की चुनौती थी तो दूसरी तरफ करीब तीन हजार करोड़ रुपए राजस्व की क्षति। लेकिन सुशासन कुमार ने वादे को पूरा करने का संकल्प दिखाया। यह फैसला आसान नहीं है। खासकर उस राज्य के लिए तो कतई नहीं जिसकी कमाई झारखंड बनने के बाद से कम ही होती गई है। फिर भी नीतीश ने इसे पूरा करने का प्रयास किया है। अन्य राज्यों के पिछले अनुभवों को देखते हुए बिहार में शराबबंदी आसान नहीं है बल्कि एक चुनौती है। चार दिन पहले जब उन्होंने देशी शराब पर पाबंदी लगाई थी तो उन्हें अपने सहयोगी दल और सीनियर पार्टनर राजद के नेता लालू प्रसाद से ही ताड़ी को लेकर चुनौती मिली थी। नीतीश पीछे नहीं हटे। उन्होंने 1991 के दिशानिर्देश के आधार पर नीरा पर छूट दी, लेकिन ताड़ी को प्रतिबंधित रखा। इस कदम के चार दिनों में महिलाओं से मिली प्रतिक्रिया से वे उत्साहित हैं। शायद नीतीश कुमार के मन में दो बातें बिल्कुल साफ हैं। पहली यह कि शराब ने ग्रामीण इलाकों में किस तरह बर्बादी की दास्तां लिखी है और इसकी टीस नीतीश को शुरू से सालती होगी। दूसरी यह जानते हुए भी शराबबंदी कहीं भी पूरी तरह से सफल नहीं हुई है और नीतीश ने राज्य की कमाई को दरकिनार करते हुए यह दांव खेला। निस्संदेह यह बेहद साहसिक और संजीदा फैसला है। एक अप्रैल से बिहार में देशी शराब की बिक्री बंद कर दी गई और योजना के मुताबिक छह महीने बाद पूर्ण शराबबंदी लागू की जानी थी। लेकिन देशी शराब पर पाबंदी के नतीजों से उत्साहित होकर मुख्यमंत्री ने चार दिन बाद ही अंग्रेजी शराब बिक्री पर भी पाबंदी लगा दी। अब बिहार में बार और होटलों समेत कहीं भी शराब नहीं मिलेगी। सैद्धांतिक रूप से देखें तो शराबबंदी से समाज को कई फायदे होते हैं। घर-परिवारों में कलह, टूटन और अपराधों से शराब का सीधा रिश्ता है। सड़क दुर्घटनाओं का एक महत्वपूर्ण कारण शराब ही है। शराब की वजह से नागरिकों की उत्पादन व आय में भारी कमी आती है, जो समाज में गरीबी और बदहाली का एक प्रमुख कारण है। शराब ज्यादातर पुरुष पीते हैं और उसका खामियाजा महिलाओं को भुगतना पड़ता है। फैसले का जहां बड़ी संख्या में बिहार की जनता ने स्वागत किया है वहीं यूं अचानक शराबबंदी के नकारात्मक नतीजे भी सामने आ रहे हैं। रोज पीने वालों की कमबख्ती हो गई है। पहले दिन जब शाम को शराब नहीं मिली तो लोग बीमार होने लगे। कइयों को तो इलाज के लिए अस्पतालों में भर्ती कराना पड़ा। बेतिया में तो एक अजीब घटना हुई। 45 वर्षीय गैसुद्दीन 20 वर्षों से देशी शराब पी रहे थे। शराब न मिलने से उनकी स्थिति पागलों जैसी हो गई। अचानक घर में रखे साबुन खाने लगे। परिवार वालों ने किसी तरह रोका। फिलहाल उन्हें बेतिया के ही एमजेके अस्पताल स्थित नशा मुक्ति केंद्र में भर्ती कराया गया है। ऐसे ही मोतिहारी के मैनपुर निवासी 50 वर्षीय रघुनंदन बसेरा दो दिन शराब न मिलने से इस कदर बेचैन हो गए कि वह बेहोश होकर गिर गए। वैसे राज्य सरकार के इस निर्णय पर अभी भले ही लानत-मलानत लोग करें किन्तु आने वाले वक्त में यही फैसला जनता को बेहद सुकून देगा। फिलहाल गुजरात, मणिपुर और नागालैंड में शराबबंदी है, लेकिन इन राज्यों में भी शराब गैर कानूनी ढंग से सहज उपलब्ध है। सुशासन बाबू का यह फैसला जहां सराहनीय है वहीं यह कितने प्रभावी ढंग से लागू होता है यह देखना होगा।

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