Thursday, 4 October 2012

कैग कोई मुनीम नहीं जो सिर्प सरकार का आर्थिक चिट्ठा बनाए


 Published on 4 October, 2012
 अनिल नरेन्द्र
 संवैधानिक प्रावधान के जरिए नियंत्रण एवं महालेखा परीक्षक यानि कैग जैसी संस्था का गठन राजकाज में वित्तीय पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के मकसद से किया गया था। यह बहुत अफसोस की बात है कि हाल में कैग की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाने के लिए उस पर कुछ मंत्रियों ने सीधे हमले किए हैं। इस परिप्रेक्ष्य में सुप्रीम कोर्ट की ताजा टिप्पणी अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है। सर्वोच्च न्यायालय को साधुवाद कि उसने नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानि कैग के अधिकार क्षेत्र को चुनौती देने वाली एक जनहित याचिका न केवल खारिज कर दी बल्कि यह भी स्पष्ट कर दिया कि इस संवैधानिक संस्था को सरकारी निर्णयों की कुशलता और प्रभावोत्पादकता की जांच करने का भी अधिकार है। कैग के कामकाज को जायज करार देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कहा कि कैग कोई मुनीम नहीं है जो सिर्प सरकार के खातों का आर्थिक चिट्ठा तैयार करे। कैग एक संवैधानिक संस्था है जिसका कर्तव्य संसाधनों के सही उपयोग को देखना है। यह संसद का काम है कि वह कैग के नतीजों को स्वीकार करे या फिर उसे अस्वीकार कर दे। जस्टिस आरएम लोढ़ा व जस्टिस एआर दवे की पीठ ने यह टिप्पणी कैग के अधिकारों को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज करते हुए की। याचिका में कोल ब्लॉक आवंटन पर पेश रिपोर्ट पर सवाल उठाया गया था। उम्मीद करते हैं कि सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से इस कुम्भकर्णीय सरकार की आंखें खुलेंगी। पिछले दिनों केंद्र के कई मंत्रियों ने कैग की रिपोर्ट पर सवाल उठाए। उन्होंने कैग की रिपोर्ट आते ही उसे असंगत ठहराने में तनिक देर नहीं की। यहां तक की कैग पर राजनीतिक मंशा से प्रेरित होकर काम करने तक का आरोप लगा दिया और भी दुखद यह है कि खुद प्रधानमंत्री का रवैया इससे अलग नहीं था। यह सब इसलिए किया गया क्योंकि मनमाने आवंटनों से हुए नुकसान का जो आकलन कैग ने पेश किया वह सरकार और कांग्रेस के लिए एक बड़ी राजनीतिक परेशानी का सबब बन गया। कैग ने अपनी रिपोर्ट में साफ कहा और जिस पर वह अब भी कायम है कि मनमाने आवंटन से एक लाख 86 हजार करोड़ रुपए की हानि हुई है। कांग्रेस के वरिष्ठ मंत्री तो कैग पर हमला बोल ही रहे थे पर खुद प्रधानमंत्री ने भी इस संवैधानिक संस्था को गलत ठहराने की कोशिश की। कोयला खदान आवंटन मामले में कैग की रिपोर्ट प्रमाणिक है या नहीं, यह संसद की लोक लेखा समिति पर छोड़ देना चाहिए। जब कैग का गठन हुआ था, तब से राजस्व और सरकारी खर्चों का दायरा काफी बढ़ा है। यही नहीं, अनियमितता की शिकायतें भी बढ़ी हैं। ऐसे में यह देखना और भी जरूरी हो गया है कि सरकारी धन का उपयोग पारदर्शिता वित्तीय सूझबूझ और जनहित के तकाजों के हिसाब से हो रहा है या नहीं? यह भूमिका संविधान ने कैग को सौंपी है। समय की जरूरत तो कैग के अधिकारों को बढ़ाने की है। फिलहाल तो बेहतर यही होगा कि इस संवैधानिक संस्था के खिलाफ दुप्रचार करने से बाज आएं।

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