Friday, 31 August 2012

रामदेव के ट्रस्टों का रजिस्ट्रेशन रद्द होगा और विदेशी सम्पत्तियां जब्त


 Published on 31 August, 2012

अनिल नरेन्द्र

योग गुरू बाबा रामदेव पर सरकारी शिकंजा कसता जा रहा है। हाल ही में दिल्ली में बाबा के आंदोलन के दौरान शुरुआती दिनों में जरूर लगा था कि शायद अन्दर खाते बाबा की सरकार से कोई डील हो गई है, क्योंकि बाबा सोनिया को माता कह रहे थे और राहुल को भाई पर आंदोलन के अंतिम दिनों में बाबा सख्त हो गए और उन्होंने कांग्रेस पर हल्ला बोल दिया। अब केंद्र सरकार ने अपनी सारी एजेंसियों को रामदेव के कारोबार में खामियां निकालने के लिए लगा दिया है। बाबा रामदेव दान के नाम पर कारोबार कर रहे हैं, ऐसा कहना है आयकर विभाग का। आयकर विभाग का कहना है कि योग गुरू का पतांजलि योग पीठ ट्रस्ट कारोबार कर रहा है। मीडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार आयकर विभाग बाबा रामदेव के ट्रस्ट का चैरिटेबल संगठन के तौर पर रजिस्ट्रेशन रद्द करने की तैयारी कर रहा है। इसके अलावा ट्रस्ट को दी जाने वाली सभी छूट भी वापस लेने की तैयारी में है। आयकर विभाग के अनुसार बाबा रामदेव का ट्रस्ट पतांजलि योग पीठ कामर्शियल गतिविधियों में शामिल है, साथ ही ट्रस्ट कमाई करने में जुटा है। इन्कम टैक्स विभाग ने पतांजलि योग पीठ का रजिस्ट्रेशन रद्द करने से पहले सौ सवालों की लिस्ट भेजी है। खबर यह भी है कि इंग्लैंड में दान मिले द्वीप समेत बाबा रामदेव की विदेश स्थित करोड़ों की सम्पत्तियों को जब्त करने की तैयारी भी शुरू हो गई है। दरअसल इन सभी सम्पत्तियों को हासिल करने के लिए रामदेव के निकट सहयोगी बालकृष्ण के पासपोर्ट का इस्तेमाल हुआ है और सीबीआई इस पासपोर्ट के फर्जी होने के आरोप में अदालत में चार्जशीट दाखिल कर चुकी है। मनी लांड्रिंग कानून के तहत फर्जी पासपोर्ट का इस्तेमाल कर बनाई गईं सम्पत्तियां जब्त की जा सकती हैं। ईडी के पास उपलब्ध जानकारी के अनुसार बाबा की विदेश में करोड़ों रुपए की सम्पत्तियां जिन ट्रस्टों के नाम हैं, उनमें बालकृष्ण ट्रस्टी हैं। ये सम्पत्तियां नेपाल, मॉरीशस, इंग्लैंड और अमेरिका में स्थित हैं। इनमें इंग्लैंड में पोद्दार दम्पति द्वारा दिया गया एक द्वीप भी शामिल है। ईडी के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि जल्द ही बालकृष्ण को हिरासत में लेकर इन सम्पत्तियों के बारे में पूछताछ की जाएगी। इसके साथ ही संबंधित देशों की सरकार से इन सम्पत्तियों और उनके मालिकों के बारे में आधिकारिक दस्तावेज मंगाए जाएंगे। पासपोर्ट कानून का उल्लंघन मनी लांड्रिंग रोकथाम कानून के तहत श्रेणीबद्ध अपराध है। जाहिर है कि पासपोर्ट कानून का उल्लंघन कर बनाई गई सम्पत्तियों को ईडी जब्त कर सकता है। फर्जी पासपोर्ट के मामले में सीबीआई पहले ही बालकृष्ण के खिलाफ चार्जशीट दाखिल कर  चुकी है, इसलिए ईडी कानूनी रूप से इन सम्पत्तियों को अस्थायी रूप से जब्त करने की प्रक्रिया शुरू कर सकता है। अदालत द्वारा बालकृष्ण को दोषी करार ठहराए जाने के बाद ये सम्पत्तियां अस्थायी रूप से जब्त कर ली जाएंगी। ईडी पहले  भी विदेश में स्थित सम्पत्ति को मनी लांड्रिंग रोकथाम कानून के तहत जब्त कर चुका है। किडनी रैकेट चलाने वाले डॉ. अमित कुमार पर किडनी रैकेट से कमाए गए धन से ईडी द्वारा जब्त सम्पत्ति को खरीदने का आरोप है।


 

मनमोहन सिंह पर इस्तीफा देने का दबाव बढ़ता जा रहा है


 Published on 31 August, 2012

अनिल नरेन्द्र

क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने पद से हटने वाले हैं? रिपोर्टें तो कुछ ऐसी ही आ रही हैं। जैसे-जैसे सरकार विरोधी हवा तेज होती जा रही है और संसद का काम ठप पड़ा हुआ है उससे डॉ. मनमोहन सिंह पर दबाव बढ़ता जा रहा है और उनके इस्तीफे की मांग जोर पकड़ती जा रही है। प्रधानमंत्री इन दिनों बेहद दबाव महसूस कर रहे हैं। भाजपा ने संसद के भीतर उनके इस्तीफे के लिए दबाव बनाया हुआ है तो सड़कों पर अन्ना हजारे, अरविन्द केजरीवाल और बाबा रामदेव के समर्थकों ने मनमोहन सिंह और उनकी सरकार के खिलाफ आंदोलन छेड़ रखा है। जनता में मनमोहन सिंह और इस सरकार की विश्वसनीयता दिन-प्रति-दिन घटती जा रही है और यही चिन्ता कांग्रेसियों को खाए जा रही है। अधिकतर कांग्रेसी सांसद अब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक बोझ मानने लगे हैं। लाइबिलिटी मानने लगे हैं। कांग्रेस के लोगों में यह चर्चा आम है कि मनमोहन सिंह इतने बदनाम हो चुके हैं कि जनता में इनकी विश्वसनीयता जीरो हो चुकी है। सोशल नेटवर्कों के अलावा गली-चौराहों, बसों, मेट्रो व चाय-पान और नाई की दुकानों पर सरकार को लेकर जो चर्चाएं हो रही हैं उन सब की जानकारी प्रधानमंत्री को मिल रही हैं जिससे वे बेहद दबाव में हैं। सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री के मुताबिक डॉ. सिंह हालांकि टीवी देखने के उतने शौकीन नहीं हैं लेकिन आजकल वे टीवी चैनल देखने लगे हैं। अभी तक घोटाले और भ्रष्टाचार के आरोप कांग्रेस के सहयोगी दलों या दूसरे कांग्रेसी मंत्रियों पर लगाए जाते थे। लेकिन कोल आवंटन मामले में तो सीधे हमले मनमोहन सिंह पर हो रहे हैं। कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार को चौतरफा घिरता देख उसे सहारा दे रहे सहयोगी अब खुलकर तेवर दिखाने लगे हैं। कोयला आवंटन में फंसे प्रधानमंत्री को हटाने की चर्चाओं के बीच सरकार के दो सहयोगी दलों ने अब मध्यावधि चुनावों का राग अलापना आरम्भ कर दिया है। सरकार का हिस्सा होने के बावजूद ममता बनर्जी ने कहा है कि वे चाहती हैं कि यूपीए सरकार अपना कार्यकाल पूरा करे लेकिन हालात बिगड़ते हैं तो उनकी पार्टी मध्यावधि चुनावों के लिए पूरी तरह तैयार है। समाजवादी पार्टी मुखिया मुलायम सिंह तो पहले ही कह चुके हैं कि मध्यावधि चुनाव कभी भी हो सकते हैं और उनकी पार्टी ने तो चुनावी तैयारियां भी शुरू कर दी हैं। पार्टी के वरिष्ठ नेता व प्रवक्ता मोहन सिंह ने तो यहां तक कह दिया कि सोनिया गांधी को छोड़कर कोई भी कांग्रेसी नहीं चाहता कि मनमोहन सिंह पीएम के पद पर रहें। वे किसी और व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाने की तैयारी कर रहे हैं। हालांकि उस व्यक्ति के नाम का खुलासा तो मोहन सिंह ने नहीं किया पर उनका इशारा राहुल गांधी को नेतृत्व सम्भालने की ओर हो सकता है। कांग्रेस के अन्दर युवा ब्रिगेड चाहता है कि अगर 2014 में राहुल गांधी पार्टी का नेतृत्व करेंगे तो बेहतर होगा कि उन्हें अभी से प्रधानमंत्री बना दिया जाए। वैसे ऐसे कांग्रेसियों की भी कमी नहीं जो यह कहते हैं कि यह राहुल के लिए नेतृत्व सम्भालने का उपयुक्त समय नहीं है। पार्टी चौतरफा घिरी हुई है। ऐसे समय अगर राहुल को प्रधानमंत्री पद पर बिठा दिया जाता है तो अगले लोकसभा चुनाव तक उनकी भी विश्वसनीयता  जीरो हो जाएगी। तकरीबन सभी कांग्रेसी इस बात पर एकमत हैं कि मनमोहन सिंह के नेतृत्व में पार्टी 2014 का लोकसभा चुनाव नहीं जीत सकती। मनमोहन सिंह अब उनकी नजरों में एक बोझ बन गए हैं। लाइबिलिटी बन गए हैं।

Thursday, 30 August 2012

गीतिका की मौत ः यहां तो हर मौत के पीछे एक कहानी है


 Published on 30 August, 2012

 

अनिल नरेन्द्र

 

पिछले कई दिनों से गीतिका शर्मा और गोपाल कांडा का केस अखबारों की सुर्खियों में है। गीतिका की आत्महत्या के मामले में शायद कुछ नया नहीं है। इससे पहले भी ऐसे मामले सामने आ चुके हैं जिनमें लड़कियों की हत्या या आत्महत्या की गुत्थी के ऐसे पहलू सामने आए हैं। आखिर ऐसे मामलों में दोष किसका है। इन लड़कियों का जो तरक्की करने के लिए एक ऐसे जाल में फंस जाती हैं जिससे निकलना कई बार नामुमकिन हो जाता है या फिर वो जिम्मेदार है जो महत्वाकांक्षा की कीमत वसूलना जानते हैं। गीतिका से पहले हाल ही में हमारे सामने अनुराधा बाली उर्प फिजा का मामला आया। संदिग्ध परिस्थितियों में अभी हाल ही में फिजा की मौत का मामला सामने आया है। पुलिस यह पता नहीं लगा पाई है कि फिजा की मौत आत्महत्या है, हत्या या फिर कॉकटेल की ओवरडोज। हरियाणा के डिप्टी सीएम चन्द्रमोहन के साथ मुहब्बत की यह कहानी एक महीना भी नहीं चली और फिजा और चन्द्रमोहन की शादी टूट गई। अब सामने रह गई है मौत की एक कहानी। मध्य प्रदेश की आरटीआई एक्टिविस्ट शहला मसूद की मौत की कहानी भी राजनीति के दांव-पेंच में घूम रही है। कहते हैं कि मध्य प्रदेश के बीजेपी के एक पॉवरफुल नेता ध्रुवनारायण सिंह और शहला में काफी नजदीकियां थीं। पुलिस के अनुसार ये नजदीकियां ध्रुवनारायण को चाहने वाली इंटीरियर डिजाइनर जाहिदा परवेज को बिल्कुल पसंद नहीं थी। जाहिदा ने शहला मसूद को ही सुपारी देकर मरवा डाला। सीबीआई ने केस की तफ्तीश की तो केस की सारी परतें खुल गईं। सीबीआई ने जाहिदा को मुख्य आरोपी बनाते हुए केस की चार्जशीट कोर्ट में दाखिल कर दी है। इसी तरह कई और मामले भी हैं जिनमें मेरठ की एक प्रोफेसर कविता चौधरी, पत्रकार शिवानी भटनागर, कवयित्री मधुमिता शुक्ला के केस प्रमुख हैं। दरअसल समस्या यह है कि आजकल समाज में ज्यादातर लोग जल्दी से जल्दी बहुत कुछ पा लेना चाहते हैं और ऐसा करते वक्त वे असुरक्षा से घिर जाते हैं। बहुत जल्दी से आगे बढ़ने की इस चाहत का कुछ लोग गलत फायदा उठाने की ताक में हमेशा रहते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि पर्सनल लाइफ और प्रोफेशनल लाइफ में जहां घालमेल हुआ वहीं से समस्याओं की शुरुआत हो जाती है। जो लोग संवेदनशील और भावुक होते हैं उनके साथ ऐसी समस्याएं खासतौर पर आती हैं, क्योंकि किसी व्यक्ति के सब्ज-बाग दिखाए जाने पर ऐसे लोग आसानी से भावुक हो जाते हैं। इस भावुकता के कारण जाल में आसानी से फंस जाते हैं। ऐसे में जब आशाएं टूटती हैं तो तनावग्रस्त होकर इंसान भी टूटने लगता है और खुद को अकेला महसूस करता है। दरअसल इस तरह के भटकाव से बचने के लिए बैलेंस लाइफस्टाइल की जरूरत है जिन्दगी में। यह सही है कि आकांक्षाएं और महत्वाकांक्षाएं जिन्दगी में होनी चाहिए लेकिन उनका रास्ता ठोस और पुख्ता होना चाहिए। सपनों में जीना बुरी बात नहीं है, लेकिन इसका भी एक संतुलित तरीका होना चाहिए। इन सारे केसों में परिवार वालों का भी रोल महत्वपूर्ण रहा। सब जानते हुए समय रहते किसी ने नहीं रोका, क्योंकि सभी लाभ उठा रहे थे।

