Saturday 11 May 2013

पिंजरे में बन्द सरकारी तोता सीबीआई




 Published on 11 May, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
बुधवार को दो बड़े फैसलों का दिन था। पहला कर्नाटक में जनता जनार्द्धन को देना था और दूसरा देश की शीर्ष अदालत सुप्रीम कोर्ट को। सुबह कर्नाटक  चुनाव परिणाम ने कांग्रेस को जहां खुशी प्रदान की और वह फूली नहीं समाई लेकिन दोपहर ढलते-ढलते सुप्रीम कोर्ट में उसकी उम्मीदों और आज का सूरज ढल गया। कोयला घोटाले की सुनवाई कर रही तीन सदस्यीय पीठ ने सीबीआई के साथ-साथ सरकार को जमकर लताड़ लगाई। कोर्ट ने बिना किसी  लाग-लपेट के कहा कि सरकार ने सीबीआई की जांच रिपोर्ट में इस हद तक छेड़छाड़ की है कि उसकी मूल आत्मा ही बदल गई। कोयला घोटाले की जांच रिपोर्ट में छेड़छाड़ करने के लिए अदालत ने जैसी लताड़ लगाई उससे उसकी रही-सही साख भी मिट्टी में मिल गई है। ऐसा इसलिए और भी हुआ है क्योंकि शीर्ष अदालत ने सीबीआई की जांच रिपोर्ट में हेरफेर करने के लिए कोयला मंत्रालय के साथ-साथ प्रधानमंत्री कार्यालय के संयुक्त सचिव को भी निशाने पर लिया है। सुप्रीम कोर्ट की तरह से देश को भी इस सवाल का जवाब चाहिए कि आखिर इन दोनों अधिकारियों को सीबीआई रिपोर्ट देखने की जरूरत क्यों पड़ी? चूंकि यह पहले से स्पष्ट है कि इन दोनों अधिकारियों ने यह जांच रिपोर्ट देखी ही नहीं बल्कि उसे बदला भी, इसलिए शीर्ष अदालत का सवाल और गम्भीर हो जाता है। निसंदेह सबसे गम्भीर और शर्मनाक यह है कि प्रधानमंत्री का एक अफसर भी जांच रिपोर्ट में इस हद तक बदलवाने का आरोपी है कि उसकी मूल आत्मा ही बदल गई। आखिर कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाली केंद्रीय सत्ता अपने ऐसे प्रधानमंत्री का बचाव कैसे कर सकती है जिसके अफसर ने चुपके से जांच रिपोर्ट बदलवाई? सर्वोच्च अदालत के ताजा आंकलन में सच्चाई है कि सीबीआई की मौजूदा स्थिति पिंजरे में कैद तोते की तरह है। राजनीतिकों से जुड़ी उसकी जांच रिपोर्ट सत्ता प्रमुखों की रटी-रटाई लाइन पर होती है। कोयला खदान आवंटन घोटाले पर उसकी स्थिति रिपोर्ट के अनेक स्तरों पर कराए गए बदलावों में भी यही बात लागू है। इसलिए अदालत ने सीबीआई की फिर हदबन्दी करते हुए निर्देशित किया है, उसे नाक की सीध में चलते हुए किसी के दबाव में आए बिना मामले की गहराई तक जाना है। इसी के लिए उसका गठन किया गया है। एक तरह से सीबीआई को उसके अधिकार और पवित्र कृत्यों को याद दिलाना है। यह राष्ट्रीय शर्म का विषय है कि हमारे देश का कानून मंत्री तो गैर-कानूनी काम करता ही है, प्रधानमंत्री भी परोक्ष रूप से उसका साथ देता है। इतना ही नहीं, उनके कानूनी अफसर शीर्ष अदालत में झूठ बोलते हैं। आखिर ऐसी सरकार अपना सिर ऊंचा उठाकर कैसे चल सकती है जिसके तमाम अधिकारी एक तरह से चोरी करते हुए रंगे हाथ पकड़े गए हों? यह बेशर्मी और ढिठाई की पराकाष्ठा है कि कांग्रेस और केंद्रीय सत्ता अभी भी गलती मानना तो दूर रहा, खुद को सही साबित करने के लिए किस्म-किस्म के तर्प गढ़ रही है। क्या कर्नाटक में जीत की खुशी लोकसभा और नैतिकता की अनदेखी करने का भी मौका दे रही है? क्या इसी कारण संसद को भी असमय अनिश्चितकाल के लिए स्थगित किया गया है?

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