Wednesday, 16 February 2022

मृत्युदंड नहीं जेल में अंतिम सांस तक की सजा

देश की सर्वोच्च अदालत ने कहा है कि अपराधी को मौत की सजा देने की बजाय उसे पूरी जैविक उम्र जेल में गुजारने की सजा दी जा सकती है। ऐसी सजा देने में कोई कानूनी समस्या नहीं है। जस्टिस एसके कौल और एमएम सुंदरेश की पीठ ने यह टिप्पणी यूपी (लखीमपुर) के रविन्द्र के मामले में की। रविन्द्र को एक बच्चे की नृशंस हत्या करने में मौत की सजा सुनाई थी, जिसे बाद में पूरी जिंदगी जेल में गुजारने की सजा में बदल दिया गया। इस सजा के क्रम में वह 30 साल से जेल में बंद है। उसने अब पैरोल पर बाहर आने के लिए अर्जी दी है। अर्जी में उसने कहा है कि पूरी उम्र जेल में गुजारने की सजा के कारण उसे सजा माफी की अर्जी देने का लाभ नहीं मिल पा रहा है। मौत की सजा की जगह पूरी उम्र जेल में गुजारने जैसी सजा दी जा सकती है। रविन्द्र ने 1990 में पारिवारिक रंजिश में एक 10 वर्षीय बच्चे को जिंदा आग में झोंक दिया था। इस अपराध में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उसे मृत्युदंड की सजा दी थी। इस सजा को सुप्रीम कोर्ट ने 1997 में बरकरार रखा था। लेकिन 2010 में राष्ट्रपति ने सजा को माफ कर उसे जीवनभर जेल में गुजारने का दंड दिया। सुप्रीम कोर्ट ने 2021 में एक भी मृत्युदंड की पुष्टि नहीं की है। इस दौरान कोर्ट ने 15 मामलों में अपराधियों की सजा को उम्रकैद में तब्दील कर दिया और चार मामलों में मृत्युदंड की सजा माफ कर उन्हें अपराधों से बरी कर दिया। यह मामला यूपी का था। कोर्ट ने कहा था कि सिर्फ इसलिए कि अपराध घृणित है, इस बिनाह पर किसी अपराधी को मौत की सजा नहीं दी जा सकती। कोर्ट की संविधान पीठ ने 1980 में बचन सिंह बनाम राज्य, केस में मौत की सजा को संवैधानिक ठहराया था और कहा था कि यह सजा दुर्लभ से दुर्लभतम अपराध में ही दी जानी चाहिए। सजा देने के बाद जज को इस सजा के देने का आधार विस्तृत रूप से बताना होगा। -अनिल नरेन्द्र

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