कांग्रेस-भाजपा दोनों आर-पार की लड़ाई के मूड में


 Published on 30 August, 2012

 

अनिल नरेन्द्र

 

कोलगेट के मुद्दे पर अब भाजपा और कांग्रेस के बीच जंग और तेज हो गई है। दोनों बड़े दलों ने एक-दूसरे पर हल्ला बोल दिया है। पिछले छह दिनों से संसद ठप पड़ी है। दोनों दलों में तल्खी इस हद तक बढ़ गई है कि दोनों पार्टियों के नेता अब खुलकर एक-दूसरे पर तल्ख से तल्ख टिप्पणियां कर रहे हैं। मंगलवार को सुबह कांग्रेसी संसदीय दल की बैठक हुई। बैठक में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने एक बार फिर आक्रामक तेवर दिखाते हुए अपने सांसदों से कहा कि कोयला मामले में सरकार को कुछ भी छिपाने को नहीं है और न ही सरकार ने कोई गलत काम किया है। ऐसे में डरने की जरूरत नहीं है, क्योंकि भाजपा राजनीतिक षड्यंत्र के तहत देश को गुमराह करने में जुटी है। क्योंकि ब्लैकमेलिंग भाजपा की रोटी-रोजी बन गई है। उधर लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने भी आक्रामक रुख अख्तियार कर लिया है। वे अभी तक इस मामले में यूपीए सरकार और प्रधानमंत्री को कठघरे में खड़ा कर रही थीं। लेकिन प्रधानमंत्री के भाषण के बाद उनके स्वर सरकार के खिलाफ और तीखे हो गए। सरकार के साथ ही उन्होंने इस मामले में कांग्रेस नेतृत्व को भी लपेट लिया। उन्होंने अपनी खास शैली में कहा कि कोयला आवंटन के खेल में जो पैसा बनाया गया, वह सरकारी खजाने में नहीं गया बल्कि मोटा माल कांग्रेस के खजाने में गया है। उन्होंने चुनौती के तेवरों में यह आरोप दोहराया कि वे यह गम्भीर आरोप लोकसभा में विपक्ष की नेता की हैसियत से लगा रही हैं। यह बात वह पूरी जिम्मेदारी से कह रही हैं। कांग्रेस ने विपक्ष का एका तोड़ने के लिए अपनी चालबाजियां शुरू कर दी हैं। उधर सीपीएम ने तो इसे मैच फिक्सिंग करार दे दिया है कि यह कांग्रेस और भाजपा के बीच महज नौटंकी है क्योंकि कोयला आवंटन घोटाले में दोनों ही शामिल हैं। इसलिए सारे मामले को दबाने के लिए यह नौटंकी हो रही है। मैच फिक्सिंग हो रही है। कांग्रेस और सरकार इस समय चौतरफा दबाव में है। कांग्रेस रणनीतिकारों को दरअसल समझ नहीं आ रहा कि वह आगे कैसे कदम बढ़ाएं। कांग्रेस ने विपक्ष पर दबाव बनाने हेतु यह उड़ा दिया कि सरकार अगले सप्ताह लोकसभा में विश्वास मत का प्रस्ताव लाएगी ताकि विपक्ष को बड़ी राजनीतिक शिकस्त दी जा सके। कांग्रेस के प्रवक्ता पीसी चॉको दो दिन पहले ही भाजपा नेतृत्व को चुनौती दे चुके हैं कि उसमें दम है तो वह संसद में सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाकर दिखाए। उधर भाजपा का लगता है कि मूड आर-पार की लड़ाई का है। कोई साथ दे या न दे, भाजपा भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अकेले लड़ाई लड़ने को तैयार है। इसीलिए भाजपा भ्रष्टाचार पर आक्रामक रुख अपना रही है। इसके पीछे एक कारण यह भी है कि अगले साल भी जिन आधा दर्जन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं उनमें भाजपा-कांग्रेस के बीच ही मुख्य मुकाबला होगा। राजनीतिक स्तर पर कांग्रेस को घेरने के लिए भाजपा जो आक्रामकता छह माह बाद दिखाती, उसे वह अब अभी से छह माह पहले से ही दिखाने लगी है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांग्रेस को सीधा कठघरे में खड़ा करके भाजपा 2014 या उससे पहले होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए खुद को राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस का एकमात्र विकल्प के रूप में खड़ा कर लेना चाहती है। लिहाजा भाजपा भ्रष्टाचार की इस लड़ाई या अपनी राजनीतिक रणनीति के हिसाब से ही चल रही है। अब देखना यह है कि आर-पार की लड़ाई में आगे क्या होता है?


Wednesday, 29 August 2012

ओबामा फिर राष्ट्रपति चुने गए तो अमेरिका में गृहयुद्ध हो सकता है?


 Published on 29 August, 2012

अनिल नरेन्द्र

अमेरिका में पता नहीं लोगों को क्या हो गया है। अभी विस्कांसिन के गुरुद्वारे में हुई गोलाबारी से देश उभरा नहीं था कि अब शुक्रवार को इस तरह की एक और वारदात सामने आ गई। एक बार फिर ऐसे ही एक दहशतगर्द ने न्यूयार्प के प्रसिद्ध पर्यटक स्थल अम्पायर स्टेट बिल्डिंग के पास अंधाधुंध गोलियां बरसा कर अपने एक पूर्व साथी को मौत के घाट उतार दिया। पुलिस की जवाबी कार्रवाई में बन्दूकधारी जेफ्री जॉनसन भी मारा गया। इस घटना में आठ लोग बुरी तरह घायल हो गए। पुलिस के अनुसार बन्दूकधारी एक फैशन डिजाइनर था। उधर राष्ट्रपति बराक ओबामा और उनके सम्भावित प्रतिद्वंद्वी रिपब्लिकन रोमनी के बीच व्हाइट हाउस की रेस सांप-सीढ़ी रेस बनी हुई है। यह जानकारी सोमवार से शुरू हो रहे रिपब्लिकन सम्मेलन से पूर्व जारी एक सर्वेक्षण में सामने आई है। इस सम्मेलन में रिपब्लिकन पार्टी अपने राष्ट्रपति उम्मीदवार की (औपचारिक) घोषणा करेगी। शुक्रवार को जारी हुए सीएनएन-ओआरसी इंटरनेशनल सर्वेक्षण में पाया गया है कि ओबामा ने 49 प्रतिशत संभावित मतदाताओं को आकर्षित किया, जबकि रोमनी ने 47 प्रतिशत मतदाताओं को। दूसरी ओर फकिस न्यूज द्वारा जारी प्रथम सर्वेक्षण में रोमनी को एक बिन्दु से आगे दिखाया गया है। रोमनी को 45 प्रतिशत मत मिले हैं और ओबामा को 44 प्रतिशत। सीएनएन के सर्वेक्षण में ओबामा 43 के मुकाबले 52 मतों से आगे हैं। यह पंजीकृत मतदाताओं का वह व्यापक वर्ग है जिसमें ऐसे लोग शामिल हैं जिनमें मतदान में हिस्सा लेने की सम्भावना कम होती है। ऐतिहासिक रूप से सम्भावित मतदाताओं का सर्वेक्षण रिपब्लिकन के लिए थोड़ा अधिक अनुकूल आंकड़ा प्रदर्शित करता है। एक-तिहाई से अधिक पंजीकृत रिपब्लिकनों (35 प्रतिशत) ने कहा है कि वे चुनाव को लेकर अत्यंत उत्साहित हैं जबकि मात्र 29 प्रतिशत पंजीकृत डेमोकेट्स ने कहा है कि वे चुनाव को लेकर उत्साहित हैं। इतना जरूर लगता है कि राष्ट्रपति बराक ओबामा के लिए दोबारा राष्ट्रपति चुनाव जीतना इतना आसान नहीं लग रहा है। उनका विरोध इस हद तक  बढ़ गया है कि मैं एक जज की टिप्पणी पढ़कर हैरान हो गया। बराक ओबामा दोबारा अमेरिका के राष्ट्रपति चुने गए तो देश में गृहयुद्ध छिड़ जाएगा। एक जज ने यह चेतावनी देते हुए कहा कि फिर से चुने जाने की हालत में ओबामा इस देश को संयुक्त राष्ट्र की सेना के हवाले कर देंगे। टेक्सास प्रांत की लुबॉक काउंटी के जज टॉम हैड ने दावा किया है कि ओबामा फिर से अगर चुने गए तो वह अमेरिका की सप्रभुता संयुक्त राष्ट्र संघ के हाथ में गिरवी रख देंगे। अगर ऐसा हुआ तो टेक्सास की जनता इसे स्वीकार नहीं करेगी। जज ने कहा कि मैं बुरी से बुरी स्थिति की कल्पना कर रहा हूं। नागरिक अशांति, सविनय अवज्ञा और यहां तक कि गृहयुद्ध भी। इससे छुटकारा पाने के लिए मैं तो कहता हूं कि बन्दूक उठाओ और ओबामा से निजात पाओ। हालांकि जज हैड बाद में अपने इस बयान से मुकर गए। उन्होंने कहा कि मीडिया ने उनके बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश किया है। उन्होंने तो सिर्प इतना कहा था कि ओबामा चुने गए तो देश आर्थिक संकट में फंस जाएगा।


