Thursday, 1 April 2021

मुकदमों से नहीं दबा सकते अभिव्यक्ति की आजादी

सुप्रीम कोर्ट ने गत बृहस्पतिवार को कहा, देश में किसी भी नागरिक की अभिव्यक्ति की आजादी को आपराधिक मामले थोपकर नहीं दबा सकते। यह कहते हुए शीर्ष अदालत ने पत्रकार पैट्रीशिया मुखीम के खिलाफ दर्ज एफआईआर रद्द कर दी है। द शिलांग टाइम्स की संपादक और वरिष्ठ पत्रकार पैट्रीशिया पर फेसबुक पोस्ट से साम्प्रदायिक दंगे फैलाने के आरोप हैं। जस्टिस एल नागेश्वर राव और जस्टिस एस रवीन्द्रभट की पीठ ने कहा, मुखीम ने अपनी सोशल मीfिडया पोस्ट में मेघालय में रहने वाले गैर आदिवासियों की सुरक्षा और उनकी समानता के लिए जो तर्क दिए हैं, उसे भड़काऊ भाषण नहीं माना जा सकता है। मुखीम की फेसबुक पोस्ट को भड़काऊ भाषण के दायरे में नहीं रखा जा सकता है। फैसला लिखने वाले जस्टिस राव ने कहा, सरकार के कामकाज ने नाखुशी जाहिर करने को विभिन्न समुदायों को बीच नफरत को बढ़ावा देने के प्रयास के रूप में ब्रांड नहीं बनाया जा सकता है। पीठ ने कहा, भारत एक बहुसांस्कृतिक समाज है, जहां स्वतंत्रता का वादा संविधान की प्रस्तावना में दिया गया। अभिव्यक्ति की आजादी, घूमने की आजादी और भारत में कहीं भी बसने समेत हर नागरिक के अधिकारों को कई प्रावधानों में बयां किया गया है। कोर्ट ने मुखीम की मेघालय हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दी गई याचिका को मंजूरी दे दी, जिसमें एफआईआर रद्द करने से इनकार कर दिया। शीर्ष अदालत ने अपना फैसला सुरक्षित रखा था। मुखीम के वकील की दलील थी कि तीन जुलाई, 2020 को एक जानलेवा हमले से जुड़ी घटना से जुड़े पोस्ट से वैमनस्य या संघर्ष पैदा करने का कोई इरादा नहीं था। बीते साल 10 नवम्बर को मेघालय हाई कोर्ट की एकल पीठ ने पारंपरिक संस्थान लॉसोहतुन दरबार शोन्ग द्वारा दायर प्राथमिकी रद्द करने से इंकार कर दिया था। मुखीम ने बास्केटबाल कोर्ट में पांच लड़कों पर हमले के बाद जानलेवा हमलावरों की पहचान करने में नाकाम रहने के लिए फेसबुक पर लॉसोहतुन परिषद दरबार खासी जनजाति के गांवों की प्रशासनिक इकाई है, जो पारंपरिक शासन चलाती है। इसमें दो समूह आदिवासी एवं गैर-आदिवासी शामिल थे। 11 को पुलिस ने हिरासत में लिया और दो को गिरफ्तार किया था। कोर्ट ने कहा, ऐसे मामलों में जब राज्य प्रशासन पीड़ितों के प्रति अपनी आंखें मूंद लेती हैं या फिर उनकी असंतोष की आवाजों को दबा देती हैं, तो यही नाराजगी बन जाती है। ऐसे में या तो इंसाफ नहीं मिलता है या फिर न्याय मिलने में देरी होती है। इस मामले में ऐसा ही प्रतीत होता है।

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