Saturday, 30 June 2012

अनाज सड़ा तो जेल की हवा खाएंगे अफसर

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 30 June 2012
अनिल नरेन्द्र
जिस देश में 20 करोड़ से अधिक लोगों को भरपेट भोजन मयस्सर नहीं होता, जहां 40 करोड़ से अधिक लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हों वहां लाखों टन अनाज सड़ जाए कितना बड़ा अपराध है। मैं अपने भारत महान की बात कर रहा हूं। हमारे देश में 10.5 फीसदी अनाज सही भंडारण व्यवस्था न होने के कारण बर्बाद हो जाता है। इस मुद्दे को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकारों की जमकर खिंचाई की है पर इस सबके बावजूद कोई सुधार नहीं हुआ। उत्तर प्रदेश की हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ ने बुधवार को एक अहम आदेश दिया है। अदालत ने कहा कि अनाजों के रखरखाव में लापरवाही बरतने वाले अफसरों, कर्मियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर तफ्तीश की जा सकती है, क्योंकि पब्लिक प्रापर्टी या अनाज को नुकसान पहुंचाना भारतीय दंड विधान के तहत अपराध है, साथ ही यह जनता के भरोसे को भंग करना है। इसके साथ ही कोर्ट ने निर्देश जारी कर खुले में अनाज रखने पर तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी है। कोर्ट ने कहा कि अनाज का नुकसान होने पर उसकी वसूली संबंधित स्टाफ या अफसरों के वेतन से की जाए। न्यायमूर्ति देवी प्रसाद सिंह व न्यायमूर्ति डॉ. सतीश चन्द्रा की ग्रीष्मावकाशकालीन खंडपीठ ने यह आदेश `वी द पीपल' संस्था की पीआईएल पर दिया। याचिका में सरकारी खरीद के अनाज विशेष तौर पर गेहूं सड़ने की खबरों का हवाला देते हुए इसे रोकने के निर्देश जारी करने का आग्रह किया गया था। कोर्ट ने पीआईएल को विचारार्थ मंजूर कर राज्य सरकार को अनाज की हिफाजत के रास्ते व तरीके तलाशने के लिए एक समिति गठित करने के निर्देश दिए हैं। यह समिति अनाज खरीद व भंडारण के लिए योजना बनाएगी। कोर्ट ने कहा कि अनाज भंडारण क्षमता के मद्देनजर की जानी चाहिए। अगर गोदाम पर्याप्त नहीं हैं तो नए बनाए जाएं या फिर सरकार इन्हें किराए पर ले सकती है। कोर्ट ने इस समिति से महीने भर में अपनी रिपोर्ट तैयार करने को कहा है। इसके बाद दो माह में अनाज की खरीद व बिक्री रेग्यूलेट करने के लिए राज्य सरकार समुचित आदेश या सर्पुलर जारी करे। कोर्ट ने मामले के पक्षकारों को जवाबी हल्फनामा दाखिल करने के छह हफ्ते में जवाब देने का समय दिया है। अदालत ने यह भी निर्देश दिया कि अनाज ऊंचे स्थानों पर तत्काल तिरपाल आदि से ढंक कर रखा जाए। हम यूपी हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ को बधाई देना चाहते हैं कि अंतत किसी ने तो अनाज बर्बाद होने से बचाने के लिए ठोस कदम उठाने का निर्देश दिया है पर देखना यह है कि अखिलेश सरकार इस आदेश का पालन कितना करती है। अगर वह सही मयानों में कोई ठोस कदम उठाती है तो वह सूबे का भला तो करेगी, साथ-साथ देश के अन्य राज्यों को भी रास्ता दिखाएगी। सिर्प केंद्र सरकार पर यह मामला नहीं छोड़ा जा सकता। राज्य सरकारों की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं है।

पाक राष्ट्रपति बनाम अदालतें ः लड़ाई बढ़ती जा रही है

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 30 June 2012
अनिल नरेन्द्र
पाकिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता बढ़ती ही जा रही है। पाक ज्यूडिश्यरी आसिफ अली जरदारी और उनकी सरकार के पीछे हाथ धोकर पड़ी हुई है। प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी के इस्तीफे की स्याही अभी सूखी नहीं कि सुप्रीम कोर्ट ने नए प्रधानमंत्री राजा परवेज अशरफ से भी सवाल-जवाब शुरू कर दिए हैं। राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले में देश की सुप्रीम कोर्ट ने नए प्रधानमंत्री राजा परवेज अशरफ से सीधा प्रश्न किया है कि वो इस मामले में जानकारी मांगने के लिए स्विस अधिकारियों को पत्र लिखेंगे या नहीं? प्रधानमंत्री अशरफ को जवाब देने के लिए दो हफ्ते का समय दिया गया है। स्विस अधिकारियों को पत्र न लिखने के कारण पूर्व प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी को अदालत की अवमानना का दोषी ठहराया गया था और बाद में उन्हें अयोग्य करार दिया गया और उन्हें पद से हटा दिया गया। न्यायमूर्ति नसीर उल मुल्क की अगुवाई वाली तीन जजों की पीठ ने अपने संक्षिप्त आदेश में कहा कि उसे उम्मीद है कि नए प्रधानमंत्री कोर्ट के आदेश पर कार्रवाई करेंगे। अगली सुनवाई 12 जुलाई को नियत की गई है। पाकिस्तान के राष्ट्रपति को सीधा घेरने के लिए लाहौर हाई कोर्ट ने तो खुलकर बुधवार को कहा कि राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के पास पांच सितम्बर तक का समय है इस दौरान राष्ट्रपति भवन में राजनीतिक गतिविधियों को बन्द कर दें। लाहौर हाई कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश उमर अता बंदियाल की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी से सत्तारूढ़ पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी का अध्यक्ष पद त्यागने को भी कहा है। पीठ द्वारा दिए गए आदेश में कहा गया कि राष्ट्रपति यदि हाई कोर्ट के पिछले साल दिए गए आदेश का पालन करने में विफल रहे तो अदालत उनके खिलाफ अवमानना की कार्रवाई शुरू कर सकती है। पिछले साल दिए गए आदेश में उनसे कहा गया कि वह पांच सितम्बर तक राष्ट्रपति भवन में राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होना त्याग दें। क्या है मामला? जरदारी राष्ट्रपति पद पर रहते हुए पीपीपी के सह-अध्यक्ष बने हुए हैं और राजनीतिक गतिविधियां चला रहे हैं। लाहौर हाई कोर्ट ने 12 मई 2011 को एक आदेश जारी किया था जिसमें कहा गया कि राष्ट्रपति से यह अपेक्षा की जाती है कि वह जल्द से जल्द राजनैतिक गतिविधियों से अलग हो जाएंगे। इस आदेश के आलोक में दायर याचिकाओं की सुनवाई हाई कोर्ट कर रहा है। पीठ ने जरदारी के खिलाफ दायर दो याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान ये निर्देश दिए। इन याचिकाओं में जरदारी के खिलाफ सत्तारूढ़ पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) के प्रमुख के कार्यालय से इस्तीफा नहीं देने का मामला उठाया गया था। गौरतलब है कि उच्च न्यायालय ने 25 जून को हुई पिछली सुनवाई में राष्ट्रपति के प्रधान सचिव को तलब किया था, लेकिन सचिव न तो न्यायालय में पेश हुए न ही उन्होंने जवाब पेश किया। दूसरी याचिका में याचिकाकर्ता मुहम्मद सिद्दीकी ने न्यायालय से कहा कि जरदारी ने खुद को राजनीतिक गतिविधियों से अलग नहीं किया है। पाकिस्तान में ज्यूडिश्यरी बनाम जरदारी सरकार भयंकर रूप लेती जा रही है। अदालतें जरदारी को छोड़ने के मूड में नहीं हैं। पाकिस्तानी आवाम भी लगता है कि इस लड़ाई में अदालतों के साथ है। हाल ही में एक सर्वेक्षण में यह चौंकाने वाला निष्कर्ष निकाला गया कि पाकिस्तानी आवाम जरदारी के सख्त खिलाफ है और वह भारत से भी ज्यादा अलोकप्रिय हैं। पाक सेना भी जरदारी को हर हालत में हटाने के पक्ष में है। ऐसे में जब तीनों सेना, अदालतें और आवाम सभी आसिफ अली जरदारी के खिलाफ एकजुट हैं तो जरदारी का अपने पद पर बना रहना मुश्किल लगता है पर सही या गलत आसिफ जरदारी चुने हुए राष्ट्रपति हैं और अभी उनका कार्यकाल लगभग दो साल बचा है। ऐसे में उन्हें पद से हटाना आसान नहीं होगा। जरादरी पर अगर और दबाव बढ़ता है तो वह असेम्बली (संसद) का चुनाव समय से पहले करवा सकते हैं और अगर वह और उनकी पार्टी चुनाव जीत जाती है तो वह कह सकते हैं कि पाकिस्तानी आवाम ने अपना विश्वास प्रकट कर दिया है और लोकतंत्र में आवाम सबसे ऊंची होती है।

Friday, 29 June 2012

सहानुभूति में बदलने के लिए वीरभद्र ने दिया इस्तीफा

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 29 June 2012
अनिल नरेन्द्र
चौबीस साल पुराने भ्रष्टाचार के मामले में कोर्ट में अपने खिलाफ आरोप तय होने के बाद श्री वीरभद्र सिंह ने मंत्रिपरिषद से इस्तीफा दे दिया और यह इस्तीफा मंजूर भी हो गया। जब राजा साहब पर आरोप लगे थे तो उन्होंने यहां तक कह दिया था कि अगर आरोप सिद्ध होते हैं तो उन्हें कुर्सी छोड़ने में तनिक हिचक नहीं होगी। यूपीए सरकार में भ्रष्टाचार के आरोप में इस्तीफा देने वाले वह तीसरे मंत्री हैं। उनसे पहले ए राजा और दयानिधि मारन भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते इस्तीफा दे चुके हैं। पांच बार हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे 78 वर्षीय वीरभद्र सिंह को इस्तीफा इसलिए देना पड़ा क्योंकि उनके और उनकी पत्नी के खिलाफ हिमाचल प्रदेश की एक अदालत ने 23 साल पुराने भ्रष्टाचार के एक मामले में भ्रष्टाचार और आपराधिक कदाचार का आरोप तय किया था। हालांकि कांग्रेस का यही स्टैंड था कि अदालत ने सिर्प अभी उन पर आरोप तय किए हैं कोई सजा नहीं सुनाई पर वीरभद्र सिंह ने अपने आपको और अपनी पार्टी को और फजीहत से बचाने के लिए त्यागपत्र देना बेहतर समझा। वैसे इसके पीछे हिमाचल प्रदेश की राजनीति भी काम कर रही है। इस्तीफा देने के पीछे एक मकसद पद की लालसा न होने के संदेश देने से ज्यादा इसे अपने पहाड़ी राज्य में सहानुभूति में बदलने की रणनीति भी है। वीरभद्र सिंह प्रदेश कांग्रेस में अपने तमाम समर्थकों को एकजुट रखने के लिए यही संदेश देना चाहते हैं कि उनके खिलाफ साजिश हुई है। अभी भी पार्टी के 23 में से 21 विधायक जिनमें विद्या स्टोक्स भी शामिल हैं। वे शिमला में हुए उनके 77वें जन्म दिन और राजनीति में उनके 50 साल के कार्यक्रम में आई थीं, उनके साथ हैं। इस्तीफा देकर वीरभद्र सिंह ने आगामी विधानसभा चुनावों में फुलटाइम राजनीति करने का भी रास्ता खोल लिया है। वीरभद्र सिंह ने कोर्ट की तरफ से मामले तय होने को अपने खिलाफ प्रदेश की भाजपा सरकार का षड्यंत्र बताया है। उनका यह भी कहना है कि जिस आडियो सीडी के आधार पर उनके खिलाफ मामले तय किए गए हैं उसे सही साबित करने के लिए उनकी आवाज का नमूना तक नहीं लिया गया है। दूसरे यह मामला पहले से ही हाई कोर्ट में है और उनके खिलाफ कोई फैसला नहीं आया है। यह तो कोई नहीं मानेगा कि अन्ना हजारे की टोली की राजनीतिक ताकत इतनी प्रबल है कि वे जब चाहें किसी मंत्री की कुर्सी छीन सकते हैं। बावजूद इसके अगर यह टोली भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकार पर लगातार हमलावर रुख अपनाए हुए है तो उसका एक नैतिक और राजनीतिक प्रभाव तो जरूर जनता और सरकार के स्तर पर पैदा हो रहा है। बहरहाल वीरभद्र के इस्तीफे से यूपीए-2 सरकार का यह संकट फिर से सिर पर आ गया है कि वह भ्रष्टाचार में लगातार फंसते जाने के बजाय उससे लड़ती हुई कैसे दिखे? जिस दिन वीरभद्र सिंह ने दिल्ली में अपने इस्तीफे का ऐलान किया उसी दिन इस सरकार के एक और मंत्री विलासराव देशमुख मुंबई में आदर्श मामले में जांच आयोग के सामने अपने बचाव में दलीलें दे रहे थे। हिमाचल प्रदेश में यह चुनावी वर्ष है। अब वीरभद्र पर आरोप लगने से और उनके त्यागपत्र से आनंद शर्मा अकेले कांग्रेस के नेता बचते हैं जो अगले विधानसभा चुनाव में भाजपा को टक्कर दे सकते हैं पर उनकी जमीनी पकड़ इतनी नहीं है।
Anil Narendra, Corruption, Daily Pratap, Himachal Pradesh, Vir Arjun, Virbhadr Singh

आईएसआई के दबाव में फिर मारी पाकिस्तान ने पलटी

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 29 June 2012
अनिल नरेन्द्र
यू टर्न लेने के लिए पाकिस्तान मशहूर है। वह अपनी बात से मुकर जाता है। ताजा उदाहरण कई सालों से पाकिस्तानी जेल में सड़ रहे सरबजीत सिंह की रिहाई का है। पाक मीडिया में खबर आई कि सरबजीत सिंह को रिहा किया जा रहा है। सरबजीत का परिवार जो वर्षों से उसकी रिहाई की मुहिम चला रहा है उनका खुशियों का अनुमान नहीं रहा और मिठाइयां तक बंट गई। भारत सरकार ने भी पाकिस्तान सरकार का शुक्रिया अदा कर दिया पर ड्रामों के लिए अपने चिर परिचित स्टाइल में पाकिस्तान आखिरी समय पलटी खा गया और उसने यह कहा कि हमने तो सुरजीत सिंह की रिहाई का फैसला किया सरबजीत सिंह का नहीं। पंजाब के तरनतारन जिले में भीखीविंड गांव में रहने वाले सुरजीत सिंह को 1982 में जासूसी के आरोप में पाकिस्तान में गिरफ्तार किया गया था। सैनिक कोर्ट में उन पर मुकदमा चला और उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई। 1989 में सुरजीत के परिवार के लिए कुछ राहत की खबर तब आई जब पाकिस्तान में बेनजीर भुट्टो प्रधानमंत्री थीं और पाकिस्तानी राष्ट्रपति गुलाम इशहाक खान ने सुरजीत की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदल दी। उम्रकैद की 25 साल की सजा काटने के बाद सुरजीत सिंह को 2004 में रिहा हो जाना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हुआ। परिवार ने रिहाई की मुहिम शुरू की। गिरफ्तारी के बाद 2008 में पहली बार परिवार को पाकिस्तान की जेल में उनसे मिलने दिया गया। वहां जाकर परिवार ने उन्हें सजा पूरी करने के बाद रिहा करने की अपील की और इसे कोर्ट ने मंजूर भी कर लिया। उनकी रिहाई मई-जून 2012 में ही तय थी लेकिन इस तरह के बड़े कंफ्यूजन के तौर पर किसी ने नहीं सोचा था। एक साल में पाकिस्तान की इस तीसरी गुलाटी ने उसकी नीयत का नमूना दिया है। साथ ही साबित कर दिया है कि पाकिस्तान में सत्ता का सीन पर्दे के पीछे से संचालित होता है। माना जा रहा है कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति जरदारी ने भारी दबाव में यह कदम उठाया है। पाकिस्तानी मीडिया में भी चर्चा है कि सेना, आईएसआई या लश्कर-ए-तैयबा के दबाव के आगे जरदारी झुक गए। भारतीय खुफिया एजेंसियों के पास जानकारी आई है कि मंगलवार शाम पाक खुफिया एजेंसी आईएसआई ने जरदारी पर सरबजीत की रिहाई के फैसले के खिलाफ दबाव बनाया। राष्ट्रपति कार्यालय से कहा गया कि इस समय इस फैसले से यही संदेश जाएगा कि पाकिस्तान सरकार ने भारत के सामने घुटने टेकने शुरू कर दिए हैं। खासतौर पर सउदी अरब से पकड़ कर लाए गए अबू हमजा के खुलासे के बाद। इस पलटी से पाकिस्तान-भारत के रिश्तों में खटास आना स्वभाविक है। मामला सरबजीत या सुरजीत की रिहाई का नहीं बात तो अपनी बात कहकर पलटने की है। सरबजीत को भी अब देर सवेर तो रिहा करना ही होगा। आखिर सजा पूरी होने के बाद भी उसे किस बिनाह पर अभी भी कैद कर रखा है। सुरजीत की रिहाई पर हमें खुशी है पर सरबजीत की रिहाई पर और भी खुशी होती। पाकिस्तान में असल ताकत कहां है इस किस्से से साबित होता है।
Anil Narendra, Daily Pratap, ISI, Pakistan, Sarabjeet Singh, Vir Arjun

