Published on 4 May,
2013
अनिल नरेन्द्र
कांग्रेसी नेता सज्जन कुमार को
1984 के सिख दंगों के मामले में बरी किए जाने के खिलाफ गुस्सा लगातार बढ़ता जा रहा
है। बुधवार को प्रदर्शनकारियों ने दिल्ली की लाइफ लाइन मेट्रो के पहिए जाम कर दिए।
नाराज लोगों ने सड़कों पर उतरकर जोरदार प्रदर्शन किए। प्रदर्शनों का सिलसिला केवल दिल्ली
में ही नहीं देखने को मिल रहा, यह देश के कई अन्य भागों में भी जारी है। गुरुवार को
बड़ी संख्या में लोगों ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के आवास 10 जनपथ के बाहर जमकर
प्रदर्शन किया। गुस्साए लोगों ने बैरिकेडिंग तोड़ दी। कुछ लोग 10 जनपथ के मेन गेट तक
पहुंचने में कामयाब हो गए। दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के अध्यक्ष मंजीत सिंह
जीके ने कहा कि इंसाफ के लिए यह लड़ाई जारी रहेगी। कोर्ट, सड़क और संसद हर जगह पर विरोध
किया जाएगा। हम अपने सिख भाइयों का दर्द समझ सकते हैं। 29 साल बाद भी उनसे सही इंसाफ
नहीं हुआ। 84 के दंगों में मरने वालों की सही संख्या शायद ही पता चले। संसद में अटल
बिहारी वाजपेयी ने बताया था कि उनकी जानकारी के अनुसार 2733 सिख हिंसा के शिकार हुए।
इस पर सरकार ने कोई खंडन नहीं किया था। वास्तविक संख्या मरने वालों की लगभग 5033 है।
पुलिस ने हजारों लोगों को मिसिंग दिखाकर खानापूर्ति कर दी। तब से अब तक बस यही खानापूर्ति
ही हो रही है। बहरहाल बड़ा सवाल यह है कि आमतौर पर न्यायपालिका के फैसले को संदेह से
परे और शिरोधार्य मानने वाले भारतीय नागरिकों का एक बड़ा तबका इतने बड़े पैमाने पर
आक्रोशित क्यों है? क्यों उन्हें शिकायत है कि यह दरअसल न्यायिक नहीं बल्कि सरकारी दबाव में आया फैसला है। इसकी हमें
तो कुछ वजहें साफतौर पर नजर आ रही हैं। पहली, जांच एजेंसियों की कथित स्वायत्तता की
जो पोल कोयला आवंटन मामले में अभी सुप्रीम कोर्ट में खुली है, लोगों के मानस में इससे
उसे संदेह की पुष्टि होती है कि दिल्ली पुलिस और सीबीआई ने जांच के दौरान ऐसे सुराग
छोड़े हैं जिनसे हाई-प्रोफाइल आरोपियों को बच निकलने में आसानी हो। 16 साल बाद तो
2000 में नानावती आयोग की जांच में दिल्ली कैंट दंगे के मामले में सज्जन कुमार का नाम
पहली बार सामने आया और 2005 में यानी दंगों के 21 साल बाद आयोग की सिफारिश पर ही छह
अन्य आरोपियों सहित उनके खिलाफ मामला दर्ज हुआ। अब निचली अदालत का फैसला आते-आते ही
29 साल लग गए। जब जांच में ही इतने झाले हों कि मामला दर्ज होने में ही दो दशक से ज्यादा
का समय लग जाए तो जगदीश टाइटलर हो या सज्जन कुमार हो हर मामले में इस तरह के फैसले
से ज्यादा और उम्मीद क्या की जा सकती है? यह भी कहा जा सकता है कि जो जन आक्रोश इस
मुद्दे पर सड़कों पर दिखाई दे रहा है वह न्यायालय के प्रति इतना नहीं जितना जांच के
ढीले और पूर्वाग्रही तौर-तरीकों के खिलाफ है। सबसे बड़ा प्रश्न जवाबदेही का है। अकसर
2002 के गुजरात दंगों की बात होती है। 27 फरवरी 2002 को साबरमती एक्सप्रेस में जिन्दा
जलाए गए 59 कारसेवकों की प्रतिक्रिया स्वरूप दंगे हुए। दंगों में मरने वालों की संख्या
1267 थी। इनमें 790 मुस्लिम थे, 254 हिन्दू थे बाकी अन्य थे। इसमें 27901 गिरफ्तारियां
हुईं। इनमें 7656 मुस्लिम थे। बाकी बड़ी संख्या में हिन्दू थे। कुल 19 केस दर्ज हुए।
इन केसों में 184 हिन्दुओं, 65 मुस्लिमों को मिलाकर 249 को सजा हुई। संत्री से लेकर
मंत्री (माया कोडनानी) को सजा हुई। नरेन्द्र मोदी की सरकार व प्रशासन ने पूरी ईमानदारी
से जांच और अदालत से न्याय दिलवाने में मदद की। दूसरी ओर 84 के दंगों में गुजरात दंगों
से तीन से पांच गुना ज्यादा निर्दोष मारे गए और आज तक 29 साल बीतने के बाद भी न तो
एक संत्री को सजा हुई न किसी बड़े पुलिस अफसर को और एमपी, मंत्री की तो बात छोड़ो।
जहां तक मैं समझ सका हूं कि पीड़ित परिवारों को इतनी दिलचस्पी इसमें नहीं कि कौन-सा
नेता नपता है उन्हें जरूरत है जवाबदेही की। सरकार और प्रशासन ने कभी भी ईमानदारी से
84 दंगों की जांच सही तरीके से नहीं की। हर कोशिश मामले को दबाने की हुई। यह सिख संगत
जानती है कि अदालत का काम जांच करना नहीं होता। वह तो प्रस्तुत तथ्यों और साक्ष्यों
के आलोक पर अपना फैसला देती है। पीड़ितों के आक्रोश की दूसरी वजह समूचे न्याय तंत्र
की सुस्ती है। यदि निचली अदालत से फैसला आने में ही 29 वर्ष लग जाएं तो मामले को हाई
कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचने और अंतिम फैसला होने तक सम्भव है कि न तो इंसाफ मांगने
वाले बचें और न ही दंड के भागी लोग।
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