मुख्य न्यायाधीश कपाड़िया के दो बयान


 Published on 29 August, 2012

अनिल नरेन्द्र 

भारत के सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एसएच कपाड़िया ने हाल में दो बयान ऐसे दिए हैं जिनका अर्थ निकालना आसान नहीं है। कुछ दिन पहले जस्टिस कपाड़िया ने इस खतरे के प्रति सरकार को चेताया था कि न्यायिक सुधार के नाम पर न्यायपालिका की स्वतंत्रता से छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए। सीजेआई की टिप्पणी को सीधे-सीधे उस न्यायिक मानक एवं जवाबदेही विधेयक से जोड़कर देखा जा रहा है जो लोकसभा में पारित हो चुका है और अब इस पर राज्यसभा की मुहर लगनी बाकी है। इसके एक विवादास्पद प्रावधान में कहा गया है... `कोई भी न्यायाधीश किसी भी संविधान और विधिक संस्थान या अधिकारी के खिलाफ खुली अदालत में मामले की सुनवाई के दौरान अवांछित टिप्पणी नहीं करेगा।' पिछले कुछ सालों में कई ऐसे मामले सामने आए हैं, जिसमें सुप्रीम कोर्ट से लेकर हाई कोर्ट तक ने सीधे-सीधे सरकारी कामकाज के तरीके पर तल्ख टिप्पणी की है। तल्खी का यह स्तर यहां तक गया है कि कहा गया कि अगर स्थिति नहीं सम्भलती तो सरकार गद्दी क्यों नहीं छोड़ देती। अब जस्टिस कपाड़िया ने ताजा बयान दिया है कि न्यायधीशों को देश का शासन नहीं चलाना चाहिए और न ही नीतियां विकसित करनी चाहिए। न्यायधीशों को `सोने के अधिकार' को मूल अधिकार बनाने जैसे कुछ फैसलों पर व्यवहारपरक कसौटी का इस्तेमाल करना चाहिए। न्यायपालिका के कामकाज पर कुछ स्पष्ट आत्ममंथन करते हुए न्यायमूर्ति कपाड़िया ने सवाल किया कि यदि कार्यपालिका न्यायपालिका के उन निर्देशों का पालन करने से मना कर दे जो लागू करने योग्य न हों, तो क्या होगा? उन्होंने कहाöहमने कहा है कि जीवन के अधिकार में पर्यावरण सुरक्षा और मर्यादा के साथ जीने का अधिकार है। अब हमने उसमें सोने का अधिकार भी शामिल कर दिया, हम कहां जा रहे हैं? यह आलोचना नहीं है, क्या यह लागू करने योग्य है? जब आप अधिकार का दायरा बढ़ाते हैं तो न्यायाधीश को उसके अमल की व्यवहारपरकता की सम्भावना भी तलाशनी चाहिए। उन्होंने सवालिया लहजे में कहा कि न्यायधीशों को खुद से सवाल करना चाहिए कि क्या ऐसे फैसले लागू योग्य हैं। उन्होंने कहा कि न्यायाधीशों को देश का शासन नहीं चलाना चाहिए। जब कभी आप कानून प्रतिपादित करें तो उसे शासन में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। हम जनता के प्रति जवाबदेही नहीं हैं। संविधान के मूल सिद्धांतों में निहित वस्तुनिष्ठता एवं यथार्थवाद को महत्व देना होगा। हम मुख्य न्यायधीश की बातों को ठीक से समझ नहीं पाए। एक तरफ तो वह सरकार को चेता रहे हैं कि वह न्यायपालिका के काम में हस्तक्षेप न करें वहीं वह जजों से कह रहे हैं कि आप शासन चलाने की कोशिश न करें। यह सही है कि पिछले कुछ सालों से सत्तारूढ़ सरकारों ने बहुत से अहम फैसले खुद न करके सुप्रीम कोर्ट पर छोड़ दिए हैं ताकि वह वाहवाही तो लूट सकें और जब वह सुप्रीम कोर्ट रिजैक्ट कर दे तो सारा दोष अदालतों पर लगा दें। संविधान में न्यायपालिका और कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्रों को स्पष्ट तौर पर परिभाषित किया गया है पर फिर भी कई ऐसे मुद्दे देखने में आए हैं जब सरकार और अदालतें आमने-सामने आ जाती हैं। इस टकराव से बचना सभी के हित में है। सरकार को अपना काम करना चाहिए और न्यायपालिका को अपना। शासन चलाना सरकार का काम है और कानूनों का उल्लंघन रोकना अदालत का। सरकार को अगर अदालत से टकराव से बचना है तो वह कानूनों को तोड़-मरोड़ कर अपने राजनीतिक हितों को साधने से परहेज करे। अगर सरकार में दम है तो बाकायदा कानून पास करवा ले। अगर कानून बन जाता है तो अदालतों को उस पर ऐतराज नहीं होगा। जस्टिस कपाड़िया खुलकर कुछ नहीं कह रहे कि आखिर अन्दरखाते उन्हें पीड़ा किस बात की है।

Tuesday, 28 August 2012

प्रमोशन में आरक्षण देने के प्रस्ताव पर अटार्नी जनरल की चेतावनी


 Published on 28 August, 2012

  अनिल नरेन्द्र

अनुसूचित जाति व जनजाति को प्रमोशन में आरक्षण देने संबंधी विधेयक लाने का वादा कर चुकी मनमोहन सिंह सरकार के सामने अब नया पेंच फंस गया है। केंद्र को उसके ही शीर्ष विधि अधिकारी अटार्नी जनरल जीई वाहनवती ने सलाह दी है कि सरकारी नौकरियों में पदोन्नति में आरक्षण देने का प्रस्ताव कानूनी तौर पर पुख्ता नहीं है। उन्होंने सरकार को आगाह करते हुए कहा है कि इस विषय पर कोई भी कानून लाते समय सतर्पता बरती जाए। इस तरह के कानून को अदालत में चुनौती दी जा सकती है जबकि इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट उत्तर प्रदेश की ओर से पदोन्नति में आरक्षण देने के कानून को निरस्त कर चुका है। हाल ही में सरकार ने टिकाऊ संशोधन कर एससी/एसटी को प्रमोशन में आरक्षण का भरोसा राजनीतिक दलों को दिलाया था। वाहनवती ने सरकार को आगाह करते हुए नसीहत देते हुए कहा कि संशोधन के लिए प्रस्तावित कदम मजबूत होने चाहिए, क्योंकि नागरिक अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर लोग कोर्ट में इसे चुनौती देंगे। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आधार पर सरकार को इस मुद्दे के सभी पहलुओं से अवगत कराते हुए इसमें पेचीदगियों की जानकारी भी दी है। सरकार को अटार्नी जनरल की सलाह को गम्भीरता से लेना चाहिए। वोट बैंक के फेर में सरकार को कोई ऐसा कदम उठाने से बचना चाहिए जो संविधान के खिलाफ हो और जिसे सुप्रीम कोर्ट से मंजूरी न मिल सके। सुप्रीम कोर्ट ने एन. नागराज फैसले में कहा है कि सरकार तभी प्रमोशन में आरक्षण दे सकती है जब उसके पास इस बात का आंकड़ा मौजूद हो कि उच्च पदों पर पिछड़े वर्गों के लोगों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है। यह आंकड़ा जुटाना भारी काम है। कोर्ट ने इस आंकड़े के अभाव में ही 27 अप्रैल को यूपी सरकार का प्रमोशन में आरक्षण देने का कानून रद्द कर दिया था। दरअसल प्रमोशन में आरक्षण संविधान के अनुच्छेद 16(4) के तहत किया जाता है। इस अनुच्छेद में प्रावधान है कि सरकारी प्रमोशन में आरक्षण तभी दे सकते हैं जब ये सुनिश्चित कर सकें कि पिछड़े वर्ग का उच्च पदों पर `पर्याप्त प्रतिनिधित्व' नहीं है। समस्या इन्हीं `पर्याप्त प्रतिनिधित्व' शब्दों से है। कोर्ट यही पूछता है कि क्या सरकार ने आरक्षण वर्ग के लोगों को सरकारी नौकरियों में `पर्याप्त प्रतिनिधित्व' का अध्ययन करवाया है? पदोन्नति में आरक्षण की जटिलता को सुलझाने के लिए यह सलाह भी शायद ही समस्या का सही तरह से समाधान कर सके कि अन्य पिछड़े वर्गों को भी वैसा ही लाभ मिले जैसा अनुसूचित जातियों-जनजातियों को देने की पैरवी की जा रही है। यदि आरक्षण का उद्देश्य सामाजिक समरसता लाना और शोषित-वंचित तबकों का उत्थान करना है तो फिर ऐसी किसी व्यवस्था का निर्माण करने से बचना चाहिए जो किसी अन्य वर्गों के हितों को चोट करती हो। यह समझना कठिन है कि अगर सभी राजनीतिक दल ईमानदार हैं तो ऐसी व्यवस्था का निर्माण क्यों नहीं करते जिससे पदोन्नति में किसी भी वर्ग के साथ भेदभाव की गुंजाइश ही न रहे? बेहतर तो यह भी है कि राजनीतिक दल और विशेष रूप से सरकार पदोन्नति में आरक्षण के प्रश्न पर नई व्यवस्था के बजाय पुरानी व्यवस्था में सुधार के माध्यम से ही सुलझाने के बारे में सोच-विचार करें। हां, इसके लिए यह जरूरी है कि सभी दल जिसमें सत्तारूढ़ दल भी शामिल हैं वोट बैंक की राजनीति से ऊपर उठें। अभी तो यही लगता है कि अनुसूचित जातियों-जनजातियों के हितों से ज्यादा उनकी वोटों की चिन्ता है।

भारतीय खेलों का सुपर संडे


 Published on 28 August, 2012

अनिल नरेन्द्र 

रविवार यानि संडे भारतीय खेल के लिए एक अच्छा दिन रहा। यह कहा जाए कि सुपर संडे रहा तो शायद गलत नहीं होगा। क्रिकेट की बात करें तो सबसे बड़ी उपलब्धि हमारे अंडर-19 क्रिकेट टीम की रही। कप्तान उन्मुक्त चन्द (नाबाद 111) के शानदार शतक से भारतीय अंडर-19 टीम ने फाइनल में गत चैंपियन आस्ट्रेलिया को छह विकेट से पराजित कर तीसरी विश्व कप ट्रॉफी अपने नाम की। भारत ने इससे पहले मोहम्मद कैफ और विराट कोहली की अगुवाई में 2000 और 2008 में अंडर-19 विश्व कप खिताब अपनी झोली में डाला था। उन्मुक्त की 111 रन की शानदार नाबाद पारी और विकेट कीपर समित पटेल (नाबाद 62) के साथ उनकी 130 रन की नाबाद साझेदारी से भारत ने उछाल भरी पिच पर 226 रन का यह प्रतिस्पर्धी लक्ष्य 14 गेंद रहते ही हासिल कर लिया। आस्ट्रेलिया इससे पहले कभी फाइनल मैच नहीं हारा था। अंडर-19 टीम की जीत से यह कन्फर्म हो जाता है कि अगर सीनियर टीम जीतती है तो वह कोई तुक्का नहीं होता। बीसीसीआई और संबंधित संगठन भी इस बात के लिए बधाई के पात्र हैं जिन्होंने इन युवा खिलाड़ियों को आगे बढ़ने के अवसर प्रदान किए। इससे साबित हो जाता है कि भारत में टैलेंट की कमी नहीं, अवसर और सुविधाएं मिलनी चाहिए। संडे को ही सीनियर टीम ने न्यूजीलैंड को एक पारी और 115 रन से हराकर न्यूजीलैंड-भारत टेस्ट सीरीज की शानदार शुरुआत की। ऑफ स्पिनर रविचन्द्रन अश्विन ने लगातार दूसरी पारी में न्यूजीलैंड के बल्लेबाजों को अपनी अंगुलियों पर नचाया जिससे भारत पहले टेस्ट में बड़ी आसानी से पारी और 115 रन से जीतकर दो मैच की श्रृंखला में 1-0 की बढ़त बनाने में कामयाब रहा। अश्विन ने पहली पारी में 31 रन देकर छह विकेट लिए, दूसरी पारी में भी 54 रन देकर छह विकेट लिए। एक टेस्ट में 12 विकेट लेकर एक शानदार कीर्तिमान बनाया अश्विन ने। उधर हम हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा की तारीफ करना चाहेंगे कि रविवार को उन्होंने लंदन ओलंपिक्स में भाग लेने वाले हरियाणा के खिलाड़ियों को सम्मानित कर भारतीय खेलों को जबरदस्त प्रोत्साहन देने का काम किया। हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा ने सोनीपत के गोहाना में एक रंगारंग कार्यक्रम में रजत पदक जीतने वाले पहलवान सुशील कुमार को 1.5 करोड़ रुपए, योगेश्वर दत्त को एक करोड़, गगन नारंग को एक  करोड़, सायना नेहवाल को एक करोड़ रुपए नकद दिए। सबसे उत्साहित बात यह रही कि हुड्डा ने हरियाणा से लंदन ओलंपिक में भाग लेने वाले प्रत्येक खिलाड़ी को सम्मानित किया। बेशक इन्होंने मेडल न जीता हो पर इन्होंने लंदन में भाग लेकर भारत और हरियाणा की शान तो बढ़ाई। कृष्णा पूनिया को 31 लाख, विजेन्द्र सिंह, गीता फोगार और अमित कुमार को 21-21 लाख रुपए दिए गए। जय भगवान, मनोज कुमार, संजीव राजपूत, सरदारा सिंह, विकास कृष्ण, सीमा आंतिल, सुमित सांगवान, ओम प्रकाश, अनुराज सिंह, संदीप सिंह और गरिमा चौधरी सभी को 11-11 लाख रुपए की प्रोत्साहन राशि दी गई। हम अपनी अंडर-19 टीम और हरियाणा के मुख्यमंत्री को बधाई देना चाहते हैं।

Sunday, 26 August 2012

दो दिन की बैंक हड़ताल आखिर नुकसान किसको होगा?