Thursday, 28 June 2012

प्रणब मुखर्जी के बिना कांग्रेस और मनमोहन सरकार

Editorial Publish on 28 June 2012

प्रणब मुखर्जी के बिना कांग्रेस और मनमोहन सरकार

श्री प्रणब मुखर्जी ने लगभग चार दशकों से सक्रिय राजनीति से मंगलवार को टा टा कर दिया। उन्होंने वित्त मंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया. मंगलवार उनके लिए वित्त मंत्रालय में अंतिम दिन था। अब जब प्रणब दा अपने लम्बे राजनीतिक जीवन से विदा होकर राष्ट्रपति भवन से नई पारी शुरू करना चाहते हैं तो उन्हें इस बात का अफसोस जरूर होगा कि वह देश की अर्थव्यवस्था को ऐसे हाल पर छोड़ रहे हैं जब सामने अंधी सुरंग नजर आ रही है। कुछ घंटों पहले ही उन्होंने रिजर्व बैंक की ओर से बड़ा ऐलान किए जाने की घोषणा की थी, मगर रिजर्व बैंक ने जो उपाय घोषित किए हैं, वह न तो आम जनता में और न ही हमारी अर्थव्यवस्था में कोई नया जोश या दिशा दे सके? कारण चाहे जो भी रहे हों, यूपीए-2 सरकार की शुरुआत से ही निरंतर आर्थिक क्षेत्र में भारत पिछड़ता ही चला गया। बाजार और आर्थिक विश्लेषक, आर्थिक सलाहकार सभी कुछ बड़े नीतिगत फैसलों को इसके लिए जिम्मेदार ठहरा रहे हैं और यह सब तब होता रहा जब वित्त मंत्रालय की कमान प्रणब मुखर्जी जैसे कद्दावर अर्थशास्त्राr के हाथ में रही हो। अब तो उनकी क्षमता पर भी सवाल उठ रहे हैं। सवाल तो यह भी उठ रहे हैं कि यूपीए-2 में संकट मोचन की भूमिका निभाने वाले प्रणब मुखर्जी के सक्रिय राजनीति से हटने के बाद मनमोहन सरकार को कौन चलाएगा? सवाल यह भी कांग्रेस में किया जा रहा है कि प्रणब दा का विकल्प कौन होगा? यूपीए सरकार में विभिन्न मंत्रालयों के कामकाज से जुड़े 27 मंत्री समूह (जीओएम) है। इनमें 13 जीओएम की अध्यक्षता दादा करते आए हैं। इसके अलावा उच्चाधिकार प्राप्त मंत्रियों के भी समूह (ईजीओएम) हैं। इनमें से 12 ईजीओएम के अध्यक्ष प्रणब रहे हैं। माना जा रहा है कि जीओएम और ईजीओएम की जिम्मेदारियां संबंधित विभागों के कैबिनेट मंत्रियों को सौंपने पर विचार चल रहा है। फिर यह भी देखना है कि प्रधानमंत्री वित्त मंत्री किसको बनाते हैं? इसको लेकर दो-तीन नामों की ही चर्चा तेज रही है। गृहमंत्री पी. चिदम्बरम प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी दोनों के विश्वासपात्र हैं। लेकिन 2जी घोटाले और उनके चुनावी विवाद को लेकर पहले से ही वह विवादों में हैं। इसके चलते शायद ही उन्हें यह जिम्मेदारी सौंपी जाए। मोंटेक सिंह आहलूवालिया और सी. रंगराजन के नामों की भी चर्चा है। दोनों प्रधानमंत्री के चहेते हैं पर किसी गैर राजनीतिक को यह पद सौंपना शायद खुद कांग्रेसियों को स्वीकार न हो। ऐसे में वाणिज्य मंत्री आनन्द शर्मा की लॉटरी लग सकती है, क्योंकि उन्हें 10 जनपथ और 7 रेस कोर्स रोड दोनों की आशीर्वाद हासिल है। सरकार और पार्टी को सबसे ज्यादा मुश्किल विपक्ष से तालमेल बिठाने की आ सकती है। अकसर प्रणब मुखर्जी ही यह भूमिका निभाते थे। विपक्षी भी उनकी इज्जत, सम्मान करते थे और जो काम प्रणब करवा लेते थे वह कोई और मौजूदा कांग्रेसी करवा पाए इसमें सन्देह है। प्रणब का पार्टी और सरकार से हटना कांग्रेस के लिए एक नई चुनौती है। लोकसभा चुनावों में ज्यादा समय नहीं बचा है। बचा हुआ कार्यकाल ठीक ठाक निकल जाए यह एक चुनौती होगी।

मिस्र के नए राष्ट्रपति मुर्सी की चुनौतियां

मिस्र में 30 साल तक बिना रोकटोक शासन करने वाले होस्नी मुबारक के सत्ता से हटने के बाद पहली बार हुए राष्ट्रपति चुनाव में मोहम्मद मुर्सी को जीत हासिल हुई है। उन्हें 51.73 प्रतिशत वोट हासिल हुए हैं जबकि उनके प्रतिद्वंद्वी पूर्व प्रधानमंत्री अहमद शफीक को 48.2 प्रतिशत वोट मिले। जैसे ही घोषणा हुई उसी के साथ तहरीर चौक में आतिशबाजी और पटाखे फूटने लगे और लोग ढोल बजाकर और हॉर्न बजाकर अपनी खुशी का इजहार करने उतर आए। लेकिन मुस्लिम ब्रदरहुड की लोकतांत्रिक प्रतिबद्धताओं के बारे में सन्देह रखने वाले अनेक लोग सहमें हुए थे। मुस्लिम ब्रदरहुड थोड़े अन्तर से ही जीता है। इसका मतलब यह भी है कि मिस्र की काफी आबादी उनके चुनाव से खुश नहीं है। चूंकि पहली बार लोकतांत्रिक तरीके से राष्ट्रपति का चुनाव हुआ है। इस दृष्टि से इसे ऐतिहासिक कहा जा सकता है पर अब मिस्र में जनता की पसंद के लोकतांत्रिक शासन का मार्ग प्रशस्त हो चुका है। मिस्र में शासकीय बदलाव ने आधुनिक दौर में क्रांति की सम्भावना के नए रास्ते खोले हैं। इस चुनाव से मुर्सी ने अपनी लोकप्रियता और मुस्लिम ब्रदरहुड ने मिस्र की जनता पर अपनी पकड़ साबित की है। जिस तरह होस्नी मुबारक के खिलाफ उभरे व्यापक जन विद्रोह ने पूरी अरब दुनिया के मिजाज को प्रभावित किया उसी तरह इस चुनाव नतीजे का देश के बाहर भी असर पड़ सकता है। इससे पहले तुर्की में और फिर ट्यूनीशिया में भी उदार रखने वाली इस्लामी राजनीतिक शक्तियां जनादेश पाने में सफल हुई हैं। लीबिया में अगले महीने चुनाव होने हैं। क्या वहां भी यही रुझान सामने आएगा? जो भी हो मुर्सी के सामने चुनौतियों की कमी नहीं है। मुर्सी के लिए मिस्र को पूरी तरह एक लोकतांत्रिक राष्ट्र बनाने में सबसे बड़ी बाधा सेना हो सकती है। सैन्य सर्वोच्च परिषद के अब तक के रवैये से जाहिर हो गया है कि वह इस लोकतांत्रिक संक्रमण से भयभीत है। राष्ट्रपति का चुनाव सम्पन्न होने से पहले ही वहां की संवैधानिक या सर्वोच्च अदालत ने संसद को भंग कर दिया, जिसका चुनाव पिछले साल नवम्बर से इस साल मार्च के बीच हुआ था। इस अदालत के जजों की नियुक्ति मुबारक के समय हुई थी। संसद को भंग करने के पीछे अदालत की दलील थी कि इसके एक-तिहाई सदस्य अवैध ढंग से चुने गए थे पर असली वजह शायद यह थी कि इस संसद में मुस्लिम ब्रदरहुड का वर्चस्व था। फिर राष्ट्रपति चुनाव का नतीजा आने से पहले सैन्य परिषद ने राष्ट्रपति और संसद के कई विशेषाधिकार खुद हथिया लिए, जिनमें संविधान में बदलाव के किसी प्रस्ताव को वीटो करना, नए कानून प्रस्तावित करना, नागरिकों को नजरबन्द करना, कहीं भी फौज तैनात करना और युद्ध-शांति की घोषणा करने जैसे कई अधिकार शामिल हैं। मुर्सी के लिए सेना से समन्वय बनाए रखना बड़ी चुनौती होगी और सेना इतनी आसानी से अपनी ताकत कम नहीं होने देगी। मुर्सी खासे पढ़े-लिखे राजनेता हैं और उन्होंने इस्लामिक लोकतंत्र के साथ सभी वर्गों को साथ लेकर चलने की घोषणा भी की है। उम्मीद की जानी चाहिए कि उनके नेतृत्व में मिस्र में लोकतांत्रिक व्यवस्था बहाल होगी और देश में विकास और समृद्धि का सर्वथा नया युग शुरू होगा। देश को इस्लामिक कट्टरता की ओर जाने से रोकने की चुनौती उनके सामने होगी।

Wednesday, 27 June 2012

अबू जिन्दाल उर्प अबू हमजा की गिरफ्तारी कसाब के बाद सबसे बड़ी उपलब्धि है

कुख्यात आतंकवादी सैयद जबीउद्दीन उर्प अबू हमजा उर्प अबू जिन्दाल को 21 जून को दिल्ली के इन्दिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर गिरफ्तार कर लिया गया है। दरअसल अबू हमजा को सउदी अरब पुलिस ने पकड़ा था और उन्होंने उसे दिल्ली आने वाली फ्लाइट में बिठा दिया और दिल्ली पुलिस को सूचित कर दिया था कि हमजा फलानी फ्लाइट से नई दिल्ली भेजा जा रहा है। दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा ने उसे हवाई अड्डे पर गिरफ्तार कर लिया। अजमल कसाब के बाद अब हमजा सबसे बड़ा आतंकी है, जिसे गिरफ्तार किया गया। मुम्बई हमले के वक्त हमजा कराची के कंट्रोल रूम में बैठे अपने पांच साथियों के साथ आतंकियों को निर्देश दे रहा था। अबू ने स्वीकार किया है कि उसने इस मॉड्यूल के मास्टर माइंड जकीउर रहमान लखवी के साथ काम किया था। मुम्बई हमले के बाद वह कुछ समय पाकिस्तान में रहा और फिर सउदी अरब चला गया। वह वहां शिक्षक के रूप में काम कर रहा था। उसके खिलाफ रेड कॉर्नर नोटिस जारी किया गया था। दिल्ली पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए गए इंडियन मुजाहिदीन के 12 आतंकियों में से एक पाकिस्तानी मूल के मोहम्मद आदिल ने अबू के बारे में जानकारी दी थी। इसके बाद उसके खिलाफ गैर-जमानती वारंट भी जारी किया गया था। मुम्बई हमले के दौरान सुरक्षा एजेंसियों ने लश्कर आतंकियों व पाकिस्तान में उनके आकाओं के बीच हुई बातचीत को रिकॉर्ड किया था। इस दौरान किसी को कुछ खास हिन्दी के शब्द बोलते हुए सुना गया। बाद में यह आवाज अबू जिन्दाल की पाई गई। सामने यह भी आया कि उसने ही आतंकियों को अपनी पाकिस्तानी पहचान छिपाने और खुद को हैदराबाद के टोली चौक से संबंधित डेक्कन मुजाहिदीन से जुड़ा होने की बात कही थी। हमलों में अबू की संलिप्तता का उल्लेख मुम्बई हमलों में जीवित पकड़े गए एकमात्र आतंकी अजमल कसाब ने किया था। उसने कहा था कि अबू जिन्दाल नाम के व्यक्ति ने 10 आतंकियों को हिन्दी सिखाई थी। मुम्बई पर 26/11 को हुए आतंकवादी हमले में अबू जिन्दाल ने स्पेशल सेल और एनआईए के सामने अपना गुनाह कुबूल कर लिया है। अबू जिन्दाल से पूछताछ कर रहे पुलिस अधिकारियों ने बताया कि उसने मुम्बई हमले के दौरान 10 पाकिस्तानी आतंकवादियों को सैटेलाइट फोन पर निर्देश दिए थे। उसने बताया कि हमले के दौरान वह लश्कर के सरगना जकीउर रहमान लखवी, अब्दुल रहमान अब्बी और पाकिस्तानी सेना के किसी मेजर के साथ कराची में था। वे लोग टीवी पर हमले की लाइव तस्वीरें देखकर आतंकियों को डिफेंस और अटैक के बारे में हिदायत दे रहे थे। यह खुशी की बात है कि सउदी अरब ने ऐसे खतरनाक आतंकी को भारत को सौंपने में मदद की है। आतंकवाद को लेकर भारत और सउदी अरब के बीच पिछले कुछ सालों में समझौते हुए हैं। इनके आधार पर सउदी अरब ने भारत को आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई करने में मदद की है। पुलिस सूत्रों ने बताया कि भारतीय खुफिया एजेंसियों को यह सूचना मिली थी कि अबू सउदी अरब में है। दो जून को तीस हजारी कोर्ट ने जबीउद्दीन के नाम गिरफ्तारी वारंट जारी करवा लिया था। इस वारंट के आधार पर सरकारी तौर पर इंटरपोल की मदद से सउदी सरकार को अबू के बारे में जानकारी दी गई। इसके बाद सउदी अरब सरकार ने अबू को पकड़ लिया। उसे 21 जून को दिल्ली डिपोर्ट किया गया, जहां हवाई अड्डे पर उसे स्पेशल सेल ने गिरफ्तार कर लिया। अबू जिन्दाल उर्प अबू हमजा का पकड़ा जाना बहुत महत्वपूर्ण घटना है। अजमल कसाब के बाद यह सबसे बड़ी गिरफ्तारी है। इसकी गिरफ्तारी से न केवल 26/11 की सारी कार्रवाई कैसे की गई, किसने करवाई, की पुष्टि होगी बल्कि वह तमाम आरोप साबित हो जाएंगे जो भारत की सुरक्षा व खुफिया एजेंसियां लगाती आ रही हैं। इसकी गिरफ्तारी से पाकिस्तान एक बार फिर बेनकाब हुआ है। इससे न केवल 26/11 आतंकी हमले का केस मजबूत होगा बल्कि यह भी पता चल सकेगा कि इस खूंखार देश को झिझोड़ने वाले हमले में और कौन-कौन शामिल था। इस हमले में हम हमेशा से कहते रहे हैं कि बेशक हमला 10 पाकिस्तानी आतंकियों ने किया हो पर इस अंजाम तक पहुंचाने में भारत में बैठे उनके समर्थकों ने भी विशेष भूमिका निभाई होगी। अब शायद इनकी पहचान करने में भी मदद मिले। जहां दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा ने उल्लेखनीय काम किया है वहीं हमें सउदी अरब की सरकार का धन्यवाद करना होगा जिन्होंने इस खूंखार वांछित आतंकी को गिरफ्तार करने और सजा भुगतने के लिए भारत को सौंपा।

