Published on 28 October, 2012
डीजल के दामों की वृद्धि का असर अब महंगाई पर साफ दिखने लगा है और बुरी खबर यह है कि महंगाई की मार से पस्त हो चुके आम लोगों को निकट भविष्य में भी इससे निजात मिलने की खास सम्भावना नहीं है। उलटे आशंका है कि डीजल, पेट्रोल के दाम और बढ़ाने की तैयारी हो रही है और खाने-पीने की वस्तुओं की कीमतें अभी और बढ़ेंगी। बीते एक महीने में रसोई का अधिकांश जरूरी सामान तेजी से महंगा हुआ है। दाल, चावल, गेहूं, बेसन, अण्डा, मीट, मछली, आटा सब आम आदमी की पहुंच से बाहर होता जा रहा है। कीमतों में हुई इस वृद्धि के बाद सितम्बर में थोक मूल्यों पर आधारित महंगाई दर 7.81 फीसदी पर पहुंच गई है। अगस्त में यह 7.55 फीसदी थी। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक पिछले एक महीने में खाद्य उत्पादों के वर्ग में कॉफी, रागी, अण्डा, मीट, मछली, गेहूं, चावल, उड़द, मसूर, अरहर, चाय, दूध, मूंग की कीमतों में एक से आठ प्रतिशत तक की वृद्धि हुई है। मैन्यूफेक्चरिंग सामान में आटा, बेसन, चीनी, तेल, मैदा, सूजी के थोक मूल्यों में एक से 19 फीसदी तक की तेजी आई है। भारतीय उद्योग एवं वाणिज्य मंडल (एसोचैम) का मानना है कि भंडार सीमित होने के कारण इस त्यौहारी सीजन में चीनी, खाद्य तेल और अन्य किराना वस्तुओं के दाम और ऊपर जा सकते हैं। एसोचैम के मुताबिक आठ महत्वपूर्ण खाद्य पदार्थों, जिनमें दाल, गेहूं, चीनी, खाद्य तेल और दूध शामिल हैं, के दाम सितम्बर 2011 से सितम्बर 2012 के मध्य तक 18 फीसदी बढ़े हैं जबकि इसकी तुलना में लोगों की औसत आय बमुश्किल 10 फीसदी बढ़ी है। हालांकि एसोचैम के इस आंकलन में ऐसी कोई नई बात नहीं है जिससे आम लोग नाबाकिफ हों। लेकिन उसने महंगाई को लेकर कायम आम चिन्ता को आंकड़ों के आधार जरूर प्रदान किया है। उद्योग मंडल द्वारा अपने अध्ययन में यह रेखांकित करना महत्वपूर्ण है कि आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति पक्ष की कमजोरी महंगाई की भयावहता को बढ़ा रही है। इसकी एक बड़ी वजह कमजोर मानसून को भी बताया गया है। समस्या यह है कि महंगाई बढ़ने के इन कारणों को बीते तीन-चार वर्षों में बार-बार सरकार द्वारा भी गिनाया तो गया लेकिन इनके निदान हेतु यदि कदम उठाए भी गए तो उनका नतीजा महंगाई पर कहीं नजर नहीं आया। हमारा मानना है कि इस संप्रग सरकार की प्राथमिकताएं सही नहीं हैं। इसका एक उदाहरण मौजूदा आर्थिक विकास मॉडल में कृषि क्षेत्र की हो रही लगातार अनदेखी है। आलम यह है कि आजादी के 65 सालों के बाद भी हमारा तकरीबन 40 फीसद कृषि क्षेत्र ही सिंचित है। इसी का परिणाम है कि आज भी हमारे अधिसंख्यक किसान मानसून के मोहताज बने हुए हैं। ऐसा नहीं है कि सिंचित रकबा बढ़ाने के लिए योजनाएं नहीं बनीं, धन खर्च नहीं हुआ बल्कि सच्चाई यह है कि ज्यादातर योजनाएं कागजों तक ही सीमित रहीं और पैसा नेताओं और अफसरों की जेबों में गया। महाराष्ट्र का उदाहरण सामने है जहां कहा जा रहा है कि 70 हजार करोड़ खर्च के जाने के बावजूद सिंचित रकबे में महज 0.1 फीसदी इजाफा हुआ है। दुखद पहलू यह है कि गरीब आदमी, आम आदमी को दो-दो वक्त की रोटी के लाले पड़ रहे हैं और इन नेताओं की तोंदें बढ़ती जा रही हैं।
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