 Published on 26 August, 2012

अनिल नरेन्द्र

सरकारी क्षेत्र के बैंकों की दो दिन की देशव्यापी हड़ताल से देशभर में व्यापार बुरी तरह प्रभावित हुआ। बेशक निजी बैंकों के कर्मचारियों का हड़ताल में शामिल न होने से कुछ हद तक उपभोक्ता प्रभावित नहीं हुए और कुछ ने एटीएम से काम चलाया पर निजी क्षेत्र या सार्वजनिक क्षेत्र के आर्थिक लेन-देन पर इसका प्रभाव पड़ा और करोड़ों रुपए का नुकसान भी हुआ है। बैंकों में कामकाज ठप रहने से नकदी हस्तांतरण, चेक क्लीयरिंग, विदेशी मुद्रा लेन-देन सहित तमाम बैंकिंग सेवाएं बाधित हुईं। समय पर चेक क्लीयर न होने से बड़ी संख्या में सौदों का भुगतान अटक गया। नकदी का प्रवाह थम जाने से शेयर बाजारों में भी सुस्ती रही। इसमें कोई दो राय नहीं कि हड़ताल का दायरा काफी व्यापक रहा। इसके जरिए सरकारी क्षेत्र के 24 और कुछ निजी बैंकों के 10 लाख कर्मचारियों ने अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया। आर्थिक क्षेत्र में एक या दो दिन की देरी भी हजारों करोड़ रुपए की हो सकती है। इस हड़ताल का प्रभाव इतना ही सीमित नहीं होगा। पिछला हफ्ता काफी सारी छुट्टियों वाला था। स्वतंत्रता दिवस के एक दिन बाद शनिवार-रविवार आ गया और सोमवार को ईद की छुट्टी हो गई यानि 15 अगस्त के बाद कुल दो पूरे कामकाजी दिन थे। हड़ताल के बाद शुक्रवार आ गया और सप्ताहांत शुरू हो गया। इस तरह लगभग डेढ़ हफ्ते का कामकाज प्रभावित हुआ। बैंक कर्मचारी बैंकिंग सुधारों के लिए गठित खंडेलवाल कमेटी की सिफारिशों और बैंकिंग कानून संशोधन विधेयक को वापस लेने की मांग कर रहे हैं। यूनियनों की दलील है कि इस विधेयक से छोटे बैंकों का विलय होगा और लाखों लोगों की नौकरी खतरे में पड़ जाएगी। यूनियनों की मांगों में  बेशक दम हो पर उन्हें यह भी समझना चाहिए कि किसी भी संकट के समाधान के लिए हड़ताल कभी कारगर हथियार साबित नहीं हुई है। उद्योग क्षेत्र में अब तक जितनी भी हड़तालें हुई हैं, उनमें मालिकानों की तुलना में श्रमिक ज्यादा प्रभावित हुए हैं। देश में कार बनाने वाली सबसे बड़ी कम्पनी मारुति सुजुकी के मानेसर कारखाने का विवाद इसकी ताजा मिसाल है। जहां कभी तीन शिफ्टों में छह हजार से ज्यादा श्रमिक काम करते थे, एक महीने की तालाबंदी के बाद यहां महज 300 श्रमिकों को ही काम पर लगाया गया है। इस घटना में कम्पनी को भले ही अरबों का नुकसान उठाना पड़ा लेकिन जिन लोगों का काम छिन गया, उनके समक्ष इस महंगाई के दौर में क्या हालात होंगे, इसका अन्दाजा लगा पाना मुश्किल है। बैंक कर्मचारियों के मामले में यूनियनों का टकराव तो सीधे सरकार से है। दरअसल देश में छोटे-छोटे मुद्दों पर हड़ताल, सड़क जाम और तोड़फोड़ की एक परिपाटी-सी बन गई है। यदि इसके दुष्परिणामों पर नजर डालें तो अंतत इसका नुकसान अन्त में जनता को ही भुगतना पड़ता है। बैंकों की दो दिन की हड़ताल पर ही गौर करें तो देश की अर्थव्यवस्था पर 30 हजार करोड़ से ज्यादा का नुकसान हुआ है। बैंक कर्मचारी पिछले दिनों कई बार हड़ताल कर चुके हैं। बुनियादी बात यह है कि उदारीकरण के बाद बदले हुए माहौल में बैंकों के कामकाज में सुधार की कोशिशें की गईं और बैंक कर्मचारी आमतौर पर उनके खिलाफ हैं। हो सकता है कि इन तमाम कोशिशों में कुछ ऐसे भी कदम हों जिसका असर उनके कुछ जायज हितों पर पड़ता हो लेकिन यह तो स्वाभाविक है कि कोई भी संस्थान उसी पुराने ढर्रे पर लगातार नहीं चल सकता। बदले हुए माहौल में खर्च कम करने और उत्पादन बढ़ाने की कोशिशें की ही जाएंगी और हड़तालें उन्हें कुछ वक्त ही टाल सकती हैं। रविवार और त्यौहारों को मिलाकर अगस्त माह में बैंकों में अब तक सात दिन कामकाज नहीं हुआ है। ऐसे में कर्मचारी नेताओं के दो दिन की हड़ताल के फैसले को क्या उचित ठहराया जा सकता है? निजी क्षेत्र के बैंकों से वैसे भी सरकारी बैंक सुविधाएं और सर्विस में पिछड़ रहे हैं, क्या इन हड़तालों से यह बेहतर होंगी? बैंक कर्मचारियों को अपनी बातें मनवाने के लिए अन्य विकल्पों पर भी विचार करना चाहिए था। हड़ताल से कौन-सी समस्या का समाधान हुआ है? इन्हें ठंडे दिमाग से गौर करना चाहिए कि आखिर हड़ताल के जरिए देश को क्या मिलेगा, क्या इससे आम जनता को लाभ होगा? हमारे लोकतंत्र में आंदोलन और हड़ताल की आजादी है लेकिन हमें देश और जनता के प्रति अपने कर्तव्यों को नहीं भूलना चाहिए, खासकर बैंकों को जिनका वास्ता आम जनता से पड़ता है।

आए अवैध तरीके से और बन गए घर जंवाई यह बांग्लादेशी घुसपैठिए


 Published on 26 August, 2012

 अनिल नरेन्द्र


बेशक आग अभी असम में लगी है मगर उसकी जड़ें राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र तक फैली हैं। यहां भी जरा-सी चिंगारी कभी भी आग की शक्ल अख्तियार कर सकती है। मैं इन अवैध बांग्लादेशियों की बात कर रहा हूं। आज तक यह सही अनुमान किसी ने नहीं लगाया कि इन अवैध बांग्लादेशियों की देश में सही संख्या कितनी है? इंस्टीट्यूट ऑफ डिफेंस स्टडीज एण्ड एनॉलिसिस (आईडीएसए) की रिपोर्ट बताती है कि देश में दो करोड़ से अधिक अवैध बांग्लादेशी मौजूद हैं। देश में रहने वाले और भारतीय नागरिकों जैसी सुविधाएं भोग रहे यह अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों के खिलाफ कार्रवाई करने में असफल रहने पर दिल्ली की एक अदालत ने केंद्र सरकार को हाल ही में जमकर झाड़ भी लगाई। अदालत ने दो बांग्लादेशी नागरिकों को डकैती एवं हत्या के मामले में क्रमश उम्रकैद और 10 साल कैद की सजा सुनाते हुए कड़ी टिप्पणी की। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश कामिनी लाउ ने कहा, `हमारा देश उन सभी आपराधिक तत्वों के लिए स्वर्ग बन गया है जो अपने रास्ते में आने वाले किसी व्यक्ति के साथ अत्यंत कूरता एवं बर्बरता से पेश आते हैं।' उन्होंने कहा कि जब देश के असली नागरिक अत्यंत गरीबी का सामना कर रहे हैं तो सरकार भारत में गैर कानूनी तरीके से रह रहे और नागरिकों जैसे सभी लाभ हासिल कर रहे इन दो करोड़ से अधिक बांग्लादेशियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने में दिक्कत क्या है? न्यायाधीश ने कहा कि यह सरकार  और प्रशासन की ठोस कार्रवाई का अभाव है जिसने अदालतों को कदम उठाने पर विवश कर दिया है। सरकारी एजेंसियों की विफलता कहें या राजनेताओं की वोट लोलुपता, लेकिन हकीकत यह है कि कभी यमुना किनारे बसे झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले बांग्लादेशी घुसपैठियों ने अब सरकार द्वारा मुहैया कराए  आवासों में पहुंचने तक सफलता हासिल कर ली है। इन घुसपैठियों के पास न सिर्प भारतीय मतदाता पहचान पत्र है बल्कि राशन कार्ड से लेकर वे तमाम दस्तावेज मौजूद हैं जो इन्हें स्थानीय नागरिक बनाने के लिए काफी हैं। ये लोग न सिर्प सरकारी सुविधाएं भोग रहे हैं बल्कि अब तो दिल्ली-एनसीआर के मुस्लिम परिवारों में इन्होंने शादियां भी रचानी शुरू कर दी हैं। दिल्ली पुलिस के रिकॉर्ड में छोटे-बड़े कुल 3000 से अधिक बांग्लादेशी अपराधियों का ब्यौरा दर्ज है। इनमें कुछ तो ऐसे हैं जो बाकायदा बांग्लादेश में बैठकर ही गिरोह का संचालन करते हैं। दिल्ली पुलिस के एक आला अधिकारी के अनुसार समस्या बांग्लादेशी घुसपैठियों के भारतीय संस्कृति में घुल-मिल जाने से ज्यादा आ रही है। ऐसे कई बांग्लादेशी पकड़े गए हैं जिन्होंने हापुड़, दादरी आदि इलाकों में शादियां कर रखी हैं। कई बार यह भी देखने को आया है कि बांग्लादेशियों को पकड़कर सीमा पार छोड़ने गई पुलिस टीम के वापस लौटने से पहले ही वे बांग्लादेशी दोबारा दिल्ली पहुंच जाते हैं। खास बात यह है कि बांग्लादेश से आए कुछ लोग नकली मुद्रा भी अपने साथ लाते हैं। अभी हाल ही में क्राइम ब्रांच ने दो ऐसे मामले पकड़े जिसमें प. बंगाल से नकली नोट दिल्ली लाए गए थे। यहां आकर पुरुष जहां चोरी, लूट का काम करते हैं वहीं उनकी महिलाएं व बच्चे ड्रग्स तस्करी में जुट जाते हैं। लूट का माल खपाने के लिए कुछ ट्रैवल एजेंटों की भी मदद ली जाती है। जैसा मैंने कहा कि पूरे देश में कभी भी आग लग सकती है।