यूरोप में बढ़ता मुस्लिम प्रभाव

पिछले दिनों फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सर्कोजी राष्ट्रपति चुनाव हार गए थे। ज्यादातर लोग सर्कोजी की हार उनके दक्षिणपंथी विचारधारा और मॉडल कार्ला ब्रूनी से इश्क होने की वजह बता रहे थे। उनकी हार को दक्षिणपंथी हार और वामपंथ की जीत के रूप में देखा जा रहा है पर दरअसल निकोलस सर्कोजी को हराने में फ्रांस के प्रोग्रेसिव सोशलिस्ट तबके के अलावा अनिवासी मुसलमानों का भी बड़ा हाथ है। पश्चिमी मीडिया जानबूझ कर इस बात को दबा या नजरअन्दाज कर रहा है। निकोलस की जीत में भी मुस्लिम दुश्मनी का बड़ा हाथ था। यही वजह थी कि उनके जीतने पर पेरिस समेत फ्रांस के लगभग हर शहर में बड़े पैमाने पर हिंसा और आगजनी हुई थी। यह शायद पहला मौका था जब किसी फ्रैंच प्रेसिडेंट के जीतने पर जश्न की बजाय हर तरफ आग और धुआं फैल गया था। लियोन में तो 10,000 कारें पूंक दी गई थीं। निकोलस ने जीत के लिए किया गया वादा पूरा भी किया और फ्रांस में हिजाब-नकाब को बैन कर दिया। उनके नक्शे कदम पर चलते हुए यूरोप के कुछ और देशों ने भी बुर्के पर पाबंदी लगा दी। जाहिर है कि इससे यूरोप के मुसलमानों के खिलाफ माहौल बन रहा है। माना जा रहा है कि 9/11 का खाका जर्मनी के हैम्बर्ग शहर में तैयार किया गया। नीदरलैंड में कई मुस्लिम चरमपंथी हमले हो चुके हैं। फिल्म मेकर क्योवेन गाग 2004 में मार दिया गया जिसने एक लड़की के बदन पर कुरान की आयतें लिख दी थीं और फिर उसकी एक फिल्म बनाई थी। जर्मनी के म्यूनिख शहर में भी मुस्लिम चरमपंथी इजरायली खिलाड़ियों को मौत की नींद सुला चुके हैं। ब्रिटेन में तो कई आतंकवादी हमले हो चुके हैं। ऑस्ट्रेलिया का डाक्टर हनीफ प्रकरण भी सभी को याद होगा। इन हालात का नतीजा है कि यूरोप एक नई किस्म की चुनौती में उलझ गया है। यूरोप की सरकारें अब मुसलमानों के मामलों में पहले से ज्यादा संवेदनशील होने पर कुछ हद तक मजबूर हो रही हैं। मुसलमान वहां की सरकारों के बनने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगे हैं। इस तब्दीली की वजह यह भी है कि यूरोप में मुसलमानों की तादाद बढ़ती जा रही है। कुल 27 देशों के यूरोपीय यूनियन की करीब 50 करोड़ की आबादी में पौने दो करोड़ मुसलमान हैं। फ्रांस सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाला देश बन चुका है। वहां हर 10वां व्यक्ति मुसलमान है। निकोलस को इसलिए भी जिताया गया था कि पेरिस और लियोन की मुख्य आबादी वाली जगहों पर ये मुसलमान और एशियाई-अफ्रीकी अपनी सम्पत्ति बढ़ाते जा रहे हैं और फ्रैंच मूल के लोग आउटस्कर्टस में बसने पर मजबूर हो रहे हैं। पेरिस की कई सड़कों पर छोले-भटूरे, समोसे, इमरती बिरयानी, कबाब, भुट्टे, पाए, सीख कबाब, शीरमाल और पूरी-कचौड़ी बिक रही है। पूरी मार्केट में बॉलीवुड की सीडी, डीवीडी, साड़ी और भारतीय परिधान बिक रहे हैं। वीआईपी की तर्ज पर `बीआईपी' यानि बंगलादेश, इंडिया, पाकिस्तान संगठन चल रहे हैं। किसी को फ्रैंच किराएदार तंग करते हैं तो यह संगठन भारतीय शैली में उससे निपटता है। फ्रैंच समाज इस बदलते माहौल से बुरी तरह परेशान है। ऐसे में मूलत उदार फ्रैंच समाज ने उस वामपंथी सौम्य समाजवादी औलाद को राष्ट्रपति चुना। यह वही समाज है जिसने निर्वासित जीवन जीने के लिए बेनजीर भुट्टो का पनाह दी थी और उस आयतुल्लाह खोमैनी को पनाह दी जिसने पेरिस में रहकर ईरानी इस्लामी इंकलाब का खाका तैयार किया।

Tuesday, 26 June 2012

प्राकृतिक आपदा या फिर साजिश की आग

सरकारी इमारतों में आग लगने का सिलसिला जारी है। गत सप्ताह मुंबई के महाराष्ट्र मंत्रालय में भीषण आग लगी तो रविवार को नई दिल्ली के अति सुरक्षित माने जाने वाले केंद्रीय गृह मंत्रालय के एक कमरे में आग लगी। महाराष्ट्र सरकार के सचिवालय (मंत्रालय) में गुरुवार को भयंकर आग लग गई जिससे इस सात मंजिले भवन के तीन तलों पर स्थित मुख्यमंत्री के कार्यालय समेत काफी कुछ जलकर भस्म हो गया और कम से कम पांच लोगों की मौत हो गई। इधर नई दिल्ली में केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम के ऑफिस के पास नॉर्थ ब्लॉक में रविवार दोपहर आग लग गई। इसमें कोई हताहत नहीं हुआ। बताया तो यही गया है कि आग में कोई सरकारी दस्तावेज नहीं जला है। इससे पहले सात जून को नॉर्थ ब्लॉक में ही वित्त मंत्रालय के दफ्तर में आग लगी थी, जिसमें दो कमरों में रखे दस्तावेज जल गए थे। रविवार को आग कमरा नम्बर 102 के पास बालकोनी में रखे कचरे में लगी थी। फायर ब्रिगेड की 10 गाड़ियों को आग बुझानी पड़ी। रविवार का दिन छुट्टी का दिन था। पता नहीं छुट्टी के दिन ही आग क्यों लगी, कैसे लगी? मुंबई में मंत्रालय में जब आग लगी तो न सिर्प कई सचिव और मंत्री बल्कि खुद मुख्यमंत्री तक मंत्रालय में थे। जब मंत्रालय में आग की बात सुनी तो लोगों के दिमाग में पहला सवाल यह आया कि क्या यह आग किसी साजिश के तहत लगाई गई? इसका मकसद उन घोटालों की फाइलों को कहीं जलाना तो नहीं था? इनमें बहुचर्चित आदर्श घोटाला की महत्वपूर्ण फाइल भी शामिल है। सीबीआई ने फौरन बयान दे दिया कि आदर्श सोसाइटी की फाइल की दूसरी प्रति उसके पास मौजूद और सुरक्षित है? पर तात्कालिक रूप से घटना को बढ़ाचढ़ा कर नहीं देखना या दिखाने के लिए बरती गई अतिरिक्त सरकारी सतर्पता 24 घंटे बीतते-बीतते दम तोड़ गई। किसी और ने नहीं बल्कि उपमुख्यमंत्री अजीत पवार ने इस आशंका को हवा दे दी कि आग लगने के पीछे कोई बड़ी साजिश हो सकती है। पवार ने कहा कि वे इस घटना से हैरान हैं। सीएम साहब के चैम्बर में वैसा ही सोफा सेट पड़ा हुआ था, जैसा मेरे चैम्बर में है। सीएम चैम्बर की बगल में दो चैम्बर पूरी तरह खाक हो गए। सामने के दो हॉल पूरी तरह जल गए। मेरा तो पूरा फ्लोर ही जल गया। सीएम साहब का चैम्बर छोड़कर सब कुछ जल गया। उनके टेबल पर रखे लैटरहैड तक को कुछ नहीं हुआ। साफ है कि इशारा उस साजिश की तरफ है, जिसमें महाराष्ट्र सरकार के उच्चस्तरीय हिस्से-पुर्जे शामिल हो सकते हैं। अभी महाराष्ट्र में कई बड़े नेताओं पर आदर्श घोटाला, अवैध जमीन आवंटन और आय से अधिक सम्पत्ति के कई मामलों की जांच चल रही है। राज्य में गठबंधन सरकार की अगुवाई चूंकि कांग्रेस कर रही है इसलिए वह विपक्ष के निशाने पर सबसे ज्यादा है। ऐसे में अगर ये संकेत मिलते हैं कि आग लगने के पीछे कोई साजिश भी हो सकती है तो इसे मानने के वाजिब लगते कारणों से इंकार नहीं किया जा सकता। आग फैलने के रास्ते भी इस ओर इशारा कर रहे हैं। अगर एक मिनट के लिए हम साजिश की बात को छोड़ भी दें तो इस दुर्घटना ने सरकार के आग प्रबंधन और सुरक्षा इंतजाम पर कई सवाल खड़े कर दिए हैं। पिछले 10 सालों में मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री और मंत्रियों के चैम्बरों के रखरखाव में करीब 75 करोड़ रुपए खर्च हुए। बावजूद इसके महाराष्ट्र का सबसे सुरक्षित कहा जाने वाला भवन निहायत असुरक्षित साबित हुआ। इससे पहले भी कई घटनाएं हो चुकी हैं और आपदा प्रबंधन की कमियां उजागर हो चुकी हैं। इनकी कलई तब खुलती है जब कोई घटना घट जाती है। महाराष्ट्र मंत्रालय में लगी आग में जो निर्दोष मारे गए हैं उनकी मौत का जिम्मेदार कौन? इस घटना में एक फायर ब्रिगेड के आदमी की अंत्येष्टि में कोई सरकारी अधिकारी नहीं पहुंचा, यह कितने शर्म की बात है। जिस इमारत में पूरा सूबा चलाने वाले बड़े-बड़े आईएएस अफसर बैठते हों, मंत्री बैठते हों और जिसके छठे तल पर खुद मुख्यमंत्री का दफ्तर सजता हो, उस इमारत में ऐसे यंत्र भी न हों जो आग लगने पर अपने आप पानी के छींटे बरसा सकें तो समझा जा सकता है कि मामला कितना संगीन है। फायर अलार्म, सर्पिट ब्रैकर जैसी सुविधा आजकल हर भवन में जरूरी है। इतनी अति सुरक्षित इमारत में यह बुनियादी सुविधाएं भी न हो, अपनी समझ से बाहर है। बात इसलिए और गम्भीर हो जाती है कि इसी शहर में कोई साढ़े तीन साल पहले की देश का सबसे बड़ा आतंकी हमला हुआ था। उसके बाद शहर को महफूज रखने के लिए तमाम समितियां बनीं, बैठकें हुईं और नतीजा वही ढाक के तीन पात। आपदा प्रबंधन की यह दुःखद तस्वीर तब है जब तीन साल पहले इस बारे में हुई फायर सेफ्टी ऑडिट में इन सारे बिन्दुओं पर सवाल उठाए गए थे। आरटीआई के हवाले से यह रिपोर्ट बाहर आने के बाद पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण को इस बारे में पत्र भी लिखे गए लेकिन न तो शासन ने ही अपना रवैया बदला न ही प्रशासन ने कोई परवाह की। जो मुख्यमंत्री अपना घर सुरक्षित नहीं रख सकता, वह पूरे सूबे को कितना सुरक्षित रख सकता है प्रश्न यह भी उठता है।

ममता के पहले कैबिनेट फैसले को अदालती झटका

शुक्रवार को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को उस समय करारा झटका लगा जब कोलकाता हाई कोर्ट ने उनकी सरकार द्वारा बनाए गए सिंगूर लैंड रीहैबिलिटेशन एण्ड डेवलपमेंट एक्ट-2011 को असंवैधानिक एवं अवैध ठहरा दिया। उल्लेखनीय है कि प. बंगाल में सरकार गठित करने के बाद ममता बनर्जी की कैबिनेट का पहला फैसला था सिंगूर की जमीन किसानों को लौटाने का। वहां की 997.3 एकड़ में से लगभग 400 एकड़ जमीन को उन इच्छुक किसानों की मानते हुए उन्हें लौटाने की कवायद शुरू कर दी गई। विधानसभा में अधिनियम पारित कर अधिसूचना भी जारी कर दी गई। जब प्रशासन ने जमीन लौटाने की कार्रवाई शुरू की तो टाटा समूह अदालत चला गया। दरअसल सिंगूर की जमीन का मुद्दा ममता बनर्जी के लिए राजनीतिक रूप से कल्पवृक्ष बन गया था। सिंगूर की जमीन लौटाने के सवाल पर उनके आंदोलन से बंगाल में जमीन अधिग्रहण का मुद्दा खड़ा हुआ और सिंगूर और उसके बाद नंदीग्राम के आंदोलनों के जरिए ममता बनर्जी मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंच गईं। चुनाव जीत जाने के बाद ममता बनर्जी के लिए सिंगूर में बस इतना ही काम बाकी रह गया था कि वह किसानों को उनसे ली गई जमीनें वापस दिलवाएं और बाकी सब भूल जाएं। उन्होंने यह किया भी। किसानों को उनकी जमीन वापस मिल सके, इसके लिए सिंगूर भूमि सुधार अधिनियम तैयार तो किया पर न जाने किस उत्साह में इस अधिनियम पर राष्ट्रपति की सहमति हासिल करना किसी को याद नहीं रहा। इस कानून को अब कोलकाता हाई कोर्ट ने न सिर्प निरस्त कर दिया है बल्कि उसे असंवैधानिक भी कहा है। शुक्रवार को न्यायमूर्ति पिनाकी चन्द्र घोष और न्यायमूर्ति मृणाल कांति चौधरी की खंडपीठ ने दो बातों पर जोर दिया। एक तो यह कि बंगाल सरकार के सिंगूर अधिनियम में मुआवजे की धाराएं भूमि अधिग्रहण अधिनियम-1894 से मेल नहीं खातीं। दूसरी, अधिनियम राष्ट्रपति की मंजूरी के बगैर लागू कर दिया गया। अदालत के इस फैसले पर बंगाल सरकार की ओर से आधिकारिक टिप्पणी राज्य के उद्योग मंत्री पार्थ चटर्जी ने दी। उन्होंने कहा कि हम किसानों और बटाईदारों के हितों के प्रति वचनबद्ध हैं। हम हमेशा उनके साथ हैं और रहेंगे। किसानों को चिंतित नहीं होना चाहिए। खुद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपने फेसबुक एकाउंट में लिखा, `मैं सत्ता में रहूं या न रहूं, किसानों का साथ देती रहूंगी।' हाई कोर्ट की खंडपीठ ने फैसला देने के साथ ही अपने आदेश का क्रियान्वयन दो महीने के लिए स्थगित कर दिया। इस अवधि में बंगाल सरकार सुप्रीम कोर्ट में अपील कर सकती है। लेकिन इस अंतरिम अवधि के दौरान सरकार वहां की जमीन किसानों में वितरित नहीं कर सकेगी। कटु सत्य तो यह है कि भारतीय राजनीति में सिंगूर मसले का महत्व सिर्प इतना ही नहीं है कि इसने प. बंगाल से वाम मोर्चे को उखाड़ फेंका और ममता को सत्ता में पहुंचा दिया। सिंगूर के बाद ही यह सवाल उठा कि निजी कम्पनियों के लिए भूमि अधिग्रहण में सरकार उद्योगपतियों के दलालों की तरह भूमिका क्यों निभाए? साथ ही यह भी कि हर भूमि अधिग्रहण के बाद किसान ही घाटे में क्यों रहें? इसी के दबाव में केंद्र सरकार को नए कानून का मसौदा तैयार करना पड़ा जिसमें अधिग्रहण के साथ-साथ लोगों के पुनर्वास पर भी ध्यान रखा है। 

