Published on 10 October, 2012
यह बहुत दुख की बात है कि सुप्रीम कोर्ट को उन मामलों में दखल देना पड़ रहा है जो काम केंद्र और राज्य सरकारों के हैं। मजबूरन सुप्रीम कोर्ट को ऐसे मामलों में दिशा-निर्देश देने पड़ते हैं। यह मामला है सभी स्कूलों में बुनियादी सुविधाएं देने संबंधी। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को निर्देश दिया है कि छह महीने के भीतर सभी स्कूलों में पेयजल और शौचालय समेत सभी बुनियादी सुविधाएं प्रदान की जानी चाहिए। न्यायमूर्ति केएस राधाकृष्णन की अध्यक्षता वाली पीठ ने समय सीमा तय करते हुए बुधवार को सरकारों से कहा है कि देशभर के स्कूलों में यह बुनियादी सुविधाएं प्रदान करने के लिए अविलम्ब कदम उठाए जाएं। शीर्ष अदालत ने पिछले साल 18 अक्तूबर को सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को सभी सरकारी स्कूलों में खासकर लड़कियों के लिए शौचालय बनाने का निर्देश दिया था। अदालत ने यह भी कहा था कि बुनियादी सुविधाएं प्रदान नहीं करना संविधान के अनुच्छेद 21(ए) के तहत बच्चों को प्रदत्त निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा के अधिकार का उल्लंघन है। राजधानी के स्कूलों की अगर बात करें तो राजधानी के 2675 सरकारी स्कूलों में आधे से अधिक स्कूलों में वॉशरूम व पानी की किल्लत है। राजधानी में कई गर्ल्स स्कूलों में छात्राओं की उपस्थिति केवल इसलिए कम रहती है क्योंकि इन स्कूलों में वॉशरूम नहीं हैं। इन स्कूलों में 946 स्कूल दिल्ली सरकार व 1729 स्कूल दिल्ली नगर निगम के आधीन हैं। सुप्रीम कोर्ट की छह महीने की डेडलाइन दिल्ली सरकार व दिल्ली नगर निगमों के लिए भारी चुनौती है। दिल्ली सरकार की शिक्षा मंत्री प्रो. किरण वालिया ने निर्देश दिया है कि सरकारी स्कूलों में पानी की कमी को पूरा करने के लिए ट्यूबवैल खुदवाए जाएं व ट्रीटमेंट प्लांट लगवाएं जाएं। उन्होंने बताया कि पूर्वी दिल्ली के स्कूलों में पायलट प्रोजेक्ट के रूप में सौर ऊर्जा से चलने वाले वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट लगाए गए हैं जो बहुत सफल हो रहे हैं। यहां न केवल बच्चों को स्कूल में पीने के लिए पानी उपलब्ध है बल्कि वे हर रोज केन में पानी भरकर घर भी ले जा रहे हैं। राजधानी में एक समस्या यह भी है कि कुछ इलाकों में स्कूल में पानी की लाइन बिछाने के एक-दो दिन बाद ही नल व पाइप सब चोरी हो जाता है। कक्षाओं से पंखे निकाल लिए जाते हैं। दोबारा से उन्हें लगवाने व मरम्मत करवाने की प्रक्रिया में इतना वक्त लगता है और दिक्कत आती है कि कई बार स्कूल प्रशासन उसे लगाने के लिए प्रयत्न ही नहीं करता। एक सच्चाई यह भी है कि एक बड़ी संख्या में सरकारी स्कूल ऐसे हैं जहां ब्लैक बोर्ड और टाट-पट्टी भी नहीं हैं। इसी तरह कई स्कूल ऐसे भी हैं जहां ढंग की इमारत नहीं है। यह तो जगजाहिर ही है कि तमाम स्कूलों में पर्याप्त शिक्षक नहीं हैं और जहां हैं भी वहां कोई यह देखने वाला नहीं कि वे पठन-पाठन का अपना काम सही तरीके से कर रहे हैं या नहीं? परिणाम यह है कि तमाम स्कूलों में कक्षा चार और पांच में पढ़ने वाले बच्चे भी सामान्य जोड़-घटाव से अनभिज्ञ हैं और कुछ तो ऐसे हैं जो अपना नाम तक सही नहीं लिख पाते। अगर स्कूलों की हालत सुधारनी है तो केंद्र और राज्य सरकारों को अपने कर्तव्यों के प्रति ज्यादा सचेत व सक्रिय होना होगा।
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