Published on 17 October, 2012
अनिल नरेन्द्र
जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा के दोनों ओर चीन और पाकिस्तान द्वारा न केवल पूर्व रजवाड़े का जनसंख्या का स्वरूप बदलने बल्कि इसके धार्मिक तथा सामाजिक-राजनीतिक आधार को भी बदलने की साजिश चिन्ता का विषय है। 80 के दशक में कश्मीर घाटी से हिन्दुओं को भागने के लिए मजबूर करने के बाद नियंत्रण रेखा के दोनों ओर के शियाओं को अब निशाना बनाया जा रहा है। इस साजिश के जरिए जमीनी लोकतांत्रिक व्यवस्था को खत्म करने की कोशिश की जा रही है। पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में शियाओं और भारत की ओर से कश्मीर में पंचायती राज को निशाना बनाया जा रहा है। अज्ञात बंदूकधारियों द्वारा सरपंचों और पंचों को इस्तीफा देने की धमकियों के चलते करीब एक दर्जन सरपंच मारे जा चुके हैं और करीब 500 ने अपने पदों से इस्तीफा देने की घोषणा कर दी है। दूसरी तरफ पाकिस्तान सेना शिया आबादी की बहुसंख्या को खत्म कर रही है। क्योंकि वे लोग कराकोरम हाइवे पर पड़ने वाले सामरिक महत्व के गिलगित-बालटिस्तान इलाके में इंजीनियरों और मजदूरों के भेष में चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के लोगों की मौजूदगी का विरोध कर रहे हैं। साल के शुरू से पड़ोस के खैबर पख्तूनख्वा से सुन्नियों को यहां लाकर बसाया जा रहा है, जो पश्चिमी जम्मू-कश्मीर के कई हिस्सों में सोची-समझी साजिश के रूप में शिया लोगों की हत्या कर रहे हैं। इधर भारत में एक मौन-प्रीत-क्रांति चल रही है। पिछले साल पंचायती राज चुनावों के जरिए स्थापित लोकतांत्रिक राज व्यवस्था को कमजोर करने के इरादे से लश्कर-ए-तैयबा और हरकतुल मुजाहिद्दीन से जुड़े पाक समर्थक आतंकवादी, प्रमुख सरपंचों को निशाना बना रहे हैं और पोस्टरों के जरिए पंचों को मस्जिदों में जुम्मे की नमाज के दौरान या अखबारों में बयानों के माध्यम से इस्तीफों की घोषणा करने की मांग कर रहे हैं। इस सब का मकसद लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को नुकसान पहुंचाना है जिसने राज्य में जड़ें जमा ली हैं और आतंकवादियों को जन प्रतिनिधियों के रूप में बहाल होने में मदद करना है। यह पाकिस्तान की उस साजिश का हिस्सा है जिसका मकसद कब्जे वाले कश्मीर में ट्रेनिंग प्रांत में आतंकवादियों को जन नेताओं के रूप में स्थापित करना है, भले ही आम चुनावों और पंचायती राज चुनावों में लोगों ने उन्हें नकार ही क्यों न दिया हो। चुनावों में इस राज्य के लोगों के भारी संख्या में भाग लेने से इस जमीनी हकीकत का अन्दाजा लगाया जा सकता है। किसी भी आतंकी समूह ने धमकियों और सरपंचों की हत्याओं की जिम्मेदारी नहीं ली है क्योंकि ऐसा करने से इस प्रकार के काम करवाने वालों की असलियत सामने आ जाती। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में लोगों की व्यापक भागीदारी इस बात से साफ जाहिर होती थी कि 2011 के चुनावों के अंतिम परिणामों के अनुसार जम्मू-कश्मीर घाटी और लद्दाख सहित पूरे जम्मू-कश्मीर में पंचायतों के लिए 40,000 से अधिक स्थानीय प्रतिनिधियों को चुना गया। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने इस साल दिसम्बर के अन्त तक ब्लॉक और जिला स्तरों पर दूसरे और तीसरे स्तर के चुनाव कराने का वादा किया है। सीमा पार बैठे आतंकियों के आकाओं को यह कतई मंजूर नहीं इसलिए वह नियंत्रण रेखा के दोनों ओर हर सम्भव रुकावट पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं।
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