Saturday, 25 August 2012

बाबा रामदेव की मुश्किलें फिलहाल कम होती नहीं दिख रहीं



 Published on 25 August, 2012

अनिल नरेन्द्र


योग गुरु बाबा रामदेव से संप्रग सरकार अब अपनी खुंदक निकालने पर तुली हुई है। बाबा पर सीधा हाथ न डालते हुए सरकार ने उनकी फार्मेसी और उनके सबसे करीबी बालकृष्ण पर हाथ डाला है। दिल्ली में रामलीला मैदान पर आंदोलन खत्म करके बाबा हरिद्वार पहुंचे ही थे कि उनके हरिद्वार स्थित दिव्ययोग आश्रम में गुरुवार को उत्तराखंड खाद्य विभाग के अफसरों ने छापा मारा और आयुर्वेदिक दवाइयों के सैम्पल इकट्ठे किए। तीन घंटे तक चली कार्रवाई में शहद, नमक, चने का आटा इत्यादि के सैम्पल भरे गए। रामदेव ने इसे केंद्र सरकार के इशारे पर की गई कार्रवाई करार दिया। उन्होंने कहा कि यह आम आदमी और उच्च वर्ग के बीच की लड़ाई है। क्या उन्होंने (सरकार ने) कभी विदेशी कम्पनियों पर छापे मारने की हिम्मत की? लेकिन मुझे निशाना बनाया गया पर छापे के थोड़ी देर बाद बाबा के लिए एक अच्छी खबर आई। उनके सबसे करीबी बालकृष्ण को उत्तराखंड हाई कोर्ट ने गुरुवार को जमानत दे दी। बालकृष्ण को फर्जी दस्तावेज से जुड़े मामलों में सीबीआई ने 20 जुलाई को गिरफ्तार किया था। बालकृष्ण पर पासपोर्ट हासिल करने के लिए फर्जी एजुकेशन डिग्री का इस्तेमाल करने का आरोप है। बालकृष्ण की जमानत याचिका निचली अदालतों से दो बार खारिज हो चुकी है, जिसके बाद उन्होंने हाई कोर्ट की शरण ली थी। सीबीआई ने 10 जुलाई को बालकृष्ण के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की थी। समन भेजे जाने के बाद भी बालकृष्ण पेश नहीं हुए थे। बाबा और बालकृष्ण की दोस्ती अटूट साबित हो रही है। आचार्य की गिरफ्तारी से न तो व्यवसायों पर फर्प पड़ा और न ही वे अटकलें सच हुईं कि दोनों के संबंधों को लेकर मतभेद हैं। जमानत पर रिहा होकर लौटते ही पतंजलि योग पीठ के तमाम अधिकारी फिर बालकृष्ण के पास आ गए हैं। एमडी के रूप में तमाम प्रतिष्ठानों के अधिकारी आचार्य को रिपोर्ट कर रहे हैं। पिछले साल चार जून की घटना के बाद जिस तरह आचार्य को पासपोर्ट के मुद्दे पर सीबीआई ने घेरना शुरू किया था, उसे देखते हुए अटकलें लगाई जा रही थीं कि बाबा रामदेव का परिवार पतंजलि योग पीठ के तमाम अधिकार सम्भाल लेगा। बाबा हालांकि बार-बार यह कहते रहे कि आचार्य के बगैर पतंजलि का अस्तित्व अधूरा है। यह सारी आशंकाएं निराधार साबित हुईं। बाबा रामदेव और आचार्य बालकृष्ण में आत्मीय संबंध हैं पर बाबा रामदेव की मुश्किलें फिलहाल कम होती नहीं दिख रही हैं। प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने उनके सहयोगी बालकृष्ण के खिलाफ मनी लांड्रिंग का केस दर्ज कर लिया है। इसके बाद बालकृष्ण को फिर गिरफ्तार किया जा सकता है। ईडी जांच करेगा कि बालकृष्ण ने विदेशों से धन के लेन-देन में मनी लांड्रिंग रोकथाम कानून का किस तरह से उल्लंघन किया है। सूत्रों के मुताबिक यह मामला बालकृष्ण के खिलाफ सीबीआई द्वारा दर्ज की गई एफआईआर के आधार पर किया गया है। ईडी को शक है कि इस फर्जी पासपोर्ट का इस्तेमाल कर बालकृष्ण ने विदेशों से गैर-कानूनी धन का लेन-देन किया है। बाबा रामदेव की समस्याएं खत्म होने का नाम नहीं ले रही हैं। मनमोहन सरकार हर तरह से बाबा पर दबाव बनाने की कोशिश कर रही है। इससे तो यह भी लगता है कि बाबा और सरकार के बीच कोई गुप्त समझौता नहीं हुआ जैसी अटकलें लगाई जा रही थीं।

 

भाजपा कोल आवंटन घोटाले पर कांग्रेस को बख्शने को तैयार नहीं


 Published on 25 August, 2012

अनिल नरेन्द्र

कोल ब्लॉक आवंटन का मामला विपक्ष के हाथ ऐसा लग गया है जिससे खुद प्रधानमंत्री और यह सरकार आसानी से नहीं बच सकेगी। कांग्रेसी विपक्षी एकता को तोड़ने का हर मुमकिन प्रयास कर रही है। डिसइंफोर्मेशन, मिसइंफोर्मेशन, खबर प्लांट करने का दौर जोरों पर चल रहा है। पार्टी ने गुरुवार को यह उड़ा दिया कि भाजपा सांसद लोकसभा से त्याग पत्र दे सकते हैं। बाद में भाजपा को इसका खंडन करना पड़ा। कोयला ब्लॉक आवंटन पर भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट को लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के इस्तीफे पर अड़ी भाजपा ने स्पष्ट किया कि वे न तो संसद चलने देंगे और न ही लोकसभा से इस्तीफा देंगे। पूरे प्रकरण में एक दिलचस्प प्रसंग तब आया जब बुधवार को दोपहर दो बजे लोकसभा की कार्यवाही शुरू होने ही वाली थी उस वक्त शरद पवार और सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव बात कर रहे थे तो सुषमा स्वराज उन तक गईं। सुषमा जी बोलीं, `शरद भाई जब महंगाई होती है तो कांग्रेस के लोग आपको फंसाते हैं। 2जी घोटाला होता है तो ए. राजा को जेल भिजवा देते हैं, कनिमोझी को तिहाड़ पहुंचा देते हैं। पहली बार कांग्रेस के लोग सीधे फंसे हैं। जिस समय कोल ब्लॉकों का बंटवारा हुआ प्रधानमंत्री के पास प्रभार रहा या किसी कांग्रेसी मंत्री के पास। आखिर इन्हें कैसे छोड़ दें? हर चीज पर इनके दस्तखत और दूसरों को फंसाकर खुद बच जाते हैं।' शरद पवार और मुलायम सिंह चुपचाप यह सुनते रहे, बोले कुछ नहीं। दरअसल भाजपा के अन्दर यह राय बन चुकी है कि कांग्रेस अधिकतर घोटाले पर उसका ठीकरा सहयोगियों के सिर पर फोड़ देती है और खुद पाक-साफ होने का दावा करती है। चूंकि इस बार कांग्रेस पहली बार सीधे-सीधे फंसी है इसलिए उसे भी थोड़ा सबक सिखाना चाहिए। संसद के भीतर और बाहर बने इस माहौल से उत्साहित भाजपा के रणनीतिकार अब इस लड़ाई को चरणबद्ध तरीके से लड़ने की अपनी योजना को अंजाम देने के मूड में आ गए हैं। योजनाबद्ध लड़ाई के संकेत खुद पार्टी के वरिष्ठ नेता यशवन्त सिन्हा ने भी दिए। पार्टी नेता ने हालांकि पहले तो जेपीसी से अपने सदस्यों के इस्तीफे देने की बात को खारिज कर दिया लेकिन साथ ही यह भी कहने से नहीं चूके कि जेपीसी में जाने या न जाने की बात अभी पूरी तरह इसके अध्यक्ष पीसी चॉको के आचरण पर निर्भर करता है। पार्टी की रणनीति का यह पहला चरण है कि यदि जेपीसी के अध्यक्ष 2जी घोटाले में गवाही के लिए प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री को बुलाने के लिए तैयार नहीं होती तो उन पर सरकार के इशारे पर काम करने का आरोप लगाते हुए भाजपा के सदस्य सामूहिक रूप से जेपीसी से इस्तीफा दे देंगे। दूसरे चरण के तहत पार्टी के सदस्य संसद की अन्य समितियों से भी अपना सामूहिक इस्तीफे दे देंगे। इस बीच पार्टी संसद के साथ सड़कों पर भी अपना संघर्ष तेज करेगी। हालांकि अभी तीसरे, चौथे व पांचवें चरण को लेकर थोड़ी असमंजस की स्थिति बनी हुई है पर इतना जरूर लगता है कि भाजपा ने तय कर लिया है कि इस बार कांग्रेस को इतनी आसानी से बचने नहीं दिया जाएगा। दूसरी ओर सोनिया गांधी ने भी अपने सांसदों को लड़ने की तैयारी का आदेश दे दिया है। लगता है कि लड़ाई लम्बी चलेगी।


Friday, 24 August 2012

बेनी प्रसाद जैसे दोस्त हों तो कांग्रेस को दुश्मनों की जरूरत नहीं


 Published on 24 August, 2012

अनिल नरेन्द्र


कांग्रेस में बेनी प्रसाद वर्मा जैसे दोस्त हों तो उन्हें दुश्मनों की जरूरत नहीं है। वे उत्तर प्रदेश के अक्खड़ नेता हैं जो कभी समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह यादव के सबसे करीबियों में से एक थे जो बाद में कांग्रेस आ गए। अब अपनी वफादारी साबित करने के लिए वह ज्यादा ही जुट गए हैं। पूर्वांचल में बड़ा जनाधार रखने वाले यह पिछड़े वर्ग में पैठ रखने वाले बेनी प्रसाद पिछले कुछ दिनों से अपने विवादास्पद बयानों के कारण सुर्खियों में बने हुए हैं। अपने अक्खड़ स्वभाव के लिए वह जब सपा में थे तब भी वह मुलायम से भिड़ जाते थे लेकिन मजबूत कुर्मी वोट बैंक को देखते हुए मुलायम को भी उन्हें मनाना पड़ता था। लेकिन एक दौर ऐसा आया कि उन्होंने सपा को लात मारकर कांग्रेस में प्रवेश पा लिया। अब वे खांटी कांग्रेसी बनकर सबसे ज्यादा निशाने सपा पर ही साध रहे हैं। दशकों तक कांग्रेस विरोध की राजनीति करते रहे जब से बेनी प्रसाद कांग्रेस में शामिल हुए हैं तब से विपक्ष का जमकर उल्हास उठाते हैं। भाजपा को तो आए दिन सांप्रदायिक होने का आरोप लगाते रहते हैं। अब जब से कांग्रेस और समाजवादी के संबंध मधुर हुए हैं तब से बेनी प्रसाद कांग्रेसी नेताओं को यह अहसास कराने से चूकते नहीं कि मुलायम सिंह ज्यादा भरोसे लायक नहीं है, क्योंकि उनका (मुलायम सिंह का) राजनीतिक जीवन राजनीतिक धोखेबाजी का ही रहा है। अपनी बात को साबित करने के लिए वे एक दर्जन से ज्यादा उदाहरण एक सांस में ही गिना देते हैं। बेनी बाबू इस समय मनमोहन मंत्रिमंडल में स्टील मंत्री हैं। राहुल गांधी के तमाम जोर के बावजूद विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को खास सफलता नहीं मिलने का एक बड़ा कारण यही बेनी बाबू थे। बेनी बाबू के विवादित बयानों की वजह से ही पार्टी की चुनावी लुटिया डूबी। हर महीने-दो महीने में वह कोई न कोई नया टंटा जरूर खड़ा कर देते हैं। उन्होंने कह डाला कि खाने-पीने की चीजें महंगी होती हैं तो उन्हें हर बार बहुत अच्छा लगता है, क्योंकि इससे अन्न उत्पादन करने वाले किसानों का फायदा होता है। इस अजूबी टिप्पणी से पूरा विपक्ष मंत्री जी के खिलाफ एकजुट हो गया है। यह विवाद अभी गरम ही था कि बेनी बाबू ने एक और टंटा खड़ा कर दिया। उन्होंने सोमवार को कह दिया कि 2014 के लोकसभा चुनाव में राजनीतिक मुकाबला राहुल गांधी बनाम नरेन्द्र मोदी के बीच होगा। ऐसे में सपा जैसी पार्टियां सत्ता में आने के मुंगेरी लाल छाप सपने न संजोएं। उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने यह उम्मीद जताई थी कि अगले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और भाजपा के बजाय तीसरे मोर्चे की सरकार बनने के ज्यादा आसार हो गए हैं। उन्होंने अपने सिपहसालारों से कहा था कि यदि सपा को लोकसभा में 60 सीटें मिल जाती हैं तो नई सरकार की अगुवाई की स्थिति में वह आ सकते हैं। इस टिप्पणी को लेकर बेनी बाबू ने सपा और मुलायम पर तीखा कटाक्ष किया। उन्होंने कहा कि लगता है कि मुलायम कुछ-कुछ पगलाने लगे हैं और उनकी बुद्धि भी कुछ सठियाने लगी है। देखना यह है कि एक तरफ कांग्रेस में बेनी बाबू की ताजा टिप्पणियों पर क्या रिएक्शन होता है और दूसरी तरफ सपा क्या जवाब देती है?