Sunday, 24 June 2012

Pak Judicial Coup : Politics behind

--Anil Narendra    

 

Military coup is nothing new to Pakistan, but this is for the first time that it is facing a judicial coup. A new type of tussle is being witnessed there, these days. Pak Judiciary and the elected government (democracy) are on war path. It is interesting to note that both the sides are advocating their causes in the name of democracy. In this latest development, Pakistan, where Army has always been overshadowing the democratic governments, is witnessing an entirely new phenomenon. Pakistan Supreme Court disqualified Pak Prime Minister, Yousuf Raza Gilani as member of Parliament and ruled that with this he ceased to be the Prime Minister of the country. It is interesting to note that while dismissing Gilani's Parliament membership, the Supreme Court of Pakistan, in its decision referred to the Indian Judiciary. It referred to the Indian Supreme Court's rulings on two political matters of Uttar Pradesh and Haryana. These matters are: Rajendra Singh Rana vs Swami Prasad Maurya (UP 2003) and Jagjit Singh vs State of Haryana. Acting on Supreme Court's decision, President Asif Ali Zardari accepted Gilani's resignation. New Prime Minister may be (has already been) nominated on Friday. It is reported that ruling Party has nominated Makhdoom Shahabuddin as its candidate for the post of the Prime Minister. At present, Makhdoom is Textile Minister and he had been very close to Benazir Bhutto. Why and how the matter reached to such a pass that the country was forced to elect a new PM? In fact, Pak Supreme Court and the Government were on a war path for last 30 months. Gilani has been accused of not obeying Court's order. He did not write to the Swiss authorities to reopen old corruption cases against Zardari. While, Gilani was of the view that so long Zardari is occupying the post of the President, no case can be instituted against him. The Supreme Court considered it as contempt of the Court. Gilani was also sentenced for 30 seconds detention on 26th April. In fact, this story began in 2003, when a Swiss Judge convicted the present President of Pakistan, Asif Ali Zardari, his late wife, Benazir Bhutto and her mother, Nusrat Bhutto in $ 12 million graft case, which was taken as commission during the Benazir's tenure as the Prime Minister (90s). The then President of Pakistan, Parvez Musharraf issued an NRO in 2007. Under this amnesty law, corruption cases registered against almost eight thousand persons were thrown out. This facilitated the return of Benazir and Zardari to Pakistan. This led to confrontation between Musharraf and the SC and he not only dismissed the Chief Justice, Iftikhar Muhammad Chaudhary from his post, but he along with a number of judges was also detained. This irritated Chief Justice Ifikhar Chaudhary to the extent that he decided to take revenge on the political system. This is an open secret that the Pak Army is a big power centre in Pakistan. When Zardari, in a clever move, came to power as a President of Pakistan, the Army was not happy and since then, Pak Army is opposing Zardari-Gilani. Meanwhile, Gilani also never tried to hide his contempt for the Army. In fact, Gilani had, a few days back, expressed his fears that the Pak Army may stage a coup. It appears that there is some sort of connivance between Pak Supreme Court and Pakistan Army. Justice Iftikhar Chaudhary is getting full support of the Army. In the meantime, the Pak Supreme Court ruled the National Reconciliation Order illegal in December 2009 and directed the Government to reopen all the cases involving the President and other persons. The Apex Court asked Gilani to contact Swiss Banks for bringing the alleged money back to Pakistan. Meanwhile, the Swiss Government closed the graft cases against Zardari involving $ 60 million on the appeal of the Pakistan Government. Gilani's stand in the matter was that since the Pak Senate had already adopted the NRO, he cannot take any action in this matter. For refusing to obey Court's orders, Gilani was sentenced for a few minutes and now he has been disqualified for PM's post. The Apex Court refused to accept his argument that the President has the privilege of amnesty under the Special Powers given to him. Gilani had contested General Elections, 2008 for the NA 157 Multan4 constituency and was declared elected. The question doing rounds in various circles these days, is can the Supreme Court declare an elected Prime Minister and Member of Parliament unqualified? A Prime Minister has been removed, but how can one be sure that the new Prime Minister would follow Court's directions? If he also maintains the same stand, then what will happen? The fat of the matter is that the ultimate target of the Supreme Court is Zardari, but Gilani has become an unnecessary scapegoat. It is clear that there is some sort of politics being played behind the scenes. These developments have pushed Pakistan towards a constitutional uncertainty, as the Cabinet got dismissed with immediate effect. Unfortunately, the Court has taken a very harsh stand. It could have referred the matter to the Election Commission of Pakistan, if it so desired, which would have taken three months' time to dispose off the matter, but the Supreme Court chose not to adopt such a course. The Government is not going to be dismissed as a result of the Court verdict, as the ruling PPP has necessary majority in the House. A section of people is of the view that in this confrontation between politicians and judiciary, both sides have opened their own fronts and are waiting for the appropriate moment to make their moves. This decision may also postpone the General Elections slated for next year. Zardari may also announce elections to the National Assembly by the year end. But, the Pakistani people are sandwiched between both these pillars of governance. The Army, too, is playing its own game. Terrorist and militant organizations are also busy in their game plans. Considering these developments, it can be said that Pakistan has entered a phase of uncertainty and insecurity.

 

राशिद अल्वी जैसे दोस्त हों तो दुश्मनों की जरूरत नहीं

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 24 June 2012
अनिल नरेन्द्र
कांग्रेस प्रवक्ता राशिद अल्वी जैसे दोस्त हों तो कांग्रेस को दुश्मनों की कोई जरूरत नहीं है। गौरतलब है कि मुरादाबाद की एक चुनावी सभा में बोलते हुए राशिद अल्वी ने कहा कि मुलायम सिंह यादव भाजपा के एजेंट हैं। उन्होंने कहा कि मैं यह बात बहुत पहले से कहता आ रहा हूं। मैं पिछले 10 वर्षों से कह रहा हूं कि इस देश में अगर भारतीय जनता पार्टी का सबसे बड़ा एजेंट कोई है तो वो मुलायम सिंह यादव हैं। उन्होंने यह भी कहा कि अगर इस देश में भारतीय जनता पार्टी के इशारे पर कोई नाचता है तो वो मुलायम सिंह यादव हैं। सपा का इस बयान से नाराज होना स्वाभाविक ही था। सपा महासचिव राम गोपाल यादव ने प्रतिक्रिया स्वरूप कहा कि अल्वी की दिमागी हालत ठीक नहीं है, वह पगला गए हैं। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष राजेन्द्र चौधरी ने कहा है कि कांग्रेस अपने सांसद को सबक सिखाए। कांग्रेस को सोचना चाहिए कि उसे अल्वी जैसे पुंठित और वाचाल नेताओं का इलाज कैसे करना है। राशिद अल्वी का बयान उनकी राजनीतिक अपरिपक्वता और बीमार मानसिकता का द्योतक है। वे इतने अज्ञानी हैं कि यह नहीं जानते कि मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में सपा ने यदि सांप्रदायिक भाजपा के विरुद्ध मोर्चा नहीं खोला होता तो केंद्र में यूपीए सरकार बन ही नहीं पाती। परमाणु करार के समय भी मुलायम सिंह यादव ने ही केंद्र की सरकार बचाई थी। कांग्रेस को ऐसे ही अनर्गल बयानों की वजह से पिछले चुनावों में कीमत चुकानी पड़ी है। अल्वी को `मुस्लिमों के हत्यारे' नरेन्द्र मोदी का समर्थक बताते हुए उत्तर प्रदेश के चिकित्सा एवं परिवार कल्याण मंत्री अहमद हसन ने कहा कि अल्वी उन मुलायम सिंह यादव के बारे में ऐसा बयान दे रहे हैं जिन्होंने बाबरी मस्जिद को बचाने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दी थी। मुलायम ही देश के एकमात्र ऐसे राजनेता हैं जिन्होंने मुसलमानों के हितों से जुड़े मुद्दों को पुरजोर तरीके से उठाया। सपा की नाराजगी भांपकर कांग्रेस पार्टी ने अल्वी के बयान को सिरे से खारिज करते हुए इसे अनुचित बताया। कांग्रेस महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने कहा कि पार्टी इस बयान से सहमत नहीं है। उन्होंने कहा कि अल्वी शायद चुनावी आवेश में बोल गए। उधर जनता पार्टी अध्यक्ष डाक्टर सुब्रह्मण्यम स्वामी ने मौके का पूरा फायदा उठाते हुए कांग्रेस पर हल्ला बोल दिया। जनता पार्टी के मेयर पद के प्रत्याशी के प्रचार में लखनऊ आए डॉ. स्वामी ने गुरुवार को पीए संगमा की वकालत करते हुए कहा कि देश में अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाने की जरूरत है। प्रणब मुखर्जी पर उन्होंने सोनिया गांधी के भ्रष्टाचार में हिस्सेदार होने का आरोप लगाते हुए कहा कि विदेशों में जमा नेहरू खानदान के 70 लाख करोड़ रुपये को बचाने के लिए प्रणब मुखर्जी को समर्थन देने की उनकी मजबूरी है। उन्होंने कहा कि संगमा ईसाई भी हैं और कोई ईसाई राष्ट्रपित नहीं बना है। मुलायम सिंह यादव को अपना भाई बताते हुए उन्होंने कहा कि वह उन्हें समझाएंगे कि यूपीए का दामन छोड़ें और बेइज्जत न हों, अपना सम्मान बचाएं। स्वामी ने कहा कि राशिद अल्वी का मुलायम को भाजपा का एजेंट बताना अनायास नहीं है। भले ही कांग्रेस अल्वी के बयान को उनके निजी विचार बताए लेकिन यह कांग्रेस की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है। एक तरह से कहा जाए कि मुलायम सिंह यादव से सोनिया गांधी 1999 का बदला ले रही हैं जब मुलायम की वजह से सोनिया प्रधानमंत्री नहीं बन पाई थीं। स्वामी ने मुलायम को नसीहत देते हुए कहा कि मौका अच्छा है। मुलायम कांग्रेस का साथ छोड़ दें वरना इसी तरह से बेइज्जत होते रहेंगे। उन्होंने अखिलेश यादव की प्रशंसा करते हुए कहा कि वे नेहरू खानदान के लोगों जैसे मैट्रिक फेल नहीं हैं।
Anil Narendra, Daily Pratap, Vir Arjun, Rashid Alvi, Mulayam Singh Yadav, Akhilesh Yadav, Congress, Samajwadi Party, 

यह राष्ट्रपति चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक रहेगा

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 24 June 2012
अनिल नरेन्द्र
राष्ट्रपति भवन की रेस में वित्त मंत्री और यूपीए उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी का पलड़ा भारी है पर इस बार का चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक होने जा रहा है। अंक गणित प्रणब दा के हक में साफ नजर आ रहा है। मतों का कुल मूल्य 10.98 लाख है। प्रणब मुखर्जी को 6.29 लाख वोट मिलने की उम्मीद है और पीए संगमा को 3.10 लाख वोट मिल सकते हैं। इन वोटों में जद (यू) और शिवसेना के वोट प्रणब दा के हक में शामिल हैं। तृणमूल कांग्रेस ने अभी फैसला नहीं किया। संगमा को राजग (जद (यू)-शिवसेना के बिना) 2,43,000। अन्ना द्रमुक और बीजद 67.000 मत मिल सकते हैं। अंक गणित की दृष्टि से यूपीए उम्मीदवार का जीतना लगभग तय है। इस चुनाव को लेकर जहां राजग तार-तार हो गया वहीं वाम मोर्चा भी बंट गया है। फारवर्ड ब्लॉक ने माकपा के समर्थन की घोषणा की जबकि दो अन्य प्रमुख घटक दल भाकपा और आरएसपी ने मतदान से अलग रहने का फैसला किया है। माकपा में भी मतदान से अलग रहने के फैसले पर चर्चा चल रही थी पर मुखर्जी के नाम पर मुहर लगाने वाली लॉबी ने जमीन-आसमान एक कर दिया और बंगाल की प्रतिष्ठा का हवाला देकर प्रणब के हक में वोट देने का फैसला करवा लिया। जहां तक ममता बनर्जी का सवाल है, हमें लगता है कि अब उनके पास दो ही विकल्प बचे हैं या तो वह वोट ही न डालें या फिर संगमा का अंतत समर्थन करें। संगमा तो दावा कर रहे हैं कि ममता का उन्हें समर्थन मिलेगा। हालांकि पीए संगमा कांग्रेस रणनीतिकारों को कोई बड़ी चुनौती नहीं दिख रहे पर दो एक बातें संगमा के पक्ष में जरूर जा सकती हैं। एक तो वह पूर्वोत्तर राज्यों से आते हैं। वह अपने राज्य मेघालय में सीएम तक की कुर्सी पर बैठ चुके हैं। पूर्वोत्तर राज्य जरूर संगमा का समर्थन कर सकते हैं, फिर वह एक ईसाई हैं। ईसाई धर्म से संबंधित होने का लाभ भी संगमा को मिल सकता है। राष्ट्रपति चुनाव को लेकर पहले संप्रग और फिर राजग और फिर वाम दलों में जैसा बिखराव हुआ है उससे यही स्पष्ट हो रहा है कि राजनीतिक दलों की नजर आगामी लोकसभा चुनावों पर है। फिलहाल यह कहना कठिन है कि राजनीतिक दलों का मौजूदा समीकरण 2014 के लोकसभा चुनाव तक बना रहेगा या नहीं पर इतना तय है कि दोनों संप्रग और राजग की तस्वीर बदल सकती है। जद (यू) अध्यक्ष शरद यादव ने प्रणब दा के समर्थन की घोषणा करते हुए कांग्रेस से दूरी बनाए रखने की भरसक कोशिश भले ही की है, लेकिन सच यह है कि कांग्रेस विरोध के बल पर अपनी राजनीति चलाने वाले अब उसी के साथ खड़े नजर आ रहे हैं। आखिर कांग्रेस प्रत्याशी की जीत सुनिश्चित करने वाला कोई भी दल यह दावा कैसे कर सकता है कि वह सिद्धांतत कांग्रेस के खिलाफ है? अवाम यह जरूर प्रश्न पूछेगी कि आखिर वह कौन-सी परिस्थिति या मजबूरी थी कि जद (यू) ने भाजपा का साथ छोड़ना बेहतर समझा? आम जनता भाजपा से भी सवाल कर सकती है कि मुख्य विपक्षी दल होते हुए भी देश के इस सर्वोच्च पद के लिए पार्टी को अपना कोई सशक्त उम्मीदवार क्यों नहीं मिला? दोनों यूपीए और राजग को नए समीकरणों की तलाश होगी। प्रणब मुखर्जी की जीत तय है पर उनका चुनाव नए समीकरणों का कारण जरूर बन सकता है।
Anil Narendra, BJP, Daily Pratap, Janta Dal (U), Pranab Mukherjee, Sangama, Vir Arjun

Saturday, 23 June 2012

क्या नीतीश बिहार में आर-पार की लड़ाई छेड़ रहे हैं?

