Published on 4 October, 2012
मल्टी ब्रांड खुदरा क्षेत्र में एफडीआई की लड़ाई बढ़ती जा रही है और अब तो सड़कों पर आ गई है। तृणमूल कांग्रेस मुखिया ममता बनर्जी ने इस मुद्दे और महंगाई को लेकर दिल्ली में अपना पहला धरना दिया। ममता बनर्जी ने जंतर-मंतर पर आयोजित रैली में एक तीर से कई निशाने साधने की कोशिश की है। ममता के नए दांव से न केवल कांग्रेस के लिए बल्कि भाजपा के लिए भी मुश्किलें बढ़ सकती हैं। चार घंटे तक चले इस धरने में बंगाल से आए नेता बैकस्टेज में ही रहे। फोकस पर दूसरे नेता अधिक रहे। उत्तर प्रदेश से चुने गए एकमात्र टीएमसी विधायक श्याम सुंदर शर्मा, मणिपुर से आई टीएमसी नेता किम और हरियाणा से आए नेताओं पर फोकस अधिक रहा। खुद ममता ने कहा कि वे दिल्ली की लड़ाई दिल्ली के लोगों के साथ मिलकर ही लड़ेंगी। वह अपनी पार्टी को नेशनल स्वरूप देने में लगी हुई हैं। ममता की यह बात महत्वपूर्ण है कि मां, माटी और मानुष की लड़ाई बंगाल तक सीमित नहीं है। इस तरह उन्होंने अपने आपको बतौर एक राष्ट्रीय नेता के रूप में प्रोजेक्ट करने का प्रयास किया। खास बात यह थी कि सभी नेताओं ने हिन्दी में बात की क्योंकि हिन्दी लोगों को जोड़ती है। सोमवार की रैली में ममता ने एक और दांव भी खेला। तीसरे मोर्चे की हसरत को नए पंख लगाने के संकेत दिए। यूपीए से अलग होने के बाद वह मुलायम सिंह यादव, नवीन पटनायक, जयललिता, नीतीश कुमार को एक मंच पर लाने की पूरी कोशिश कर रही हैं। अपने भाषण में उन्होंने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि नवम्बर में लखनऊ में होने वाले आंदोलन के दौरान मुलायम सिंह मौजूद रहेंगे। उन्होंने पटना में भी कार्यक्रम चलाने की बात कही। हालांकि धरने में शरद यादव भी मौजूद थे पर उन्होंने ममता के साथ जुड़ने के फिलहाल कोई संकेत नहीं दिए पर ममता की नीयत साफ है। वह गैर कांग्रेस-गैर भाजपा मोर्चा बनाना चाहती हैं और इस प्रयास से दोनों कांग्रेस और भाजपा के लिए अच्छे संकेत नहीं माने जा सकते। ममता बनर्जी ने सावधानी से इस बात का ख्याल रखा कि भाजपा के साथ जुड़ा मुस्लिम विरोध का दाग उन पर न लगे। ममता बनर्जी की कोशिश यह दिखती है कि अगर अगले चुनावों में गैर कांग्रेस-गैर भाजपा पार्टियों का बहुमत होता है और किसी किस्म का गठबंधन बनता है तो इसका नेतृत्व उनके पास हो। विडम्बना यह है कि मुलायम सिंह यादव भी इसी प्रयास में है। फर्प यह है कि मुलायम लेफ्ट पार्टियों का समर्थन ले रहे हैं और लेफ्ट और ममता एक साथ नहीं आ सकते। संप्रग के पिछले कार्यकाल में वाम दलों ने अमेरिका के साथ परमाणु समझौते के विरोध में सरकार से समर्थन वापस लिया था और इस बार संयोगवश पश्चिम बंगाल की पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने एफडीआई पर समर्थन वापस लिया है। दोनों वक्त यह उम्मीद थी कि प. बंगाल में सत्तारूढ़ नेता केंद्र में सरकार को अपना काम करने देंगे और बदले में प. बंगाल के लिए ज्यादा से ज्यादा रियायतें पाने की कोशिश करेंगे। किसी वक्त देश का अग्रणी राज्य पश्चिम बंगाल इस वक्त पिछड़े राज्यों की कतार में भी काफी पीछे है और उसे तरक्की के रास्ते पर लाने के लिए केंद्र सरकार के उदार सहयोग की जरूरत है और ममता के ताजे स्टैंड में यह मकसद कितना पूरा होगा, इसमें शक है। धरने में ममता ने प्रधानमंत्री पर सीधा हमला करते हुए कहा कि मनमोहन सिंह आम आदमी को भूल चुके हैं। सुधारों के नाम पर एफडीआई और डीजल मूल्य वृद्धि के फैसले पर जनता को लूटा जा रहा है। अगर सरकार को पैसे ही चाहिए तो विदेशों में जमा कई लाख करोड़ काला धन वापस लाएं। दिलचस्प यह भी है कि इधर ममता सोमवार को दिल्ली में अपनी ताकत दिखा रही थीं तो ठीक उसी समय कोलकाता में भाकपा अपनी ताकत के प्रदर्शन में जुटी थी। प. बंगाल में कानून व्यवस्था व मूल्य वृद्धि के खिलाफ उत्तर 24 परगना जिले के धर्मतल्ला में भाकपा ने एक लाख से अधिक भीड़ जुटाकर अपनी ताकत दिखाई।
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