राज ठाकरे ने उठाई बांग्लादेशी घुसपैठियों के खिलाफ आवाज


 Published on 24 August, 2012 

अनिल नरेन्द्र

मंगलवार को मनसे अध्यक्ष राज ठाकरे ने गिरगांव चौपाटी से मुंबई के आजाद मैदान में जबरदस्त रैली निकालकर एक तीर से कई शिकार करने का प्रयास किया। हजारों की संख्या में रैली करके यह साबित कर दिया कि मुंबई की राजनीति में वह एक उभरती शक्ति है जिसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता। उन्होंने एक ही झटके में कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन को तो अपनी बढ़ती ताकत का अहसास तो कराया ही साथ ही शिवसेना और भाजपा को भी अपनी हैसियत जता दी। पुलिस के मना करने के बाद भी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) के प्रमुख राज ठाकरे पहले गिरगांव चौपाटी पहुंचे वहां से पैदल चलकर आजाद मैदान गए। पुलिस ने आजाद मैदान में कार्यक्रम करने की मंजूरी तो दी थी लेकिन सड़क पर मार्च करने की अनुमति नहीं दी थी। हम राज ठाकरे को इस बात का साहस दिखाने के लिए बधाई देते हैं कि रैली में उन्होंने जमकर इन अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों के खिलाफ आवाज उठाई। आखिर किसी ने तो हिम्मत की। आजाद मैदान में लोगों को संबोधित करते हुए राज ठाकरे ने 11 अगस्त की हिंसा के लिए गृहमंत्री आरआर पाटिल और पुलिस कमिश्नर अरूप पटनायक को जिम्मेदार ठहराया। 11 अगस्त को आजाद मैदान पर रजा अकादमी ने असम हिंसा के खिलाफ प्रदर्शन किया था।  बाद में भड़की हिंसा में दो लोगों की मौत हो गई थी। 55 लोग घायल हुए थे। इनमें से 45 पुलिसकर्मी थे। मीडिया के साथ भी मारपीट हुई थी। राज ठाकरे ने कहा कि पुलिस पर हमला करने वाले महाराष्ट्रीयन नहीं हो सकते। यह बांग्लादेशियों और पाकिस्तानियों की करतूत है। धमकी भरे लहजे में कहा कि पुलिस पर हाथ उठाने वाला किसी भी धर्म का हो, उसे वहीं पीटकर सही किया जाएगा। उन्होंने कहा कि बांग्लादेश और पाकिस्तान से आकर लोग पहले झारखंड और बिहार में रुकते है फिर वहां से ट्रेनों में भर-भरकर मुंबई पहुंच जाते हैं। इन्हीं लोगों के बूते पर अबू आजमी (सपा प्रदेशाध्यक्ष) जैसे नेता दो-दो विधानसभा जीत जाते हैं। राज ठाकरे ने हिन्दुत्व के मुद्दे पर सफाई देते हुए कहा कि यह विशाल मोर्चा उन्होंने किसी के मुद्दे को हाइजैक करने के लिए नहीं निकाला है बल्कि मुंबई हिंसा में शिकार हुए पुलिस कर्मियों और मीडिया कर्मियों का मनोबल बढ़ाने के लिए निकाला है। मनसे प्रमुख राज ठाकरे ने पुलिस के मना करने के बाद भी रैली निकाली और आजाद मैदान पर भाषण दिया। उनके भाषण के बाद महाराष्ट्र पुलिस के कांस्टेबल प्रमोद तावड़े ने मंच पर जाकर उन्हें फूल भेंट किया। थोड़ी देर बाद ही पुलिस ने प्रमोद को हिरासत में ले लिया। उस पर ड्यूटी के दौरान अनुशासन भंग करने का आरोप है। प्रमोद ने कहा कि 11 अगस्त की घटना के बाद राज ठाकरे पहले नेता हैं जिन्होंने पुलिस का मनोबल बढ़ाया है। राज ठाकरे शिवसेना ठाकरे बाला साहब के नक्शेकदम पर चल रहे हैं। अब तो ठाकरे परिवार में सुलह भी हो गई है। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में निश्चित रूप से राज ठाकरे एक शक्ति के रूप में सामने आएंगे। उन्होंने इन अवैध घुसपैठियों और अराजकता फैलाने वाले तत्वों के खिलाफ खुलकर आवाज उठाने का साहस तो दिखाया।


Thursday, 23 August 2012

ममता अपनी परिपक्वता का परिचय कब देंगीं?


 Published on 23 August, 2012  

अनिल नरेन्द्र


बेशक इसमें संदेह नहीं कि तृणमूल कांग्रेस मुखिया ममता बनर्जी लगभग साढ़े तीन दशक के वाममोर्चे को पश्चिम बंगाल से उखाड़ने में सफल रहीं मगर मुख्यमंत्री बनने के बाद बेशक उनका सपना पूरा तो हुआ पर बतौर मुख्यमंत्री के उन्होंने पिछले सवा साल में शायद ही कभी अपनी परिपक्वता का परिचय दिया हो। उनके हिटलरी अन्दाज में नम्रता आने की जगह और आक्रामकता आ गई और असहमति के स्वरों को दबाने के लिए वे कठोर से कठोर कदम उठाने से नहीं हिचकिचातीं। लेकिन मुश्किल तब खड़ी होती है जब वे ऐसे मुद्दों पर अपनी राय दे देती हैं जिससे जनतंत्र की जड़ें कमजोर होती हैं। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि भ्रष्टाचार आज देश की सबसे बड़ी समस्या है और इससे कोई-सा भी क्षेत्र अछूता नहीं रहा। यहां तक कि न्यायिक क्षेत्र में भी अब यह बीमारी आ गई है। गत सप्ताह विधानसभा में आयोजित एक कार्यक्रम में बोलते हुए ममता ने न्यायपालिका पर जिस तरह के आक्षेप लगाए, उससे उनकी व्यवस्थागत समस्याओं की समझ और अपनी जिम्मेदारी के प्रति गंभीरता पर स्वाभाविक ही सवाल उठे। उन्होंने बेहद हल्के अन्दाज में कहा कि ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनसे पता चलता है कि अदालतों में पैसे के बदले मनमुताबिक फैसले दिए जाते हैं। गौरतलब है कि इससे एक दिन पहले राज्य मानवाधिकार आयोग ने ई-मेल पर व्यंग्य चित्र भेजने के विवाद में गिरफ्तार एक प्रोफेसर और उनके पड़ोसी की गिरफ्तारी को गलत बताते हुए राज्य सरकार को उन दोनों को पचास-पचास हजार रुपए मुआवजा देने की सिफारिश की थी। तब भी ममता बनर्जी ने आयोग के अध्यक्ष अशोक गांगुली पर निशाना साधते हुए कहा कि वे ऐसे आदेश कर रहे हैं, मानो राष्ट्रपति या सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश हों। इससे पहले सिंगूर में टाटा मोटर्स को आबंटित जमीन लौटाने के लिए ममता सरकार ने जो नया कानून बनाया था, उसे कोलकाता हाई कोर्ट ने असंवैधानिक करार दिया था। सवाल यह है कि अगर ममता की नाराजगी अपने खिलाफ आए कुछ फैसलों से है तो अपने पक्ष में आए फैसलों पर उनका क्या कहना है? अनुशासन नाम की चीज ममता के लिए कोई मायने शायद नहीं रखती। शासकीय दमन के विरोध का नारा देकर ही वे पश्चिम बंगाल की सत्ता में आईं। यह विरोध करने की मानसिकता उन्होंने पद संभालने के बाद भी त्यागी नहीं। संप्रग सरकार के लिए सबसे बड़ी सिरदर्द ममता ही हैं। कांग्रेस रणनीतिकारों के नाक में दम कर रखा है ममता ने। उन्हें यह समझ नहीं आता कि ममता को आखिर कैसे टैकल किया जाए। कभी रास न आने वाले अखबारों को सरकारी पुस्तकालयों से बाहर करना तो कभी वाम विरोध के नाम पर पाठ्यपुस्तकों को मनमाने बदलाव का फरमान सुना देना, बलात्कार की घटनाओं को बनावटी करार देना या अपने किसी कार्यकर्ता को पुलिस की हिरासत से छुड़ाने के लिए खुद थाने में जाकर हंगामा मचा देना उनके व्यक्तित्व को लेकर सवाल खड़े करता है। ममता को अपने काम में ज्यादा ध्यान देना चाहिए।


पाक का परमाणु जखीरा कितना सुरक्षित?


 Published on 23 August, 2012

अनिल नरेन्द्र 

दूसरे देशों के अंदरुनी मामलों में दखलंदाजी करने से बाज नहीं आते पाकिस्तान को अपने देश में क्या हो रहा है इस पर ज्यादा तवज्जो देनी चाहिए। इन जेहादी संगठनों का हौसला इतना बढ़ गया है कि अब यह पाकिस्तान स्टेट को ही चुनौती देने से डरते नहीं हैं। आधुनिक हथियारों से लैस और आत्मघाती जैकेट पहने तालिबान आतंकवादियों ने गत बृहस्पतिवार को तड़के पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में स्थित वायुसेना के एक अत्यंत महत्वपूर्ण ठिकाने पर हमला किया। दोनों तरफ से भीषण गोलीबारी में नौ हमलावर और एक सुरक्षाकर्मी की मौत हो गई और परिसर के कुछ हिस्सों में आग लग गई। ऐसा समझा जाता है कि वायुसेना के इस महत्वपूर्ण ठिकाने में परमाणु हथियारों का भंडार है। इस वायुसेना एयरबेस में बेहद कड़ी सुरक्षा व्यवस्था होने के बावजूद सैन्य वर्दी पहने आतंकी तड़के करीब दो बजे राजधानी से सिर्प 40 किलोमीटर के फासले पर पंजाब प्रांत स्थित कामरा हवाई ठिकाने में घुस गए। हमलावरों ने कम से कम तीन अवरोध पार किए और एफ-16 और चीन में बने जेएफ-17 विमानों को निशाना बनाने का प्रयास किया। पंजाब में अटक जिले में स्थित यह हवाई ठिकाना न्यूयार्प टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक उन महत्वपूर्ण ठिकानों में से एक है, जहां पाकिस्तान के परमाणु हथियारों का भंडार है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस ठिकाने पर पाकिस्तान ने अपने कम से कम एक सौ आयुध रखे हैं। पाक खबरिया चैनलों की खबरों के अनुसार रॉकेट और रॉकेटों से दागे जाने वाले ग्रैनेडों से लैस हमलावरों ने साब 2000 निगरानी विमानों को भी निशाना बनाने की कोशिश की। पाकिस्तानी वायुसेना के एक प्रवक्ता ने कहा कि हवाई ठिकाने के भीतर आठ आतंकवादियों की मौत हो गई और एक ने परिसर के भीतर जाकर जहां वह छिपा हुआ था वहां विस्फोट में खुद को उड़ा लिया। हमले में एक सैनिक की भी मौत हो गई जबकि हवाई ठिकाने के कमांडर एयर कोमोडोर मोहम्मद आजम को हमलावरों के खिलाफ अभियान का नेतृत्व करने के दौरान कंधे पर गोली लगी। यह अभियान तीन घंटे से अधिक तक चला। तहरीक-ए-तालिबान ने हमले की जिम्मेदारी  ली है। उसके प्रवक्ता एहसानुल्ला क्सांन ने कहा कि तालिबान कमांडर बेतुल्ला महसूद और अलकायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन की मौत का बदला लेने के लिए समूह केआत्मघाती हमलावरों ने इसे अंजाम दिया। उसने दावा किया कि हमलावरों ने अपना लक्ष्य हासिल किया और सुरक्षाबलों को प्राणघातक धक्का दिया। आतंकवादियों के इस हमले से ठीक 24 घंटे पहले अमेरिका के रक्षामंत्री लियोन पेनेटा ने पाकिस्तान के परमाणु हथियार आतंकवादियों के हाथों में जाने का खतरा जताया था। पाकिस्तान के सैनिक प्रतिष्ठानों पर कायराना हमलों की श्रृंखला की यह ताजा कड़ी है। इससे पहले पाकिस्तानी तालिबान से जुड़े आतंकवादी रावलपिंडी में सेना के मुख्यालय और कराची में एक प्रमुख नौसैनिक ठिकाने को निशाना बना चुके हैं। ऐसे ही एक हमले में 23 अक्तूबर 2009 को कामरा वायु सैनिक ठिकाने के बाहर एक आत्मघाती बम वाहक ने विस्फोट किया था, जिससे सात व्यक्तियों की मौत हो गई थी। पाकिस्तान का परमाणु जखीरा अब जेहादियों की नजरों में है। अभी तक तो वह कामयाब नहीं हुए। अगर कामयाब हो गए तो...?


Saturday, 18 August 2012

पाकिस्तान में अल्पसंख्यक कितने सुरक्षित हैं?