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 23 June 2012
अनिल नरेन्द्र
राष्ट्रपति चुनाव उम्मीदवार को लेकर छिड़ी राजग में एक नया विवाद छिड़ गया है। संप्रग उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी को लेकर तो पहले ही एनडीए में दरार पड़ गई थी पर अब तो लगता है कि कहीं एनडीए ही न टूट जाए? ताजा विवाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बयानों को लेकर खड़ा हो गया है। नीतीश कुमार ने एक अखबार में यह कहकर हंगामा खड़ा कर दिया कि राजग का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार ऐसा होना चाहिए, जिसकी छवि धर्मनिरपेक्ष हो। उनके इस बयान को जहां गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की सम्भावनाओं पर पानी फेरने की कोशिश कहा जा सकता है वहीं उन्होंने साफ संकेत दे दिया कि वह नरेन्द्र मोदी को बतौर प्रधानमंत्री उम्मीदवार स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं और अगर भाजपा ने ऐसा किया तो वह एनडीए छोड़ भी सकते हैं और उन्हें इस बात की परवाह भी नहीं होगी कि बिहार में उनकी भाजपा के साथ सांझी सरकार चलती है या गिरती है। नीतीश ने आखिर यह बयान इस समय क्यों दिया? उन्होंने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि यूपीए उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी का समर्थन करेंगे फिर यह बयान देने के पीछे उद्देश्य क्या है? क्या वह अपने को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर रहे हैं? नीतीश के बयान आने के बाद और तो और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी सीधा मैदान में कूद पड़ा। संघ के सरसंघ चालक मोहन भागवत ने नीतीश कुमार पर पलटवार करते हुए यह सवाल खड़ा कर दिया कि कोई हिन्दुवादी देश का प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन सकता? हालांकि भागवत ने किसी का नाम नहीं लिया लेकिन माना जा रहा है कि संघ अब नरेन्द्र मोदी के पक्ष में खुलकर खड़ा हो गया है। चलो एक बात और साबित हो गई कि संघ जो आज तक यह कहता आया है कि वह राजनीति में दखल नहीं देता अब खुलकर राजनीतिक विषयों पर बोलने लगा है। पहले एपीजे अब्दुल कलाम को समर्थन देने का बयान और अब नीतीश कुमार के बयान का जवाब। भावी प्रधानमंत्री के साथ-साथ सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता को लेकर भाजपा और जद (यू) के बीच जंग तीखी हो गई है। भागवत के बयान से तिलमिलाए नीतीश बोले कि 2002 में गुजरात दंगों के बाद पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी मोदी को हटाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने मोदी को राजधर्म की नसीहत दी थी। नीतीश की बात में मिर्च-मसाला लगाकर जद (यू) नेता शिवानन्द तिवारी तो एक कदम और आगे बढ़ गए। उन्होंने कहा कि अगर मोदी पीएम पद के उम्मीदवार होंगे तो एनडीए टूट जाएगा? जद (यू) एनडीए छोड़ देगा। तिवारी आगे बोले कि भाजपा को तय करना है कि अगले चुनाव के बाद उसे केंद्र सरकार बनानी है या विपक्ष में रहना है। देश को प्रधानमंत्री के रूप में कोई धर्मार्थ चेहरा पसंद नहीं है। 1996 में ही भाजपा ने समझ लिया था कि वह कट्टर हिन्दुत्व के आधार पर केंद्र में सरकार नहीं बना सकती इसलिए समान नागरिक संहिता, अनुच्छेद 370 और राम मंदिर का मुद्दा छोड़ा गया। अगर गोधरा कांड के बाद वाजपेयी ने नरेन्द्र मोदी को बर्खास्त किया होता तो एनडीए 2004 का चुनाव नहीं हारती। वाजपेयी चाहते थे कि दंगों के बाद नरेन्द्र मोदी इस्तीफा दें पर आडवाणी ने इससे मोदी को रोका था। एक सवाल अब यह उठ रहा है कि बिहार में जद (यू)-भाजपा गठबंधन सरकार का क्या होगा? नीतीश और तिवारी के तीखे बयानों की भाजपा में तीखी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक ही था। इनके जवाब में नरेन्द्र मोदी समर्थक भाजपा के वरिष्ठ नेता व नीतीश सरकार में पशुपालन मंत्री गिरिराज सिंह ने नीतीश कुमार को चुनौती दे दी। उन्होंने कहा कि वे मोदी के साथ हैं और उन्हें किसी से धर्मनिरपेक्षता का प्रमाण पत्र लेने की जरूरत नहीं है। गिरिराज ने तो यहां तक कह डाला कि नरेन्द्र मोदी के समर्थन से मुख्यमंत्री नीतीश अगर असहज महसूस करते हैं और उनमें दम है तो उन्हें बर्खास्त कर दें। इससे पहले मंगलवार को भी गिरिराज ने तल्ख लहजे में कहा था कि धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा फिर से तय होनी चाहिए। नरेन्द्र मोदी प्रकरण पर जद (यू) और भाजपा नेताओं की जुबानी जंग को थामने के लिए उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी आगे आए। बुधवार को दिनभर खबरिया चैनलों में बयानी जंग के मद्देनजर सुशील मोदी ने समझाया कि बिहार में नरेन्द्र मोदी मुद्दा नहीं है, लालू है मुद्दा। सड़क-बिजली जैसे मुद्दे हैं। आज पार्टी पीएम उम्मीदवार घोषित नहीं कर रही है कि गठबंधन पर पुनर्विचार जैसी बात हो। जिन मुद्दों और शर्तों पर गठबंधन बना, वे वैसे ही है। लोजपा सुप्रीमो रामविलास पासवान ने कहा कि एक सोची-समझी रणनीति के तहत गुजरात विधानसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी को लाभ पहुंचाने के लिए नीतीश कुमार धर्मनिरपेक्षता का शिगूफा छोड़ रहे हैं। बिहार में भ्रष्टाचार के मुद्दे से भटका रहे हैं। पासवान ने नीतीश से पूछा कि वे बताएं कि आडवाणी सेक्यूलर हैं या सांप्रदायिक? बिहार में जद (यू)-भाजपा गठबंधन की सरकार है। नीतीश इस तरह की बयानबाजी कर नूराकुश्ती का खेल खेल रहे हैं। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष महबूब अली कैसर ने कहा कि प्रधानमंत्री के दौर में बने रहने के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार नौटंकी कर रहे हैं। नरेन्द्र मोदी की आलोचना सिर्प दिखावा है। उन्होंने कहा कि गोधरा कांड के समय नीतीश कुमार केंद्र में मंत्री थे और उस समय मोदी के बचाव में सामने आए थे। उन्होंने कहा कि बिहार में भोज पर बुलाकर मना करना और दिल्ली में हाथ मिलाना, जनता के साथ कूर मजाक है। इनकी कथनी और करनी में काफी अन्तर है। जहां तक बिहार में जद (यू)-भाजपा गठबंधन का सवाल है, सत्ता के गणित के मुताबिक 243 सीटों वाली बिहार विधानसभा में सत्ताधारी गठबंधन का जोड़ 208 है। जद (यू) के पास 117 और भाजपा के पास 91 जबकि सत्ता में बने रहने के लिए 122 विधायकों की जरूरत है। ऐसे में अगर भाजपा सत्ता से हटती है तो जद (यू) के पास सरकार के लिए जरूरी पांच विधायक कम रह जाएंगे। दिखने में यह संख्या छोटी है पर इसे जुटाना इतना आसान नहीं है। बिहार में राजद-लोजपा गठबंधन के पास 23 सीटें हैं जबकि कांग्रेस के चार और निर्दलीय के छह विधायक हैं। एक सम्भावना यह है कि नीतीश कांग्रेस से गठबंधन कर लें और एक-दो निर्दलीय विधायकों को शामिल कर लें। अगर बिहार में नीतीश कांग्रेस से हाथ मिलाते हैं तो केंद्र में भी वह संप्रग सरकार का हिस्सा बन सकते हैं। अब भाजपा को यह तय करना है कि वह ऐसी सरकार में बने रहना चाहेंगे जो आए दिन पार्टी को कोसते रहते हैं। लगता है कि नीतीश अब ज्यादा दिन भाजपा के दोस्त नहीं रहेंगे। उन्होंने अलग होने का फैसला तय कर लिया है। यह उसकी शुरुआत है।
Anil Narendra, BJP, Daily Pratap, Janta Dal (U), NDA, Nitish Kumar, Vir Arjun

Friday, 22 June 2012

पाक ज्यूडिशियल कूप ः इन सबके पीछे गहरी राजनीति है

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 22 June 2012
अनिल नरेन्द्र
पाकिस्तान में अक्सर सैनिक क्रांति तो होती रहती पर पहली बार ज्यूडिशियल (न्यायालय) कूप (क्रांति) हो रही है। पाकिस्तान में एक नई लड़ाई देखने को मिल रही है। यह लड़ाई पाकिस्तान की न्यायपालिका (ज्यूडिश्यरी) और चुनी हुई सरकार (लोकतंत्र) के बीच छिड़ गई है। मजेदार बात यह है कि दोनों ही पक्ष लोकतंत्र को बरकरार रखने की दुहाई दे रहे हैं। ताजा घटनाक्रम में लोकतांत्रिक सरकारों पर बार-बार सेना का संकट देखने वाले पाकिस्तान ने मंगलवार को नया नजारा देखा। यहां की सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी को पद पर बने रहने के `अयोग्य' करार देते हुए संसद से उनकी सदस्यता को भी खारिज कर दिया। खास बात यह कि गिलानी की संसद सदस्यता को खारिज करते हुए पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने अपने फैसले में भारतीय न्यायपालिका का सहारा लिया। उसने अपने फैसले में उत्तर प्रदेश और हरियाणा के दो राजनीतिक मसलों पर भारत के सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसलों का हवाला दिया है। ये मामले हैं ः राजेन्द्र सिंह राणा बनाम स्वामी प्रसाद मौर्य (उत्तर प्रदेश 2003) और जगजीत सिंह बनाम हरियाणा राज्य। पाकिस्तान में आसिफ अली जरदारी ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन करते हुए गिलानी का इस्तीफा स्वीकार भी कर लिया है, नए प्रधानमंत्री का नाम शुक्रवार को घोषित हो सकता है। खबर है कि सत्ताधारी पीपुल्स पार्टी ने अपनी ओर से मखदूम शहाबुद्दीन को प्रधानमंत्री पद के लिए नामिनेट कर दिया है। मखदूम अभी कपड़ा मंत्री हैं और बेनजीर भुट्टो के करीबी रहे हैं। गिलानी को हटाने की नौबत क्यों और कैसे आई? पाक सुप्रीम कोर्ट और सरकार के बीच पिछले 30 महीने से जंग चल रही थी। गिलानी पर आरोप था कि उन्होंने कोर्ट का आदेश नहीं माना। जरदारी के खिलाफ केस खोलने के लिए उन्होंने स्विस अफसरों को पत्र नहीं लिखा। गिलानी की दलील थी कि जरदारी जब तक राष्ट्रपति हैं, उनके खिलाफ केस नहीं चलाया जा सकता। कोर्ट ने इसे अवमानना माना। 26 अप्रैल को गिलानी को 30 सैकेंड की सजा भी सुनाई गई थी। इस कहानी की शुरुआत सन 2003 में हुई थी। एक स्विस जज ने पाकिस्तान के वर्तमान राष्ट्रपति आसिफ जरदारी, उनकी स्वर्गीय पत्नी बेनजीर भुट्टो और बेनजीर की मां नुसरत भुट्टो को लगभग 12 मिलियन डॉलर की हेराफेरी का आरोपी ठहराया। यह पैसा उन सौदों में दलाली का था जो बेनजीर ने बतौर प्रधानमंत्री के कार्यकाल (90 के दशक) में लिया था। वर्ष 2007 में तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने एक एनआरओ निकाला। नेशनल रिकांसिलेशन आर्डिनेंस के जरिए करीब आठ हजार लोगों पर चल रहे भ्रष्टाचार के मामले खत्म कर दिए गए। इससे बेनजीर और जरदारी को वापस लौटने में मदद मिली और वह इसका लाभ उठाते हुए पाकिस्तान वापस आ गए। फिर मुशर्रफ और पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट की ठन गई और उन्होंने मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी को न केवल उनके पद से हटा दिया बल्कि गिरफ्तार करके उनको और कई और जजों को नजरबन्द कर दिया। यहीं से चीफ न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी खुंदक खा गए और उन्होंने राजनीतिक सैटअप से बदला लेने की ठान ली। यह किसी से छिपा नहीं कि पाकिस्तान में सत्ता का एक बड़ा केंद्र पाक सेना है। जब जरदारी ने बहुत चालाकी करके देश के राष्ट्रपति पद पर कब्जा कर लिया तो पाक सेना को यह पसंद नहीं आया और तब से ही पाक सेना जरदारी-गिलानी का विरोध कर रही है। गिलानी ने भी पाक सेना से बिगड़ते रिश्तों को कभी छिपाने की कोशिश नहीं की। कुछ महीने पहले ही गिलानी ने चेतावनी दी थी कि पाक सेना चुनी हुई सरकार को बर्खास्त करके सत्ता हथियाना चाहती है। लगता है कि पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट और पाकिस्तानी सेना की अन्दरखाते कोई साठगांठ जरूर है। जस्टिस इफ्तिखार चौधरी जो कर रहे हैं उसमें उन्हें पाक सेना का समर्थन है। खैर! दिसम्बर 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने मुशर्रफ के नेशनल रिकांसिलेशन आर्डिनेंस (एनआरओ) को खारिज करते हुए राष्ट्रपति समेत सभी लोगों के खिलाफ मामलों को फिर से खोलने का निर्देश दे दिया। उन्होंने राष्ट्रपति जरदारी के कथित अवैध धन को वापस लाने के लिए गिलानी से कहा कि आप स्विस बैंकों से सम्पर्प करें। उधर 2008 में स्विस प्रशासन ने पाक सरकार की अपील पर आसिफ जरदारी के खिलाफ छह करोड़ डॉलर की धन की हेराफेरी के मामले को बन्द कर दिया था। गिलानी का स्टैंड था कि चूंकि पाक संसद ने एनआरओ को पारित कर रखा है इसलिए इसके खिलाफ वह कोई कार्रवाई नहीं कर सकते। गिलानी के मना करने पर सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें कुछ मिनटों की सजा भी सुनाई और अब उन्हें अयोग्य घोषित कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने गिलानी की यह दलील मानने से इंकार कर दिया कि राष्ट्रपति के विशेषाधिकार के तहत जरदारी को मुकदमे से छूट हासिल है। 2008 में हुए आम चुनावों में यूसुफ रजा गिलानी ने राष्ट्रीय असेम्बली के चुनावी क्षेत्र एनए 157 मुल्तान 4 में चुनाव लड़ा था और विजयी घोषित हुए थे। एक चुने हुए प्रधानमंत्री व सांसद को सुप्रीम कोर्ट क्या रद्द कर सकता है यह भी प्रश्न आज पूछा जा रहा है? प्रधानमंत्री को तो हटा दिया पर अब जो नया प्रधानमंत्री बनेगा क्या वह सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन करेगा? अगर उसका भी यही स्टैंड रहा तो क्या? सुप्रीम कोर्ट का असल निशाना तो आसिफ जरदारी हैं और बीच में फंस गए यूसुफ रजा गिलानी। साफ है कि इन सबके पीछे गहरी राजनीति है। इस पूरे घटनाक्रम ने पाकिस्तान को एक संवैधानिक अनिश्चितता की ओर धकेल दिया है क्योंकि फैसला आते ही तत्काल प्रभाव से कैबिनेट बर्खास्त हो गई है। अदालत ने दुर्भाग्य से सबसे सख्त रवैया अपनाया है। वह चाहती तो मामले को पाकिस्तान के चुनाव आयोग के सामने भी भेज सकती थी, जिसमें तीन महीने का समय लगता पर अदालत ने ऐसा नहीं किया। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सरकार गिरने जैसी कोई स्थिति उत्पन्न होने वाली नहीं है, क्योंकि पीपीपी के पास सदन में आवश्यक बहुमत है। इस पूरे प्रकरण पर एक तबके की राय तो यह है कि राजनेताओं और न्यायपालिका के टकराव में दोनों खेमों ने अपनी-अपनी राजनीतिक बिसात बिछा रखी है और सही चाल, सही समय पर चलने का मौका तलाशते रहे हैं। कोर्ट का यह फैसला अगले साल होने वाले आम चुनावों को आगे सरका सकता है। सम्भव है कि राष्ट्रपति जरदारी इसी साल के अन्त में असेम्बली चुनावों की घोषणा कर दें। पाकिस्तानी अवाम दोनों स्तम्भों के बीच फंस गई है। सेना अपना खेल खेल रही है। आतंकवादी और कट्टरपंथी गुट भी अपना दाव खेल सकते हैं। कुल मिलाकर पाक अस्थिरता के दौर में प्रवेश कर गया है।

