Tuesday 9 February 2021

केंद्र के प्रस्ताव से दिल्ली सरकार से टकराव बढ़ेगा

जब से दिल्ली में आम आदमी पार्टी (आप) की सरकार बनी है अधिकारों को लेकर आए दिन टकराव की स्थिति बनी रहती है। उपराज्यपाल के बहाने केंद्र और राज्य सरकार के अधिकारों का मामला जब बहुत बढ़ गया तो सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा और कुछ समय तक फिर शांति हो गई। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ जिससे अधिकारों का स्पष्ट बंटवारा हो। यही वजह है कि कुछ अंतराल के बाद कोई ऐसा मुद्दा या बिन्दु सामने आ जाता है, जिस पर दिल्ली और केंद्र सरकार के बीच खींचतान के तेवर तीखे दिखने लगते हैं। गत बुधवार को केंद्र सरकार ने जिस तरह उपराज्यपाल को ज्यादा शक्तियां देने के एक प्रस्ताव को कैबिनेट ने मंजूरी दी है, उससे साफ है कि दिल्ली सरकार के बीच अधिकारों को लेकर चल रही जंग के बीच अब केंद्रीय कैबिनेट ने एक प्रस्ताव को मंजूरी दी है, जिससे एलजी का अधिकार क्षेत्र और बढ़ेगा। प्रस्तावित विधेयक में एलजी को दिल्ली सरकार को तय सीमा में विधायी व प्रशासनिक प्रस्ताव 15 दिन पहले भेजना होगा। ऐसे मुद्दे जिस पर एलजी और दिल्ली सरकार के विचार एक जैसे नहीं होंगे, उसे आखिरी मंजूरी के लिए राष्ट्रपति के पास भेजने का प्रावधान तो है ही, नए प्रस्ताव में यह कहा गया है कि जब तक राष्ट्रपति फैसला नहीं लेते हैं, एलजी को फैसला लेने का अधिकार होगा। बशर्ते वह मामला ऐसा हो, जिस पर तत्काल फैसला करना जरूरी हो। सामान्य मामलों में एलजी को यह अधिकार नहीं होगा। यह प्रावधान इसलिए अहम होगा, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले में कहा गया था कि दिल्ली सरकार को हर मामले में एलजी से संस्तुति लेना जरूरी नहीं है, बल्कि उन्हें जानकारी दी जा सकती है। इस फैसले के बाद से एलजी की ताकत कुछ हद तक कमजोर हुई थी। एलजी की शक्तियां बढ़ाने को लेकर केंद्र सरकार की ओर से औपचारिक घोषणा नहीं की गई है, लेकिन संसद के इसी सत्र में यह बिल पेश हो सकता है, जिस पर सत्तापक्ष व विपक्ष में रार बढ़ सकती है। हालांकि सूत्रों का कहना है कि इन संशोधनों से गवर्नेंस में सुधार हो सकता है। अधिकारों के स्पष्ट विवरण को लेकर सुप्रीम कोर्ट के जनवरी 2019 में आए फैसले के बाद स्थितियों को साफ करने की जरूरत पड़ी है। जाहिर है कि इस ताजा प्रस्ताव से दिल्ली सरकार की ओर से सवाल उठना एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। दिल्ली के उपमुख्यमंत्री ने आरोप लगाया है कि इस संशोधन के जरिये दिल्ली में जनता द्वारा चुनी हुई सरकार के अधिकार छीनकर उपराज्यपाल को देने का काम किया गया है और अब दिल्ली सरकार के पास फैसले लेने की शक्ति नहीं रहेगी। सवाल है कि अगर दिल्ली सरकार का यह आरोप सही है कि केंद्र का यह फैसला लोकतंत्र और संविधान के खिलाफ किया गया है तो यह चिन्ता की बात है। क्या केंद्रीय मंत्रिमंडल इस संशोधन के जरिये सचमुच दिल्ली सरकार के अधिकारों को सीमित करना चाहती है? निश्चित तौर पर दिल्ली में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार है और अपनी सीमा में सरकार को काम करने का अधिकार होना चाहिए। लेकिन इसके साथ ही यह भी तथ्य हैं कि दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी भी है और इस नाते केंद्र को संभवत नीतिगत स्तर पर कई मामलों का ध्यान रखने की जरूरत महसूस होती होगी। कहा जा रहा है कि ताजा संशोधन प्रशासन को बेहतर करने के साथ-साथ दिल्ली सरकार और एलजी के बीच टकराव के हालात कम करने के लिए किए जा रहे हैं। लेकिन विधायी और प्रशासनिक प्रस्ताव पर आगे कदम बढ़ाने के लिए एलजी के पास भेजने की जो शर्त रखी गई है, क्या उससे आने वाले दिनों में केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच खींचतान और टकराव की स्थितियां और नहीं बढ़ेंगी? विधायी और प्रशासनिक कार्यों में अगर कोई टकराव या गतिरोध पैदा होता है तो इससे किसी का हित नहीं होगा बल्कि टकराव जरूर होगा।

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