 Published on 18 August, 2012

-अनिल नरेन्द्र
 
पाकिस्तान से भारत आने के लिए शुक्रवार को निकले 300 हिन्दू और सिखों के जत्थे को पाक ने अटारी-बाघा बॉर्डर पर रोक दिया। सभी से लौटने का लिखित वादा लिया गया। इसके बाद इनमें से 150 को आने दिया गया। शुक्रवार को भारत जाने के लिए सीमा पर पहुंचे लगभग 300 हिन्दू-सिखों को पाकिस्तानी अधिकारियों ने आगे बढ़ने से रोक लिया। सुबह से ही बॉर्डर पर बैठे इन श्रद्धालुओं में से ज्यादातर घरों को लौट गए जबकि कुछ गुरुद्वारा ननकाना साहिब में ठहर गए। देर शाम लगभग 150 लोगों के जत्थे को भारत आने की आज्ञा दे दी गई। पाक प्रशासकों ने उनसे लिखकर ले लिया है कि वे भारत में अपने रिश्तेदारों के पास नहीं रहेंगे। धार्मिक स्थलों के दर्शन के  बाद लौट आएंगे। इससे पहले यात्रियों से करीब सात घंटे तक पूछताछ की गई। पाकिस्तान में हिन्दू-सिखों पर अत्याचार लगातार बढ़ते जा रहे हैं। हाल ही में एक हिन्दू लड़की को जबरन मुस्लिम बनाने की खबर पूरे विश्व ने देखी। हिन्दू-सिखों की दुकानों में लूटपाट, मकानों पर हमले और महिलाओं को जबरन इस्लाम कबूल करने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। पाकिस्तान और बंगलादेश में अल्पसंख्यकों और खासतौर पर हिन्दुओं के साथ होने वाले भेदभाव पर हाल ही में अमेरिकी विदेश विभाग की एक रिपोर्ट भी जारी हुई है। पाकिस्तान में कुल आबादी का पांच प्रतिशत से भी कम हिस्सा अल्पसंख्यकों में गिना जाता है जिनमें हिन्दू भी शामिल हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि धार्मिक अल्पसंख्यकों का दावा है कि जबरन धर्म-परिवर्तन रोकने के लिए सरकार की ओर से कोई ठोस कदम नहीं उठाए जा रहे हैं। पाकिस्तान मानवाधिकार परिषद के आंकड़ों के अनुसार हर महीने 20-25 हिन्दू लड़कियां अगुवा कर ली जाती हैं और उन्हें जबरन इस्लाम स्वीकार करने के लिए कहा जाता है। अमेरिकी विदेश विभाग ने रिपोर्ट में उदाहरण के तौर पर एक घटना का भी जिक्र किया है। इसमें बताया गया कि पिछले साल नौ नवम्बर को चार हिन्दू डाक्टरों की सिंध प्रांत के शिकारपुर जिले में सरेआम गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। कहा जाता है कि यह हमला एक हिन्दू पुरुष और मुस्लिम महिला के बीच संबंधों की वजह से हुआ था। इस मामले की पड़ताल एक साल से लम्बित है। क्वेटा से आए बाघा बॉर्डर से पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंची 70 वर्षीय सिमरनजीत कौर ने कहाöअब पाकिस्तान में हमारे लिए खोने को कुछ भी नहीं बचा था, जो भी था सब दहशतगर्द ले गए, सिर्प जान बची है, उसकी सलामती के लिए हिन्दुस्तान में रह रहे रिश्तेदारों के यहां पनाह ली है। वे फिर कहती हैं कि भरोसा नहीं रहा कि अब कभी वहां की फिजा बदलेगी। दहशतगर्दों का जुर्म इस कदर बढ़ गया है कि वतन वापसी के नाम से ही रूह कांप उठती है। शुक्रवार तड़के सिमरनजीत कौर और दूसरे चार हिन्दू परिवार पुरानी दिल्ली स्टेशन पहुंचे। सिंध में जनरल स्टोर चलाने वाले विक्की वाघवानी कहते हैं कि पिछले दो साल में शायद ही कोई ऐसा लम्हा होगा जो सुकून से बीता हो। हिन्दू परिवारों के साथ लूटपाट, मारपीट, फिरौती के लिए अपहरण की वारदात आम हो गई थीं। हर समय यही डर सताता रहता है कि आज कहीं हमारी बारी तो नहीं? आखिर हारकर मैं इन्दौर में रहने वाले अपने मौसा-मौसी के पास पनाह लेने आया हूं। छह महीने की लम्बी जद्दोजहद के बाद 35 दिनों का हिन्दुस्तानी वीजा मिला, भगवान का शुक्र है कि अब अगले कुछ दिन सुकून में बीतेंगे। क्वेटा (बलूचिस्तान) में वाइन शॉप चलाने वाले नरेश कुमार ने बताया कि मजहबी हिंसा के चलते जब बात परिवार की असमत पर आ गई तो समझौता किए बिना हमने हिन्दुस्तान में पनाह लेने की सोची। मुझे आज भी बलूचिस्तानी होने पर फख्र है लेकिन वहां फैली दहशत ने मुझे पूरे परिवार के साथ अपनी सरजमीं छोड़ने को मजबूर कर दिया। पाकिस्तान से हिन्दू-सिख परिवारों के पलायन पर भारत सरकार को मामले की गम्भीरता को समझना चाहिए। पाकिस्तान हिन्दू काउंसिल ने भी कराची में  बैठक करके इस पर चिन्ता जताई है। पाकिस्तान में भी कई नेताओं ने अल्पसंख्यकों पर उत्पीड़न की बात स्वीकार की है। इस मामले को पुरजोर तरीके से पाकिस्तान के साथ कूटनीतिक स्तर पर उठाना चाहिए। भारत को इस समस्या को नए परिप्रेक्ष्य में देखकर रणनीति बनानी होगी। पाकिस्तान से आए इन अल्पसंख्यक परिवारों को भारत में शरणार्थी का दर्जा दिया जाना चाहिए। जो परिवार अभी भी पाकिस्तान में बचे हैं उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए भारत सरकार पाकिस्तान पर दबाव बनाए। आखिर पाकिस्तान में रह रहे अल्पसंख्यकों की जिम्मेदारी पाक सरकार की है जो उन्हें उठानी ही चाहिए।

बाबा रामदेव के आंदोलन का क्या इम्पैक्ट होगा?


 Published on 18 August, 2012

अनिल नरेन्द्र


बाबा रामदेव का आंदोलन शांति से समाप्त हुआ। लगता है कि पिछली बार रामलीला मैदान घटनाक्रम से बाबा ने सीखा है और उस पर अमल भी किया। इतनी भीड़ को हर पल नियंत्रण में रखना आसान काम नहीं था जिसमें रामदेव सफल रहे। बाबा ने अन्ना हजारे के आंदोलन को एक तरह से हाई जैक करने में सफलता पाई। बाबा ने उन सभी मुद्दों को अपने एजेंडे में शामिल कर लिया जिसे लेकर अन्ना चल रहे थे। वैसे राजधानी में 10 दिनों के अन्दर दो आंदोलन अपने अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचे बिना ही समाप्त हो गए। दोनों ही आंदोलन केंद्र की अगुवाई वाली यूपीए सरकार के खिलाफ रहे। अन्ना हजारे का आंदोलन राजनीतिक विकल्प पर आकर समाप्त हुआ लेकिन बाबा का आंदोलन यूपीए के विकल्प एनडीए के तौर पर समाप्त होता दिखा। अन्ना का आंदोलन तिहाड़ जेल से शुरू हुआ था और रामदेव का आंदोलन अस्थायी जेल पहुंचकर खत्म हुआ। रामदेव के मंच पर जिस तरह एनडीए के नेता पहुंचे और बाबा का खुलकर समर्थन करने की बात कही, उससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि अगले लोकसभा चुनाव में बाबा को एनडीए के साथ खड़ा होना पड़ेगा। बाबा दिन-प्रतिदिन गिरगिट की तरह इस बार रंग बदलते दिखे। रामदेव ने पहले तीन दिन अनशन की घोषणा की। तीन दिन बाद शनिवार को बोले अगली रणनीति रविवार को। रविवार को कहा सोमवार 10 बजे करेंगे घोषणा। दलों का समर्थन मिला और उधर बालकृष्ण की जमानत नहीं हुई तो बाबा ने सवा 10 बजे संसद कूच का ऐलान कर दिया। हिरासत में लिया तो कहा जेल में तोड़ेंगे अनशन। अम्बेडकर स्टेडियम में पहले बोले खाने-पीने पर तोड़ेंगे अनशन। लोगों की भीड़ उमड़ी तो कहा मांगें माने जाने तक अनशन जारी रहेगा। फिर बोले 15 अगस्त को स्टेडियम में झंडा फहराएंगे। अंत में अनशन भी तोड़ दिया और हरिद्वार भी चले गए। देखा जाए तो केंद्र सरकार अन्ना के आंदोलन की तरह रामदेव के आंदोलन से भी निपटने में सफल रही। सरकार ने पहली बार की गई गलतियों से सबक सीखा। पहली बार तो चार-चार मंत्री बाबा को हवाई अड्डे लेने गए, इस बार सरकार ने बाबा को कोई भाव नहीं दिया। न कोई मंत्री आया न ही कोई वादा हुआ। यह दुख की बात है कि जनता की आवाज उठाने वाले आंदोलनों के दौरान आम लोग ही सबसे ज्यादा परेशान होते हैं। काले धन का अपने तरीके से ईलाज करने पर अड़े बाबा रामदेव के आंदोलन ने सोमवार को दिल्ली को जाम कर दिया। हजारों गाड़ियां जाम में फंस गईं। जरूरी कामकाज के लिए निकले लोग और मरीज घंटों परेशान होते रहे। लाख टके का सवाल है कि इतना दबाव बनाने के बावजूद क्या बाबा रामदेव काले धन और अपनी अन्य मांगों के मुद्दे पर कोई ठोस कामयाबी हासिल कर पाएंगे? उन्होंने सीवीसी और चुनाव आयोग की पूर्ण स्वायत्ता का मुद्दा उठाया और इसके साथ ही लोकपाल के मुद्दे को भी जोड़ दिया है। वह यह भी जानते हैं कि तीन-चार दिन के अल्टीमेटम में इतनी बड़ी मांगों को पूरा नहीं किया जा सकता। यह जिद कुछ-कुछ टीम अन्ना जैसी भी है, जो एक समय चाहती थी कि संसद और सरकार उसके द्वारा बनाए लोकपाल के मसौदे को तुरन्त ही मंजूर कर ले। इन दोनों आंदोलनों को यह श्रेय बहरहाल जरूर जाता है कि भ्रष्टाचार और काले धन का मुद्दा आज राजनीति के केंद्र में है। मगर यह भी समझना पड़ेगा कि आज के राजनेताओं में चाहे वह किसी भी पार्टी के क्यों न हो, ये इन्हें पूरा करने का न तो इनके पास कोई रास्ता है और न ही इच्छाशक्ति। ऐसा न हो कि बड़े मकसद के लिए शुरू हुआ बाबा का यह आंदोलन महज कांग्रेस विरोध तक सीमित रह जाए।

Friday, 17 August 2012

असम की हिंसा के पीछे कहीं विदेशी साजिश तो नहीं?