Thursday, 21 June 2012

अक्सर फिसलती दिग्विजय सिंह की जुबां

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 21 June 2012
अनिल नरेन्द्र
मुझे आज तक यह समझ नहीं आया कि कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह किस हैसियत से आए दिन बयानबाजी करते रहते हैं। बातें भी वह ऐसी करते हैं जिनका गंभीर राजनीतिक अर्थ निकलता है। अगर वह कांग्रेस के पवक्ता नहीं तो किस आधार पर किसकी शह पर यह बयानबाजी करते हैं? उनको किसी न किसी की तो शह मिली होगी? नहीं तो वह नीतिगत बयान कैसे दे देते हैं। ताजा उदाहरण दिग्विजय की ममता बनर्जी के खिलाफ एक निजी टीवी चैनल पर बयानबाजी का है। दिग्विजय ने एक टीवी इंटरव्यू में तृणमूल कांग्रेस की पमुख ममता बनर्जी को अपरिपक्व और अस्थिर बताया और कहा कि पार्टी के धैर्य की एक सीमा होती है। सिंह ने यह भी कहा था कि ममता को मनाने के लिए पार्टी एक सीमा से आगे नहीं जाएगी। सवाल यह उठता है कि दिग्विजय ने ऐसा बयान क्यों दिया? क्या यह कांग्रेस की रणनीति का हिस्सा है कि तुम बयान दे दो बाद में हम उसका खंडन कर देंगे। ममता को संकेत भी मिल जाएगा और फिर हम पार्टी को आपके बयान से अलग कर लेंगे। यह पहली बार नहीं है जब दिग्विजय ने इस पकार के विवादास्पद बयान दिए हैं। हाल ही में दिग्विजय ने उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के बारे में भी टिप्पणी की थी। उन्होंने कहा कि अंसारी को दोबारा उपराष्ट्रपति बनाना चाहिए। पार्टी सूत्रों का तर्प है कि जब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को इस संबंध में अधिकृत कर दिया गया है तो पार्टी के जिम्मेदार नेताओं खासकर पार्टी के वरिष्ठ पदाधिकारियों को इस बारे में बोलने पर परहेज करना चाहिए। दिग्विजय ने पार्टी अध्यक्ष को भी नहीं बक्शा। उन्होंने एक टीवी इंटरव्यू में कहा था कि कांग्रेस अध्यक्ष के नेता सदन बनने में कोई बाधा नहीं है। वे नेता सदन बन सकती हैं, साथ ही कोई डिप्टी लीडर हो सकता है। यूपी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हार के बाद उनकी चुनाव के दौरान की गई टिप्पड़ियां पार्टी की हार का एक कारण बनी। दिग्विजय ने वटला हाउस मुठभेड़ को फर्जी करार देकर भी पार्टी और सरकार को फंसा दिया था। गृहमंत्री पी चिदम्बरम की नक्सल विरोधी नीति पर भी उन्होंने विवादास्पद टिप्पणी की थी। अन्ना हजारे के आंदोलन के दौरान भी आए दिन दिग्विजय आलतू-फालतू टिप्पणी करते रहे। आखिरकार कांग्रेस नेतृत्व को दिग्विजय सिंह के बड़बोलेपन के खिलाफ कदम उठाना ही पड़ा। पार्टी ने दिग्विजय सिंह के बयानों से अपने को जहां अलग किया वहीं यह सार्वजनिक तौर पर साफ किया कि वे मीडिया से बात करने के लिए आधिकारिक रूप से अधिकृत नहीं हैं। यह पहला मौका है जब कांग्रेस की तरफ से यह कहा गया है कि दिग्विजय की बातों का पार्टी के विचार न माने जाएं। यानी एक तरफ कांग्रेस ने साफ करने का पयास किया है कि मीडिया उनकी बातों को कांग्रेस का मत मान कर न चले वहीं दूसरी ओर कांग्रेस ने दिग्विजय सिंह को भी परोक्ष तोर पर चेतावनी दी है कि वह मीडिया में बयान देने से बाज आएं। दिग्विजय के विवादित बयानों से नाराज पार्टी ने उन्हें विभिन्न सियासी मुद्दों पर पार्टी की ओर से बोलने पर रोक दिया है। कांग्रेस मीडिया विभाग के चेयरमैन कांग्रेस महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने यह बयान जारी किया है। इसका मतलब यह है कि यह बयान कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के निर्देश पर जनार्दन ने दिया है। देखें क्या दिग्विजय पर इसका कोई असर होता है या नहीं?
Anil Narendra, Batla House Encounter, Congress, Daily Pratap, Digvijay Singh, P. Chidambaram, Vir Arjun

अपनी ही बच्ची से बलात्कार करने वाला कलयुगी फांसीसी राक्षस

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 21 June 2012
अनिल नरेन्द्र
गत दिनों एक अत्यन्त दुखद और घृणा पूर्ण किस्सा पकाश में आया है। बेंगलुरु से पाप्त खबरों में कहा गया है कि एक पेंच राजनयिक पास्कल माजुरियर पर उसकी पत्नी एवं भारतीय नागरिक सुजा जोंस ने अपनी साढ़े तीन साल की बच्ची से बलात्कार करने का आरोप लगाया है। पास्कल माजुरियर, बेंगलुरू स्थित फांस के वाणिज्यिक दूतावास में उप पमुख है। आरोप लगाने के बाद बेंगलुरु पुलिस के लिए यह समस्या खड़ी हो गई कि माजुरियर को गिरफ्तार कर उस पर क्या भारत में मुकदमा चलाया जा सकता है या नहीं? क्योंकि अगर राजनयिक को डिप्लोमेटिक इम्यूनिटी पाप्त है तो उस पर भारत में मुकदमा नहीं चलाया जा सकता पर फिर यह साफ हुआ कि आरोपी को कोई डिप्लोमेटिक इम्यूनिटी नहीं है क्योंकि वह एक डिप्लोमेट नहीं है, उसके पास सेवा पासपोर्ट है, राजनयिक पासपोर्ट नहीं। उसे राजनयिक छूट पाप्त नहीं है और उसके खिलाफ भारत में मुकदमा चलाया जा सकता है। राजनयिक की पत्नी सुजा जोंस माजुरियर ने गृहमंत्री पी चिदम्बरम और विदेश मंत्री एसएम कृष्णा को एक पत्र लिखकर सरकार से यह सुनिश्चित करने की अपील की कि उनके पति को तब तक देश छोड़ने से रोका जाए जब तक कि सभी कानूनी पकियाएं पूरी नहीं हो जातीं तथा किसी भी परिस्थिति में उसे बच्चों की देखभाल नहीं मिलनी चाहिए जो कि फांस के नागरिक हैं। फांस महावाणिज्य दूतावास की ओर से जारी एक बयान में कहा गया है कि जांच जारी है जिसके लिए यह महावाणिज्य दूतावास पूरा सहयोग दे रहा है। पुलिस ने राजनयिक के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 376 के तहत बलात्कार का मामला दर्ज कर लिया है। अपनी साढ़े तीन साल की बेटी के साथ दुष्कर्म के आरोपी फांसीसी वाणिज्य दूतावास के अधिकार पास्कल माजुरियर को मंगलवार को बेंगलुरु में गिरफ्तार कर लिया गया। यह जानकारी पुलिस ने दी। एक दिन पहले ही गृह मंत्रालय ने शहर पुलिस से स्पष्ट कहा था कि आरोपी को किसी तरह की राजनयिक छूट पाप्त नहीं है और उसके खिलाफ कानून के मुताबिक कार्रवाई की जा सकती है। पुलिस के अनुसार हाई ग्राउंड्स थाने की पुलिस ने पास्कल को हिरासत में ले लिया है। फांसीसी वाणिज्य दूतावास इसी थाने के अंतर्गत आता है। केरल की रहने वाली सुजा जोंस ने अपने पति पर बेटी से दुष्कर्म का आरोप लगाया था। उसके घर काम करने वाली महिला ने बताया था कि उसके पति ने ही उसकी बेटी के साथ दुष्कर्म किया है। पुलिस उपायुक्त (कानून एवं व्यवस्था) सुनील कुमार ने बताया कि पीड़ित बच्ची का चिकिसीय परीक्षण कराया गया जिसकी रिपोर्ट का इंतजार है। ऐसे दानव पिता को तो कड़ी से कड़ी सजा होनी चाहिए। उसे एक विदेशी होने का कोई लाभ नहीं मिलना चाहिए। वह एक बलात्कारी है और ऐसी घिनौनी हरकत करने वाले को बक्शा नहीं जा सकता।
Anil Narendra, Daily Pratap, Rape, Vir Arjun

Wednesday, 20 June 2012

राष्ट्रपति चुनाव के दंगल का तीसरा अध्याय

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 20 June 2012
अनिल नरेन्द्र
राष्ट्रपति चुनाव का तीसरा अध्याय आरम्भ हो चुका है। यह चुनाव दोनों कांग्रेस गठबंधन और विपक्ष के लिए अपने-अपने कारणों से राजनीतिक चुनौती बन गया है। पहले बात करते हैं एनडीए की। पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के चुनाव लड़ने से इंकार करने से एनडीए में अब आपसी फूट का खतरा बढ़ गया है। एनडीए घटक दलों की दो बैठकें हो चुकी हैं पर कोई रणनीति नहीं बन पा रही। इसकी खास वजह यही समझी जा रही है कि भाजपा के दिग्गज नेता भी यूपीए के उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी के मुकाबले अपना उम्मीदवार उतारने या न उतारने को लेकर पशोपेश में हैं। यह बहस भी जारी है कि अब जब डॉ. कलाम दौड़ से बाहर हो गए हैं तो क्या ऐसे में लोकसभा के पूर्व स्पीकर पीए संगमा को ही अपना समर्थन दे दिया जाए? भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी राष्ट्रपति चुनाव लड़ने के इच्छुक बताए जा रहे हैं। आडवाणी जी कहते हैं कि लोकतंत्र में चुनाव लड़ना जरूरी होता है, वह यूपीए उम्मीदवार को निर्विरोध नहीं जिताना चाहते। सूत्रों के अनुसार भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी हार की फजीहत से बचने के लिए उम्मीदवार उतारने के पक्ष में नहीं हैं। अरुण जेटली भी गडकरी के साथ हैं। पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह, वेंकैया नायडू, डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने 2007 का इतिहास याद कराया जब तत्कालीन उपराष्ट्रपति भैरो सिंह शेखावत संख्याबल नहीं होने पर भी मैदान में कूद पड़े थे। उम्मीदवार उतारने के लिए आडवाणी, सुषमा की जिद के पीछे सुब्रह्मण्यम स्वामी का तर्प यह भी है कि हमें राष्ट्रपति चुनाव से आगे की सोचनी चाहिए। अगर हम जयललिता, नवीन पटनायक और ममता बनर्जी को यूपीए से दूर कर लेते हैं तो 2014 के लोकसभा चुनाव में हमें एनडीए को फैलाने का अच्छा अवसर मिलेगा। यह भी कहा जा रहा है कि अगर हम चुनाव पर अड़े रहे तो यूपीए हमें शायद उपराष्ट्रपति का पद दे दे? फिर यह भी कहा जा रहा है कि अब तक भारत के प्रेजीडेंट के लिए कोई निर्विरोध नहीं चुना गया, हर जीतने वाले उम्मीदवार को चुनाव लड़ना पड़ा है और चुनाव लड़ने के बाद ही वह रायसीना हिल्स पहुंचा है। हां अब चुनाव में काका जोगिन्दर सिंह धरतीपकड़ सरीखे के तमाशबीनों के लिए कोई जगह नहीं है। आडवाणी बार-बार 1969 के राष्ट्रपति चुनाव का जिक्र कर रहे हैं। राष्ट्रपति पद के लिए 1969 का चुनाव कई मायनों में अनोखा रहा जब वीवी गिरि और नीलम संजीवा रेड्डी के बीच कांटे का मुकाबला हुआ था। आडवाणी जी ने कहा कि 1969 का राष्ट्रपति चुनाव ऐतिहासिक था और 2012 का यह चुनाव सनसनीखेज है। उन्होंने कहा कि 1969 के राष्ट्रपति चुनाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने कांग्रेस पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार को अंतरात्मा की आवाज पर वोट देने की अपील कर हरवाया था। वह एक असाधारण चुनाव था, यह सनसनीखेज चुनाव है। राष्ट्रपति चुनाव के लिए तय लग रहे मुकाबले में दूसरी वरीयता के वोटों का गणित अहम साबित हो सकता है। अगर संप्रग प्रत्याशी प्रणब मुखर्जी को दूसरी ओर से कड़ी टक्कर देने वाला कोई मजबूत उम्मीदवार मैदान में उतरता है तो 1969 की तरह राष्ट्रपति तय करने में निर्णायक साबित हो सकता है। अगर समीकरण बहुत नहीं बदलते हैं तो प्रणब और संगमा में टक्कर हो सकती है। मुखर्जी के नाम पर राजग में सहमति न बनना और संगमा का मैदान में डटे रहने की घोषणा द्वितीय वरीयता के गणित को रास्ता दे रही है। हालांकि अभी तक सिर्प एक बार 1969 में द्वितीय वरीयता निर्णायक साबित हुई है। उस समय वीवी गिरि द्वितीय वरीयता की गिनती से चुनाव जीते थे। विपक्ष यदि प्रणब के खिलाफ एकजुट हो जाता है और आदिवासी वर्ग का होने के कारण दूसरी वरीयता में पीए संगमा को क्रॉस वोट मिल जाएं तो मुकाबला रोचक हो सकता है। मसलन 1969 में कांग्रेस के उम्मीदवार नीलम संजीवा रेड्डी थे और वीवी गिरि निर्दलीय थे। कांग्रेस दो धड़ों में बंट चुकी थी। एक पुरानी कांग्रेस, जिसके मुखिया मोरारजी देसाई थे। दूसरी नई जिसकी कर्ताधर्ता इन्दिरा गांधी थीं। राष्ट्रपति चुनाव में पार्टी व्हिप लागू नहीं होने का फायदा उठाते हुए इन्दिरा जी ने कांग्रेसियों से आत्मा की आवाज पर मत देने की अपील की। नतीजतन वीवी गिरि को दूसरी वरीयता में ज्यादा मत मिले और वह विजयी हुए। कांग्रेस के उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी का विरोध टीम अन्ना भी कर रही है। टीम का कहना है कि राष्ट्रपति बनने से पहले उन पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों की निष्पक्ष जांच होनी चाहिए। टीम अन्ना के प्रमुख अरविन्द केजरीवाल ने रविवार को जोधपुर में कहा कि मुखर्जी देश के संवैधानिक पद के प्रत्याशी हैं, इसलिए जो इस पद पर बैठे, उसकी छवि साफ-सुथरी होनी चाहिए। साल 2005 को नेवी वॉर रूम लीक मामले में प्रणब की भूमिका पर संदेह है। उन पर चावल निर्यात घोटाले के भी आरोप हैं। इन मामलों में उनकी भूमिका की जांच होनी चाहिए। समाजवादी पार्टी मुखिया मुलायम सिंह ने सफाई दी है कि उन्होंने कांग्रेस से कोई डील नहीं की। डील तो दलाल लोग करते हैं। मुलायम कहते हैं कि अगर ममता सोनिया गांधी से मिलने के बाद यह घोषणा नहीं करतीं कि कांग्रेस दो नामों को आगे बढ़ा रही है, प्रणब मुखर्जी और हामिद अंसारी, तो सोनिया गांधी कुछ और ही खेल खेल सकती थीं। अगर 13 जून को 10 जनपथ जाने के पहले तक तृणमूल कांग्रेस की नेत्री ममता बनर्जी को ही नहीं मालूम था कि किस उम्मीदवार पर कांग्रेस दाव लगाना चाहती है तो फिर किसको पता था? सोनिया गांधी द्वारा बताए गए दो नामों प्रणब मुखर्जी और हामिद अंसारी को ममता जाहिर नहीं करतीं तो इस पर रहस्य ही बना रहता। 2007 में सोनिया गांधी ने अंतिम समय में प्रतिभा देवी सिंह पाटिल का नामांकन कर यह संदेश दे दिया था कि वे किस प्रकार के व्यक्ति को राष्ट्रपति भवन देखना चाहती हैं। सम्भव था कि अगर ममता कांग्रेस की पसंद को सार्वजनिक नहीं करतीं तो अंतिम समय में सोनिया मीरा कुमार या हामिद अंसारी का नाम घोषित कर देतीं। मुलायम ने कहा कि हम तो हमेशा से प्रणब को चाहते थे पर सोनिया को प्रणब पर विश्वास नहीं था। इस बार राष्ट्रपति चुनाव को लेकर दिन-प्रतिदिन दृश्य बदल रहा है। कुछ भी दावे से कहना मुश्किल है। अभी समय है और भी अध्याय सामने आ सकते हैं।
Anil Narendra, Daily Pratap, Elections, Hamid Ansari, Mamta Banerjee, Meera Kumar, Pranab Mukherjee, President of India, Sangama, Sonia Gandhi, Vir Arjun

