Wednesday, 3 October 2012

क्या भाजपा व एनडीए संप्रग सरकार का विकल्प है?


 Published on 3 October, 2012
 अनिल नरेन्द्र
भारतीय जनता पार्टी की तीन दिवसीय राष्ट्रीय परिषद की बैठक के आखिरी दिन पार्टी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने कार्यकर्ताओं को खरी-खरी सुनाईं। कर्नाटक सहित भाजपा शासित कुछ राज्यों में भ्रष्टाचार के आरोपों की पृष्ठभूमि में आडवाणी ने कहा कि हमारे नेताओं, मंत्रियों, निर्वाचित प्रतिनिधियों, कार्यकर्ताओं को ऐसा आचरण करना चाहिए कि जब कभी भी लोग भाजपा के बारे में सोचें तो उन्हें भाजपा के इस यूएसपी की याद आए। उन्होंने कहा कि लोगों को भाजपा से अभी अपेक्षाएं हैं। अत हमारे कार्यकर्ताओं में भ्रष्टाचार का जरा भी संकेत मिलता है तो उसके प्रति हमें उस समय और अधिक कठोर होना चाहिए जैसा कि हम अपने विरोधियों के लिए इसकी आलोचना करते हैं। उन्होंने कहा कि मनमोहन सिंह सरकार 2014 तक अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकती और हमें चुनाव के लिए तैयार रहना चाहिए। भारतीय जनता पार्टी के लिए सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यही है। क्या भाजपा चुनाव के लिए तैयार है? क्या जनता भाजपा को कांग्रेस के विकल्प के रूप में देख रही है? मनमोहन सिंह सरकार की धरातल पर आई साख और प्रतिष्ठा का लाभ भाजपा क्यों नहीं उठा पा रही है, मूल प्रश्न तो यह नेताओं को पूछना चाहिए? यह आरोप आम रहा है कि यूपीए सरकार के निराशाजनक प्रदर्शन और उसके भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोपों में घिरने के बाद भी भाजपा देश के समक्ष खुद को स्वाभाविक विकल्प के बतौर पेश करने में अभी तक नाकाम रही है। उम्मीद तो यह थी कि सूरजपुंड में राष्ट्रीय परिषद के अधिवेशन में पार्टी वह फॉर्मूला तलाशने में कामयाब रहेगी जिसके बल पर केंद्रीय सत्ता पर उसकी दावेदारी पुख्ता हो सके, लेकिन इस मौके पर श्री आडवाणी के भाषण पर गौर करें तो लगता है कि सत्ता में आते ही देश को समस्या मुक्त करने का दावा करने वाली पार्टी खुद कई समस्याओं और अंतर्विरोध से घिरी पड़ी है। आज पार्टी में कोई एका नहीं। अलग-अलग सुर में नेताओं के बोलने से जनता में  पार्टी की कोई छवि नहीं बन पा रही है। सबसे बड़ी समस्या है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के रिश्ते। संघ अपने ढंग से पार्टी को चलाना चाहता है। नितिन गडकरी के माध्यम से वह पार्टी पर पूरा नियंत्रण रखना चाहता है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को न तो संघ की ही परवाह है न केंद्रीय नेतृत्व की। वह अपने आपको दोनों से ऊपर समझ रहे हैं। भाजपा का एक वर्ग यह मानता है कि अगर भाजपा को 2014 का लोकसभा चुनाव जीतना है तो नरेन्द्र मोदी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश करना चाहिए जबकि आडवाणी खेमे का मानना है कि पार्टी सिर्प धर्मनिरपेक्षता की छवि से ही सरकार बनाने का स्वप्न देख सकती है। आडवाणी जी ने इसका ब्लू प्रिंट भी पेश किया है। नरेन्द्र मोदी के विचारों की वजह से एनडीए घटक दलों में भी मतभेद खुलकर सामने आ गए हैं। जद (यू) मोदी के विचारों से सहमत नहीं है और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तो खुलकर मोदी का विरोध करने की घोषणा की है। पार्टी नेतृत्व की समस्या तो है ही साथ हमारी राय में भाजपा को अपनी नीतियां स्पष्ट करनी होंगी। आर्थिक मुद्दों पर उसे देश को बताना होगा कि अगर कल को वह सत्ता में आई तो वह देश के सामने ज्वलंत समस्याओं से कैसे निपटेगी। कांग्रेस और संप्रग की आलोचना करना तो ठीक है पर आपको वैकल्पिक कार्यक्रम भी तो पेश करने पड़ेंगे। आपको जनता का विश्वास जीतना होगा कि आप सत्ता में आए तो विभिन्न मुद्दों को आप कैसे हैंडल करेंगे? मुसीबत यह भी है कि नेता लोग गोल-मोल बातें करते हैं। एक तीर से कई शिकार करना चाहते हैं। अगर आडवाणी एनडीए का कुनबा बढ़ाने की कवायद करते हैं तो कुछ लोग इसे भाजपा की आंतरिक राजनीति और पीएम पद की दावेदारी से जोड़ देते हैं। यह इसलिए भी हो रहा है क्योंकि आगामी चुनाव में नेतृत्व का सवाल अभी भी अनसुलझा है। उलझन यह है कि नरेन्द्र मोदी को पार्टी कार्यकर्ताओं का व्यापक समर्थन प्राप्त है। उन्हें केंद्रीय नेतृत्व पर काबिज नेता दिल्ली नहीं आने देना चाहते। बहाना यह है कि इससे गठबंधन साथी बिदक जाएंगे। ऐसे में धर्मनिरपेक्षता के आग्रह को मोदी का पत्ता साफ करने की रणनीति के तौर पर भी देखा जा रहा है। दुख से कहना पड़ता है कि सारा माहौल माफिक होने के बावजूद जनता की नजरों में भाजपा या एनडीए कांग्रेस नीत गठबंधन सरकार के विकल्प के रूप में अभी तक तो स्वीकार नहीं करवा सका।

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