 Published on 17 August, 2012

अनिल नरेन्द्र

असम में हिंसा की घटनाओं के बीच मनमोहन सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया है कि धर्म और भाषा के आधार पर राज्य की मतदाता सूची से 40 लाख मतदाताओं का नाम हटाना सम्भव नहीं है, क्योंकि ऐसा करना असंवैधानिक होगा। केंद्र सरकार ने मतदाता सूची में 40 लाख बंगलादेशी घुसपैठियों के नाम शामिल होने संबंधी गैर-सरकारी संगठन असम पब्लिक वर्क्स के आरोपों को नकार दिया। यह संगठन चाहता है कि संदिग्ध मतदाताओं के नाम मतदाता सूची से काटे जाएं और उन्हें तत्काल वापस भेजा जाए। असल में जो बात केंद्र की कांग्रेस गठबंधन सरकार और असम में तरुण गोगोई की सरकार स्वीकार नहीं कर रही वह है वोट की राजनीति। इन 40 लाख अवैध बंगलादेशियों के वोटों पर ही गोगोई सरकार टिकी हुई है। असम और बंगलादेश के बीच 270 किलोमीटर लम्बी सीमा में से करीब 50 किलोमीटर सीमा खुली है। यहीं से अवैध घुसपैठ हो रही है। लम्बे समय से इन अवैध घुसपैठियों की वजह से स्थानीय आबादी का अनुपात प्रभावित हो रहा है। इसमें कुल जनसंख्या में मूल असमी लोगों का फीसद लगातार कम हो रहा है। असम में मामला असमी बनाम बंगलादेशियों का नहीं, न ही सवाल हिन्दू बनाम मुस्लिम है, असल मुद्दा है भारतीय बनाम विदेशी। 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कार्यकाल में असम समझौता हुआ था जिसमें बंगलादेशी घुसपैठियों की पहचान कर उन्हें वापस भेजने की बात कही गई थी। इस समझौते के प्रावधानों को कभी भी गम्भीरता से लागू नहीं किया गया। असम सरकार पर दबाव बनाने के लिए ही स्थानीय असमियों ने यह आंदोलन छेड़ रखा है। आज वह अपने घरों से बाहर निकाल  दिए गए हैं और शरणार्थी बनकर अपने ही देश में शिविरों में रहने पर मजबूर हैं। तरुण गोगोई सरकार ने समय रहते बचाव कदम तुरन्त नहीं उठाए। अगर हिंसा आरम्भ होते ही वह कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए पर्याप्त सुरक्षा बल तैनात करती तो शायद इतनी जानें न जातीं। इस समय भी शरणार्थी शिविरों में 3.60 लाख लोग रह रहे हैं। हिंसा में 73 लोग मारे जा चुके हैं और लाखों बेघर हो चुके हैं। असम में 20 जुलाई से शुरू हुई सांप्रदायिक हिंसा के पीछे पूर्वोत्तर में सक्रिय पाक खुफिया एजेंसी आईएसआई के हाथ होने की बात भी सामने आ रही है। सुरक्षा एजेंसियों ने एक रिपोर्ट गृह मंत्रालय को भेजी है। इसमें कहा गया है कि हिंसा के पीछे मकसद असम, पश्चिम बंगाल व बिहार के कुछ जिलों को मिलाकर ग्रेटर बंगलादेश बनाना है। सूत्रों के अनुसार 1979 में इस साजिश का सूत्रपात किया गया। इसमें जमायत-ए-मुजाहिद्दीन, खल्लत-ए-मजलिस, इस्लामिक लिबरेशन टाइगर, हरकत-उल-मुजाहिद्दीन, मुस्लिम एक्शन फोर्स, सद्दाम वाहिनी व मेघालय अल-ए-सुन्नत आदि संगठनों को वर्ष 1992 से सक्रिय किया गया। इसके बाद से असम के सीमावर्ती इलाकों में लगातार हिंसा बढ़ रही है। इन संगठनों के 300 से अधिक स्लीपर सेल राज्य में सक्रिय हैं। इसमें सिर्प एक जाति विशेष नहीं बल्कि सभी जातियों के युवाओं को प्रशिक्षित किया गया है। सांप्रदायिक हिंसा फैलाने के लिए 14 से 30 आयु वर्ग के मॉड्यूल तैयार किए गए हैं। परीक्षण के दौरान इनका म्यांमार व बंगलादेश के टांगड़ी, खगराचारी व झीना घाटी से लगातार सम्पर्प रहता है। इनको असम, त्रिपुरा, मेघालय व मिजोरम की सीमाओं से प्रवेश कराया जाता है। असम में जारी हिंसा के पीछे विदेशी हाथ होने की प्रबल सम्भावना भी है।

सोची-समझी रणनीति के तहत मुंबई में आग भड़काई गई


 Published on 17 August, 2012

अनिल नरेन्द्र

 

क्या मुंबई में शनिवार को भड़की हिंसा एक पूर्व नियोजित घटना थी? इस दिन असम और म्यांमार में मुस्लिमों पर जारी हमलों के खिलाफ आजाद मैदान में रैली हुई। इस रैली का आयोजन करने वाले संगठन रजा अकादमी और मदीना तुल इल्म फाउंडेशन ने किया था। मुंबई पुलिस इस रैली में हुई हिंसा को पूर्व नियोजित मान रही है। पुलिस ने गिरफ्त में आए 23 उपद्रवियों समेत आयोजकों के खिलाफ धारा 302 के तहत हत्या का मामला दर्ज किया है। हत्थे चढ़े असामाजिक तत्वों पर कई अन्य धाराओं में भी केस दर्ज किया गया है। क्राइम ब्रांच के संयुक्त आयुक्त हिमांशु राय ने कहा है कि मुंबई पुलिस अधिनियम के तहत हिंसा और आगजनी से हुए नुकसान का हर्जाना भी रजा अकादमी से वसूला जाएगा। हिंसा भड़काने वालों और उसके कारणों का पता लगाने के लिए क्राइम ब्रांच की 12 सदस्यीय विशेष टीम गठित की गई। आजाद मैदान में भड़काऊ भाषणबाजी की वीडियो फुटेज का अध्ययन किया जा रहा है। सीसीटीवी कैमरों के जरिए बाकी उपद्रवियों की शिनाख्त करने की कोशिश हो रही है। पुलिस ने गिरफ्तार उपद्रवियों को महानगर मजिस्ट्रेट की अदालत में पेश किया। अदालत ने सभी असामाजिक तत्वों को 19 अगस्त तक पुलिस रिमांड में भेज दिया। रिमांड के लिए अदालत में दिए आवेदन में पुलिस ने हिंसा को पूर्व नियोजित कहा है। हिमांशु राय के अनुसार जिस तरीके से आजाद मैदान रैली में पहुंचने के लिए फेसबुक और एसएमएस के जरिए संदेश भेजा गया, उससे साफ है कि हिंसा पूर्व नियोजित थी। फेसबुक पर कई दिनों से मुसलमानों पर असम और म्यांमार में हुई ज्यादतियों का प्रचार हो रहा है और उन्हें उकसाने के प्रयास हो रहे हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया व प्रिंट मीडिया पर भी आरोप लगाए जा रहे हैं कि वह जानबूझ कर इन ज्यादतियों का प्रचार नहीं कर रहे। सीसीटीवी फुटेज से साफ है कि कई प्रदर्शनकारी डंडों और लोहे की रॉड से लैस थे। पूंकने के लिए पेट्रोल केन भी लेकर आए थे। उनका कहना था कि फेसबुक, इंटरनेट और एसएमएस संदेश भेजने वालों का पता लगाने के लिए साइबर क्राइम सेल की मदद भी ली जाएगी। ध्यान रहे कि रजा अकादमी और सुन्नी जमायत उल उलेमा समेत 24 संगठनों द्वारा आयोजित रैली के दौरान हुई हिंसा में दो लोगों की मौत हो गई थी। 45 पुलिस कर्मियों सहित 100 से ज्यादा लोग जख्मी हुए थे। किसी संवेदनशील मुद्दे को अनावश्यक तूल देने के कैसे घातक दुष्परिणाम होते हैं मुंबई में हुई हिंसा इसका उदाहरण है। यह समझना कठिन है कि मुंबई में असम की हिंसा के विरोध में धरने के आयोजकों ने यह नतीजा कैसे निकाल लिया कि असम में केवल मुस्लिम समुदाय के लोग ही निशाना बने? यह जो धारणा बनाई गई कि असम में केवल मुस्लिम समुदाय को ही निशाना बनाया गया और राहत एवं पुनर्वास के मामले में उनकी उपेक्षा की जा रही है उसके लिए एक हद तक असम सरकार और केंद्र सरकार भी जिम्मेदार है जो इस बारे में कुछ स्पष्ट नहीं कर सकी कि हिंसा क्यों भड़की, उसके लिए जिम्मेदार कौन था, असल मुद्दा क्या था, कितने लोग प्रभावित हुए, कितनों को घर छोड़ना पड़ा और राहत एवं पुनर्वास की क्या स्थिति है? दुर्भाग्य से कुछ असामाजिक तत्वों और राजनेताओं ने अपनी रोटी सेंकने के लिए और देश में अस्थिरता, अराजकता पैदा करने के लिए यह प्रचार किया कि असम में मुस्लिम समुदाय के साथ अत्याचार किया गया और यह यहीं नहीं रुका, संसद में भी कुछ सांसदों ने संसद के अन्दर कहा कि असम में मुस्लिम समुदाय को न केवल निशाना बनाया गया बल्कि राहत शिविरों में उनकी अनदेखी भी की जा रही है। चिन्ताजनक यह है कि राजनेताओं का एक वर्ग अभी भी यह साबित करने पर तुला है कि असम में जो हिंसा भड़की उसके पीछे बंगलादेश से होने वाली घुसपैठ की कोई भूमिका नहीं। एक तरह से उन्हें इस बात की भी परवाह नहीं कि बंगलादेश से आए मुसलमान अवैध तरीके से घुसपैठ कर रहे हैं। इनके लिए बस उनका मुस्लिम होना ही काफी है भले ही वह विदेशी हों। दुख तो इस बात का भी है कि कई दिनों से यह साजिश चल रही थी और मुंबई पुलिस इसे समय पर रोकने में विफल रही। आखिर वह यह अनुमान क्यों नहीं लगा सकी कि मुंबई में सामान्य से अधिक लोग अस्त्र-शस्त्राsं के साथ एकत्रित हो रहे हैं और उनके इरादे सही नहीं? यह अच्छी बात है कि धरने का आयोजन करने वाले संगठनों ने अपनी भूल स्वीकार कर ली है और क्षमा भी मांगी, लेकिन उन्हें इस पर चिन्तन-मनन करना चाहिए कि किन कारणों के चलते उनके आयोजन में शरारती और उपद्रवी घुस आए? यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि ये तत्व पूरी तैयारी से आए थे और प्लान के अनुसार उन्होंने देखते ही देखते दर्जनों वाहनों को आग लगा दी और पुलिस पर हमला कर दिया।

Wednesday, 15 August 2012

After Rahul, Priyanka too, being readied to enter active politics

Anil Narendra


Is the Congress President, Sonia Gandhi trying to steer clear of her Rae Bareilly parliamentary constituency or she is preparing grounds for her daughter Priyanka Gandhi Vadra’s plunge into active politics in view of adverse political environment and the weak organizational structure in Uttar Pradesh,? This questioned has cropped up because Sonia Gandhi has been entrusting the care-taker responsibility of Rae Bareilly constituency to daughter Priyanka. May be, deteriorating health is forcing Sonia Gandhi to take such a decision. Whatever may the reason, Priyanka Gandhi Vadra, by accepting the responsibility for Rae Bareilly, has clearly indicated her intentions to enter politics in near future. It can also mean that the Rahul’s demand and popularity graph is increasingly showing a downward trend and Congress workers’ expects more from Priyanka than Rajiv? Priyanka has started meeting people and party workers in Rae Bareilly. The position of Congress in Rae Bareilly has also been a cause of concern. In the recently held Assembly elections, the Congress, not only lost all the Assembly seats from Rae Bareilly, but barring one, none of its candidates, could reach even the runner-up status. Keeping the dwindling public support, Sonia has asked Priynka to hold janta darbar in Delhi to interact with people from Rae Bareilly and also directed her to tour the area to get first hand information about their problems and sufferings. This could possibly be the preparation for launching Priyanka in the next general elections. In that case, Sonia could either abandon the Rae Bareilly seat in 2014 and may not fight elections from there or may contest from Bellary seat in Karnataka. If everything goes as per the decided strategy, then Sonia Gandhi may leave everything to his son Rahul and daughter Priyanka and renounce the electoral politics? She could often participate in publicity campaigns or could formally continue providing guidance to the Party. According to the sources close to Sonia Gandhi, she is considering it the right time to say goodbye to politics and she wants to keep clear of it with dignity rather than leave politics as a defeated warrior. If Party and the family pressurize her, she may fight elections from Bellary in Karnataka in Southern India to strengthen the Party.  The path for Priyanka too, is not smooth, as has been demonstrated by the results of recent Assembly elections in Uttar Pradesh, where the performance of the Congress was not up to the mark. In spite of active participation of Priyanka in the Assembly election campaign, the Congress could not get desired results in Rae Bareilly and not even in Amethi, Rahul’s parliamentary constituency, which clearly shows that even her efforts are not going to help much. Thus, entrusting Priyanka with the responsibility for Rae Bareilly and preparing her to take a plunge into active politics can only strengthen the belief that the magic of Nehru-Gandhi family is on the wane and Sonia is well aware of it.