Tuesday, 19 June 2012

RSS wants Party to face elections under Modi’s leadership

 

The internal rift in the BJP can be gauged by Sanjay Joshi's leaving the Party. First, Sanjay Joshi was disgraced and ousted from the national executive committee and then he was forced to leave the Party. This was done by the Party President Nitin Gadakari at the instance of Rashtriya Swayamsevak Sangh (RSS) and Gujarat Chief Minister, Narendra Modi. It is apparent that the real power is RSS and Gadakari is façade behind which it wields power and it has decided to weaken the senior leader Lal Krishan Advani on the one hand and project Narendra Modi as the Prime Minister on the other. That is why the RSS mouthpiece, Organiser in its latest issue, says that the graph of the Congress is fast going down, but it appears that the BJP-led NDA would not be in a position to exploit this situation. It is being projected that Narendra Modi is the only face in the Party that can salvage the Party and that has the capacity to expand the vote bank of the Party throughout the country, like Atal Behari Vajpayee did in 90s. If the RSS has really reached at this decision, why doesn't it openly declare that the RSS and the BJP would face 2014 elections under the leadership of Narendra Modi? Narendra Modi's image is that of orthodox Hinduism. There is a vast difference between the image of Atal Behari Vajpayee and that of Narendra Modi. Atalji used to take all with him. Modi's style of working is quite different.He neither cares for the workers nor for the leaders and the RSS. Now, he looks beyond RSS and BJP. He cares a hoot for them. Till recently, there was discord between Gadkari and Modi, but Gadkari has been forced by the RSS to come to terms with Modi and the Sanjay Joshi issue clearly spells out what price, Gadakari had to pay for this deal. We feel that the RSS is fielding Modi against Advani. The RSS could go to any extent to sideline Advani. When the RSS realized that Atalji is unable to play an active part in the politics, it started undermining Advani and the irony of the matter is that Advaniji himself has by mistake provided it with an excuse. I am referring to the statement about Jinnah. Efforts have already been made to belittle Advani by promoting Rajnath Singh or inciting leaders of the second line against him. But, the bitter truth is that all other BJP leaders appear dwarf-like before Advani. No doubt, Narendra Modi is a worthy and strong leader, but it is doubtful whether he would be acceptable within and outside the BJP. If Narendra Modi is projected as the future Prime Minister, there is sure to be fierce fighting within the Party. Leaders like Sushama Swaraj, Arun Jaitley, Rajnath Singh, Dr. Murali Manohar Joshi may stake their claims for the Prime Ministership. Then will mighty leaders of other NDA constituents like Nitish Kumar, Bal Thakare, Prakash Singh Badal accept Modi? On the other hand, Advaniji is a leader under whose umbrella all NDA constituents may unite. The anti-Congress sentiments are so high that even the Muslims might vote in favour of Advaniji instead of Modi. But, the RSS could go to any extent to beliitle him in spite of his high stature. First, it was Rajnath Singh who was pitted against Advanji, when he failed; Modi is being hoisted, which means that the RSS could go to any extent, but it appears that the RSS is being entangled in its own snare and the strategy of fielding Modi as an alternative to Advani is working against the RSS itself. The RSS is unable to understand how to refuse to Modi's terms? As a result, the RSS is being blackmailed by Modi. In fact, the RSS had never thought that Narendra Modi will be adopting diplomacy which suits him. The way he made RSS leaders like Praveen Togadia insignificant with his political crudeness, similarly, he didn't hesitate to snub his opponents with cunning and manouvering attitude. It is the orthodox image of Modi, which has given BJP a anti-Muslim and a rioter face. Advocates of Hinduism must understand that liberal Hinduism is welcome throughout the country, but violent and fanatic Hinduism will detract even the majority of Hindus. As such, there is no guarantee that Modi will be relevant and acceptable in the central politics. India is not Gujarat. It is not necessary that whatever is accepted in a State would be acceptable to the whole country. It is just the beginning of the ill effects of the wrong politics of the RSS. The experiment, it started against the traditional system of the BJP, has begun to produce distorted results. In simpler words, the RSS has created a bhasmasur in Modi. But, as various RSS newspapers and magazines and various leaders are continuously advising Narendra Modi, he should give up all these efforts and be large-hearted. But, unfortunately, the principle of organization first and leader last has no more relevance to BJP. The BJP has now, like RSS been turned into a private limited company, with Nitin Gadakari as its MD, who is running it like his personal company. We'll have to wait and watch to know that how far Narendra Modi will be successful in comparison to Lal Krishan Advani, who took BJP's two seats in Lok Sabha to 175 seats, but one thing is certain that Modi will have to fight on a number of fronts within BJP. There are two years left for Lok Sabha elections and the anti-Advani campaign can still come to naught. RSS and BJP may try however hard to push Advani behind, but the fact is that the personalities of Nitin Gadakari and Narendra Modi appear dwarfed before Advani at national and international levels. If in the days to come, Advani parts with the BJP, it could lead to the division in the Party, as due to the poor politics of RSS, none of its leaders has faith in others as a result of which there are a number of factions active in the Party. Apparently, the infighting among these factions would weaken the Party and if BJP is forced to face defeat in 2014 general election due to this internal conflict, then full responsibility for this debacle would rest on RSS. Had the RSS been concerned about the BJP, it would never have worked to incite and unite leaders of second line against Advani. If it had a bit of political prudence, then it would not have interfered in the hierarchy starting from Atalji to Advaniji and Dr Murali Manohar Joshi. The fact is that the RSS is itself becoming disoriented and untrustworthy. There was a time, when people used to think that when BJP is such a disciplined party, then how much disciplined would RSS be? But, now people don't differentiate between BJP and RSS and they consider them as two sides of the same coin. Now the decision lies with the RSS, whether it would contest the 2014 Lok Labha elections under the leadership of Advani or that of Narendra Modi?

 

विरोध से शुरू हुआ है ब्लादिमीर पुतिन का तीसरा कार्यकाल

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 19 June 2012
अनिल नरेन्द्र
रूस में राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन की क्या सत्ता पर पकड़ ढीली होती जा रही है? पुतिन ने 7 मई को अपना तीसरा राष्ट्रपति का कार्यकाल आरम्भ किया है। वर्ष 2000 में बोरिस येल्तसिन को हराकर पुतिन पहली बार रूस के राष्ट्रपति बने थे। 2004 में उन्होंने दोबारा चुनाव जीता। वे 2008 में भी राष्ट्रपति का चुनाव लड़ते यदि संवैधानिक बाधा बीच में नहीं आती। इसे दूर करने के लिए पुतिन प्रधानमंत्री बन गए और अपने विश्वसनीय दमित्री मेदवेदेव को देश का राष्ट्रपति बनवा दिया। तीसरी बार शपथ लेने के तत्काल बाद पुतिन ने प्रधानमंत्री के रूप में मेदवेदेव को बिठा दिया। यह दोनों नेताओं के बीच सत्ता की भागीदारी को लेकर समझौते के तहत किया गया। खुफिया एजेंसी केजीबी के अधिकारी के तौर पर काम कर चुके पुतिन अपना यह कार्यकाल पूरा करते हैं तो वह स्टालिन के बाद सोवियत संघ और रूस में सबसे ज्यादा समय तक राष्ट्रपति का पद सम्भालने वाले नेता बन जाएंगे पर गत दिनों पुतिन के खिलाफ हजारों लोग मास्को की सड़कों पर उतर आए। प्रदर्शनकारी `पुतिन के बिना रूस' और `पुतिन चोर है' के नारे व बैनर लेकर सड़कों पर उतर आए। यह वर्तमान कार्यकाल में पुतिन के खिलाफ सबसे बड़ा प्रदर्शन था। प्रदर्शनकारियों का कहना था कि मार्च में राष्ट्रपति का चुनाव जीतने के लिए पुतिन ने धांधलेबाजी की और जबरदस्ती चुनाव जीता। इससे पहले पुलिस ने कई विपक्षी नेताओं के घरों पर छापे मारे और मंगलवार की इस रैली, मार्च को रोकने का हर प्रयास किया। वर्तमान तीसरे कार्यकाल के आरम्भ से ही पुतिन का विरोध शुरू हो गया। विपक्ष तभी से कह रहा है कि पुतिन ने इन चुनावों में सरकारी तंत्र का बेजा इस्तेमाल करते हुए फर्जीवाड़ा किया। पुतिन ने विवाद का कोई हल ढूंढने की बजाय आंदोलन का लगातार उपहास उड़ाया। उन्होंने कई बार यह दोहराया कि इस आंदोलन के पीछे विदेशी हाथ है। पुतिन के इस रवैये से लोगों के बीच उनकी छवि एक ऐसे नेता की बन गई जो किसी भी कीमत पर सत्ता हथियाना चाहते हैं। राष्ट्रपति पुतिन को अब चाहिए कि वह अपनी विश्वसनीयता को बहाल करने के लिए अविलम्ब चुनाव सुधार करने चाहिए ताकि चुनावी प्रक्रिया में पारदर्शिता आए। वे जब तक चुनाव सुधारों की दिशा में कोई कारगर कदम नहीं उठाएंगे, विरोध के स्वर शायद ही शांत हों। यदि यह ऐसा कर पाते हैं तो यह रूस के राजनीतिक इतिहास का बड़ा बदलाव होगा। कमजोर राजनीतिक व्यवस्था के अलावा रूस में एक बहुत बड़ी समस्या भ्रष्टाचार बन गया है। खुद पुतिन स्वीकार करते हैं कि देश व्यवस्थागत भ्रष्टाचार से ग्रसित है। भ्रष्टाचार पर नजर रखने वाली अंतर्राष्ट्रीय संस्था ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने रूस को भ्रष्टाचार के मामले में 178 देशों की सूची में 154वें स्थान पर रखा है जबकि भारत की रैंकिंग 87वीं है। यही नहीं, एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर के बैंकों में अभी जितना काला धन जमा है, उसमें सबसे ज्यादा पैसा भारतीयों का है तो दूसरे नम्बर पर रूसी हैं। रूस में भी भ्रष्टाचार आम जिन्दगी का हिस्सा बन चुका है। ट्रैफिक पुलिस और डाक्टरों से लेकर ऊंचे स्तर तक ज्यादातर कर्मचारियों में रिश्वतखोरी की परम्परा आम हो चली है। सेना तक में अब भ्रष्टाचार आ गया है। देश की बिगड़ती अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर लाने की चुनौती राष्ट्रपति पुतिन के सामने मुंह फाड़ कर खड़ी है। विश्वव्यापी आर्थिक मंदी से भी रूस बच नहीं सका। बेरोजगारी और गरीबी की समस्या दिनोंदिन गम्भीर होती जा रही है पर अच्छा संकेत यह है कि रूस में सुधार हो रहा है। देश में विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ने लगा है और देश की मुद्रा रुबल धीरे-धीरे स्थिर होता जा रही है। आर्थिक संकट से लड़ने के लिए खर्च की गई 30 खरब रुबल की भारी-भरकम रकम असर दिखाने लगी है। देश ने अनाज निर्यात करने की क्षमता पुन हासिल कर ली है। फिर भी पुतिन को देश की अर्थव्यवस्था को पुराने मुकाम तक पहुंचाने के लिए बड़ी मशक्कत करनी होगी। राष्ट्रपति पुतिन को यह समझने की जरूरत है कि हर स्तर पर जवाबदेही और पारदर्शिता की संस्कृति लानी होगी। यदि पुतिन ऐसा करने में कामयाब हो जाते हैं तो उन्हें सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस को फिर से मजबूती से खड़ा करने वाले नेता के रूप में याद किया जाएगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि `स्ट्रांग मैन' कहे जाने वाले पुतिन रूस को उस ऊंचाई तक पहुंचाने में कामयाब होंगे जो एक समय सोवियत संघ तक पहुंच गई थी।
Anil Narendra, Daily Pratap, Russia, Valadimir Putin, Vir Arjun

उपचुनाव के स्पष्ट संकेत ः हवा कांग्रेस के खिलाफ चल रही है

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 19 June 2012
अनिल नरेन्द्र
आमतौर पर उपचुनावों का दूरगामी असर नहीं होता पर ताजा उपचुनावों के नतीजे कांग्रेस पार्टी के लिए गहरी चिन्ता का विषय होना चाहिए। यूं तो उपचुनाव कई राज्यों में कई जगह हुए हैं पर आंध्र प्रदेश के उपचुनाव का सबसे ज्यादा महत्व है। आंध्र प्रदेश की 18 विधानसभा और एक लोकसभा सीट पर हुए चुनाव इस बात का स्पष्ट संकेत दे रहे हैं कि इस कांग्रेस के गढ़ माने जाने वाले राज्य में कांग्रेस की हवा खराब हो चुकी है। इस तरह के नतीजों की शायद ही कांग्रेस ने कल्पना की हो। विद्रोह कर वाईएसआर कांग्रेस का गठन करने वाले वाईएस जगनमोहन रेड्डी को धूल चटाने की मंशा से कांग्रेस ने सत्ता का पूरा फायदा लेते हुए जेल की सींखचों में बन्द कर दिया। व्यापार में अनैतिक साधनों के इस्तेमाल के आरोप में सीबीआई ने उन्हें 27 मई को ही गिरफ्तार कर लिया था। यकीनन 12 जून के चुनाव को ध्यान में रखकर ही ऐसा किया गया था। जगन को गिरफ्तार करने का उलटा असर हुआ, उनसे जनता की सहानुभूति हो गई और उसने 18 में से 15 विधानसभा सीटें जगन की झोली में डाल दीं। इसके अलावा एक लोकसभा सीट पर भी जगन की पार्टी को भारी सफलता मिली। एक तरह से कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया है। लोकसभा की सीट तो जगन के उम्मीदवार ने दो लाख वीटों के अन्तर से जीती। कांग्रेस को एक करारा झटका मध्य प्रदेश में भी लगा है। आरक्षित महेश्वर सीट सत्तारूढ़ भाजपा ने उससे छीन ली। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के 2008 में दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद जितनी भी सीटों पर उपचुनाव हुआ, सभी जगह कांग्रेस बुरी तरह हारी। कांग्रेस अपना गढ़ भी बचा नहीं सकी। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने अपनी लोकप्रियता बरकरार रखी है। यहां बांकुरा और जसपुर की दो सीटों के लिए उपचुनाव हुए थे। दोनों में पिछले विधायकों की मृत्य के कारण उपचुनाव हुए थे। तृणमूल कांग्रेस ने दोनों सीटों पर जीत हासिल की। कांग्रेस के लिए बुरी खबर झारखंड से भी आई है। वहां ऑल झारखंड छात्र संघ के नवीन जायसवाल के मुकाबले हटिया से कांग्रेस के केंद्रीय मंत्री सुबोध कान्त सहाय के भाई और कांग्रेस के उम्मीदवार सुनील सहाय की तो जमानत जब्त हो गई। उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले की मांट सीट के उपचुनाव ने भी सीधे न सही परोक्ष रूप से कांग्रेस को झटका जरूर दिया है। यहां कांग्रेस समर्थित रालोद उम्मीदवार को ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस उम्मीदवार श्याम सुन्दर शर्मा ने करीब पांच हजार वोट से हरा दिया। इस सीट पर उपचुनाव केंद्रीय मंत्री और रालोद के मुखिया अजीत सिंह के बेटे जयंत चौधरी के इस्तीफे के कारण हुआ था। मार्च में हुए चुनाव में इन्हीं जयंत चौधरी ने श्याम सुन्दर शर्मा को हराया था पर बाद में उन्होंने लोकसभा के सदस्य बने रहने के फेर में इस सीट से इस्तीफा दे दिया था। कन्नौज लोकसभा सीट से तो मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की पत्नी डिम्पल यादव के सामने किसी भी दल ने अपना उम्मीदवार ही नहीं उतारा और वह 22 साल बाद निर्विरोध लोकसभा पहुंच गईं। महाराष्ट्र की इकलौती केन सीट राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बचाने में सफल रही। यहां उसके उम्मीदवार पृथ्वीराज साठे ने भाजपा की संगीता को हराया। त्रिपुरा में नल्चर सीट पर माकपा ने अपना कब्जा बरकरार रखा। तमिलनाडु में भी पुडुकोहई सीट सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक ने जीत ली जबकि केरल में सत्तारूढ़ कांग्रेस गठबंधन को नेयातिकार सीट पर जीत जरूर मिली और कांग्रेस गठबंधन ने वाम मोर्चे को झटका दिया। इस सीट पर पिछली बार माकपा उम्मीदवार जीता था। कुल मिलाकर बेशक उपचुनावों का असर राष्ट्रीय राजनीति पर न पड़ता हो पर फिर भी देशभर में कांग्रेस के खिलाफ चल रही हवा का पता चलता है।
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Sunday, 17 June 2012

राष्ट्रपति चुनाव दंगल का दूसरा अध्याय

अगर बृहस्पतिवार का दिन ममता बनर्जी और मुलायम सिंह यादव के नाम रहा तो शुक्रवार का दिन निश्चित रूप से सोनिया गांधी के नाम रहा। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने ममता की चुनौती स्वीकार रकते हुए प्रणब मुखर्जी को यूपीए का राष्ट्रपति उम्मीदवार घोषित कर दिया। यही नहीं, शाम होते-होते मुलायम सिंह यादव अपनी आदत के अनुसार पलटी खा गए और उन्होंने प्रणब के समर्थन की घोषणा कर दी। बसपा सुप्रीमो मायावती ने भी यूपीए उम्मीदवार के समर्थन की औपचारिक घोषणा कर दी। अंक गणित के हिसाब से प्रणब मुखर्जी का पलड़ा भारी है। राष्ट्रपति चुनाव के लिए कुल मत हैं 10,98,882। बहुमत के लिए 5,49,442 वोट चाहिए। संप्रग के पास अब संप्रग+सपा+बसपा+राजद अगर जोड़े जाएं तो 5,71,644 वोट बन जाते हैं जबकि राजग के पास कुल 3,04,785 वोट ही रह जाते हैं। इसलिए आंकड़ों के अनुसार और घोषित समर्थन पोजीशन के बाद श्री प्रणब मुखर्जी का राष्ट्रपति बनना तय है। हालांकि ममता बनर्जी अभी भी कह रही हैं कि खेल अभी बाकी है, आगे देखिए होता है क्या? कांग्रेस पार्टी की अब कोशिश है कि प्रणब दा का चयन सर्वसम्मति से हो जाए। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने प्रणब के नाम की घोषणा होने के बाद लोकसभा में प्रतिपक्ष नेता सुषमा स्वराज को फोन करके भाजपा का समर्थन मांगा, सोनिया गांधी ने भी घोषणा स्पीच में सभी सांसदों, विधायकों से सर्वसम्मति से राष्ट्रपति चुनने की अपील की। वैसे कहीं बेहतर होता कि कांग्रेस प्रणब दा के नाम की घोषणा से पहले तमाम विपक्ष को विश्वास में लेती। सर्वसम्मति का मतलब होता है कि मिलकर उम्मीदवार का चयन करें न कि आप पहले चयन कर लें और बाद में सर्वसम्मति की बात करें। कांग्रेस ने पूरे मामले में मिसहैंडलिंग की है। उसने राष्ट्रपति पद का मजाक बना दिया है। आज सारा देश दुनिया भारत में सर्वोच्च पद के लिए हो रहे दंगल को देख रहा है। किसी भी शासन प्रणाली में नीतिगत मर्यादा का पालन किया जाना आवश्यक है। इसकी जिम्मेदारी सर्वाधिक सत्तापक्ष की होती है। लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में राजनीतिक मर्यादाओं की निर्धारण संविधान में ही कर दिया जाता है। दुर्भाग्य तो यह है कि ऐसी संवैधानिक मर्यादाओं का व्यवस्था को चलाने वाले खुद ही उसका उल्लंघन कर रहे हैं। देश की आजादी के बाद पहली बार राष्ट्रपति पद को लेकर इस तरह का दंगल देखने को मिल रहा है। जैसे कि भानुमति के कुनबे में भूकम्प आ गया हो। देश के महामहिम जैसे सर्वोच्च पद के लिए इतनी उठापटक राष्ट्र की राजनीति के लिए शुभ संकेत नहीं मानी जा सकती। जब से राजनीति में क्षेत्रीय दलों की सहभागिता बढ़ी है तब से देश की जनता की भावनाओं का बलात्कार व स्वार्थ सिद्धि के लिए ब्लैकमेलिंग का सिस्टम चल पड़ा है। आज जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि व पार्टियां अपने-अपने राज्यों के लिए `पैकेज' सिस्टम मिलने पर समर्थन देने की कवायद में जुटे हैं, नेताओं की निजी महत्वाकांक्षाएं स्वस्थ लोकतांत्रिक परम्पराओं पर भारी पड़ती नजर आ रही हैं। संवैधानिक रूप से राष्ट्रपति देश की विधायिका और कार्यपालिका का प्रधान होता है। बिना उसके हस्ताक्षर के कोई भी विधेयक कानून का रूप नहीं ले सकता। उसी के नाम पर केंद्र सरकार के सारे कामकाज निपटाए जाते हैं पर यह सिर्प अलंकारित सत्य है। सब कुछ तो राष्ट्रपति प्रधानमंत्री के कहने पर करता है। कायदेनुसार राष्ट्रपति को दलगत राजनीति से ऊपर होना चाहिए। सभी दलों का कर्तव्य होता है कि उसे सबसे ऊपर राष्ट्र के संवैधानिक मुखिया के तौर पर देखें और सम्मान दें। मर्यादा यह कहती है कि राष्ट्रपति वह व्यक्ति हो जो सभी दलों को मान्य हो, जिसकी निष्पक्षता पद की गरिमा व मर्यादा सभी मानें। तात्विक रूप से देखा जाए तो किसी एक नाम पर सहमति होने में किसी भी पार्टी का कोई नफा-नुकसान नहीं है पर सियासत के खेल में राजनीतिक अहंकार व निजी स्वार्थ सिर चढ़कर बोल रहा है। कुल मिलाकर देखा जाए तो श्री प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति पद के लिए सही व्यक्ति हैं। उनका लम्बा अनुभव, काबलियत खुद मुंह से बोलती है। कांग्रेस के संकटमोचक कहे जाने वाले प्रणब दा की सरकार और कांग्रेस पार्टी को कमी जरूर खलेगी। अभी 2014 का चुनाव दूर है। प्रणब दा को ऊपर धकेलने के पीछे भी कारण है। प्रधानमंत्री उन्हें वित्त मंत्रालय से हटाना चाहते थे पर उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि कैसे हटाएं? यह किसी से छिपा नहीं कि प्रणब दा और सोनिया गांधी में भी रिश्ते मधुर नहीं। सोनिया उन पर विश्वास नहीं करतीं। फिर कुछ विदेशी ताकतें भी प्रणब से नाराज रहती थीं, उद्योगपति भी खुश नहीं थे। इसीलिए एक तीर से कई शिकार करने की कांग्रेस ने कोशिश की है। प्रणब का चयन इसलिए भी किया गया, क्योंकि कांग्रेस का आंकलन था कि हामिद अंसारी, एपीजे अब्दुल कलाम से जीत नहीं सकते। दूसरा अध्याय निश्चित रूप से सोनिया गांधी और कांग्रेस के नाम रहा। दंगल जारी है। 30 जून तक कई और करवटें ले सकती है भारत की राजनीति।
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सीरिया में स्थिति विस्फोटक होती जा रही है

मध्य पूर्व एशिया में अशांति का माहौल खत्म ही नहीं होने का नाम ले रहा है। सीरिया में तो स्थिति बेहद विस्फोटक होती जा रही है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने एक शांति दल सीरिया में भेजा है। इस शांति दल के प्रमुख का कहना है कि यहां अब गृह युद्ध की स्थिति है। टीम के सदस्यों ने कहा कि जब वह सीरिया के शहर हफा में घुसने का प्रयास कर रहे थे तो उन पर गोलियां चलाई गईं और वापस जाने के लिए उन्हें मजबूर किया गया। न्यूयार्प स्थित संयुक्त राष्ट्र के कार्यालय में मेहर्व लेंडसॉस ने बताया कि सीरिया का बड़ा भाग अब सरकार के नियंत्रण से बाहर है। सीरिया के हालात लगातार बेकाबू होते जा रहे हैं। पिछले हफ्ते वहां तीन नरसंहार की घटनाएं हुईं। तीनों को मिलाकर सैकड़ों लोग मौत के घाट उतार दिए गए। उत्तरी हमा प्रांत में तो मौत का तांडव हुआ। राष्ट्रपति बशर अल असद की सरकार और विद्रोहियों के बीच किसी समझौते की स्थिति नहीं बन पा रही है। दोनों अपनी-अपनी जगह पर अड़े हुए हैं। सोवियत यूनियन के पतन के बाद भले ही दुनिया एक ध्रुवीय राजनीतिक व्यवस्था में चल रही हो लेकिन सीरिया के मुद्दे पर यह दो ध्रुवों के बीच बंटी नजर आ रही है। एक तरफ अमेरिका और उसके सहयोगी देश हैं तो दूसरी तरफ रूस, चीन और ईरान हैं। अमेरिका इस जिद्द पर अड़ा है कि राष्ट्रपति असद अविलम्ब सत्ता और देश, दोनों को छोड़कर चले जाएं। अमेरिका की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने तो रूस पर आरोप लगाया है कि वो सीरिया की बशर अल असद सरकार को हमले के लिए हैलीकाप्टर व अन्य जरूरी सैनिक सामग्री उपलब्ध करवा रहा है। अमेरिका कई बार असद को धमका चुका है। दूसरी ओर रूस, चीन और ईरान खुलेआम असद सरकार का समर्थन कर रहा है। ये तीनों ताकतें मिलकर असद सरकार को बचाने में जुटी हैं। इसकी एक खास वजह यह भी है कि रूस और चीन, दोनों सीरिया को हथियारों की सप्लाई करते हैं। एक तरह से असद सरकार के साथ इनके आर्थिक हित भी जुड़े हैं। ईरान के लिए सीरिया, सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। खासकर ऐसे समय में जब अमेरिका की अगुवाई में पश्चिमी शक्तियां ईरान के खिलाफ युद्ध करने तक की हद पर जाने की धमकी आए दिन दे रही हैं। रूस भी पुतिन के दोबारा राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका को आंखें दिखाने से चूकता नहीं और अमेरिकी दादागीरी को जहां और जब सम्भव हो, का विरोध करता है। इस बीच संयुक्त राष्ट्र संघ के पूर्व महासचिव एवं यूएनओ व अरब लीग के संयुक्त विशेष दूत कोफी अन्नान ने सीरिया समस्या के समाधान का छह सूत्री फॉर्मूला तैयार किया है। इसके अनुसार एक अंतर्राष्ट्रीय ग्रुप का गठन होना है जिसमें सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों के अतिरिक्त ईरान, तुर्की, सउदी अरब, कतर को भी शामिल किया जाएगा। अमेरिका और ब्रिटेन को इसमें शामिल करने के लिए कतई राजी नहीं है। ऐसे में सीरिया में खूनखराबा रोकने का रास्ता नजर नहीं आ रहा है। सीरिया में आज गृह युद्ध की स्थिति है। दोनों पक्षों के बीच में मर रहे हैं साधारण नागरिक। नरसंहार पर नरसंहार हो रहा है। अंधेरी सुरंग में कहीं भी कोई प्रकाश की किरण नजर नहीं आ रही है। हम सीरिया के नागरिकों को अपनी हमदर्दी पेश करते हुए उम्मीद करते हैं कि जल्द यहां शांति लौटे।