Published on 10 May,
2013
अनिल नरेन्द्र
सात साल के वनवास के बाद अपने पुराने दक्षिणी दुर्ग
में कांग्रेस की वापसी हो गई है। राष्ट्रीय स्तर पर घोटालों के आरोपों से घिरी कांग्रेस
ने 224 सदस्यीय विधानसभा के चुनाव में शानदार प्रदर्शन करते हुए 121 सीटों पर जीत हासिल
कर ली जो कि बहुमत के आंकड़े 112 से आठ ज्यादा
हैं। वहीं स्थानीय स्तर पर भ्रष्टाचार के मुद्दों से घिरी और अपने पांच साल के कार्यकाल
में तीन मुख्यमंत्री बदलने वाली भाजपा को मात्र 40 सीटों पर जीत नसीब हुई। पिछले
2008 के चुनाव में पार्टी को 110 सीटें मिली थीं। इसी तरह जद (एस) के प्रदर्शन में
खास सुधार नहीं दिखा और उसे 40 सीटें मिलीं। गत चुनाव में उसे 28 सीटें मिली थीं। उधर
पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा की पार्टी केजेपी को कुल 6 सीटें ही मिलीं पर उसकी
उपलब्धि यह जरूर रही कि उसने कर्नाटक को दक्षिण का प्रवेश द्वार मानने वाली भाजपा का
बंटाढार कराने में कोई कमी नहीं छोड़ी। हमारी राय में कांग्रेस जीती नहीं बल्कि भाजपा
हारी है। दक्षिण भारत का भाजपा का एकमात्र किला अगर ढह गया है तो इसमें उसकी अपनी कारगुजारी
ही जिम्मेदार है। शुचिता और सुशासन का राग अलापने वाली भाजपा की कर्नाटक सरकार भ्रष्टाचार
और कुशासन का पर्याय हो गई थी। कर्नाटक चुनाव के नतीजों को देखने के बाद लोकतंत्र में
आस्था बढ़ना स्वाभाविक ही है। इसके पीछे कहीं से बीजेपी की करारी हार या चौदह वर्षों
बाद कांग्रेस की पूर्ण बहुमत से वापसी की घटना जिम्मेदार नहीं है। कर्नाटक ने इस चुनाव
में यकीनी तौर पर भ्रष्टाचार, कुशासन, अस्थिरता और भाई-भतीजावाद के साथ धन बल-बाहुबल
के पंचक पर निर्णायक वार किया है। जेहनी तौर पर वोटर अपने लक्ष्य के प्रति इतने स्पष्ट
रहे कि लिंगायत-वोकालिंगा जैसे जाति समीकरण भी नतीजे के रुख बदलने में असफल रहे। गद्दी
सम्भालने और जश्न मनाती कांग्रेस पार्टी को अपनी ताकत की गलतफहमी में इतराने की जगह
इन नतीजों को गम्भीरता से समझ लेना चाहिए। अगर वह राज्य में चुस्त प्रशासन और इंफ्रास्ट्रक्चर
के विकास के साथ रोजगार के अवसर बढ़ने में कोताही बरतेगी तो उसका हश्र दिल्ली के राजमार्ग
की यात्रा नहीं बल्कि बीजेपी या जेडीएस की तरह गुमनामी की खाई में खत्म होगी। कर्नाटक
के नतीजों ने फिर साबित कर दिया कि भ्रष्ट सरकारें चाहें किसी भी पार्टी की हों लोग
उन्हें उखाड़ने से गुरेज नहीं करते। हिमाचल में धूमल, उत्तराखंड में निशंक व खंडूरी
और उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार को उखाड़कर मतदाताओं ने जागरुकता का प्रमाण दिया
है। कर्नाटक के नतीजों ने इन तीनों राज्यों की तरह विकल्प के रूप में जो सरकार चुनी
है उसे साफ बहुमत दिया है यानी गठबंधन की सरकारों के दिन केंद्र में अभी भले ही लदते
नजर न आ रहे हों पर राज्यों से तो उनकी अतिश्री हो चुकी है। भाजपा इन चुनाव परिणाम
को उपेक्षित मानकर चल रही थी। पार्टी नेतृत्व ने चुनाव घोषणा के साथ ही यह मान लिया
कि यहां भाजपा आईसीयू में जा चुकी है। भाजपा में ऐसे विचार रखने वालों की कमी नहीं
जो अब यह कहते हैं कि यदि येदियुरप्पा को पार्टी से न हटाते तो शायद यह दिन न देखने
पड़ते। लेकिन पार्टी के शीर्षस्थ नेता लाल कृष्ण आडवाणी के निर्देश पर सत्ता की परवाह
नहीं की गई, ईमानदारी और नैतिक मूल्यों की परवाह की गई। इनका अब कहना है कि कर्नाटक
में कांग्रेस की यह जीत वोटों के बंटवारे की जीत है। देशभर में कांग्रेस का सफाया तय
है। इस चुनाव के नतीजों के बाद कांग्रेस बेहद उत्साहित है। उसके नेता यह मानकर चल रहे
हैं कि इस जीत ने पार्टी को उस पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों से क्लीन चिट दे दी है।
उनका यह सोचना बहुत बड़ा भ्रम है। इसके कई कारण हैं। अगर हम पिछले चुनाव नतीजों पर
नजर डालें तो पता चलता है कि लोकसभा चुनाव में उत्तर भारत व दक्षिण भारत का मतदान पैटर्न
अलग-अलग रहा। आपातकाल के दौरान जब पूरे देश में कांग्रेस विरोधी लहर चल रही थी तब भी
दक्षिण भारत ने उसका साथ दिया था। जब बोफोर्स मुद्दे पर वीपी सिंह ने कांग्रेस विरोधी
अभियान छेड़ा था तब भी दक्षिण भारत इस दल के साथ खड़ा नजर आया था। इसलिए दक्षिण भारत
के एक राज्य के नतीजों को अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव नतीजों की बानगी मानना शायद
सही न हो। इस चुनाव को नरेन्द्र मोदी और राहुल
गांधी की परीक्षा के तौर पर कुछ लोग देख रहे थे। मोदी भाजपा को डूबने से नहीं बचा सके
तो यह भी सही है कि कांग्रेस राहुल के असर से नहीं जीती। राज्य के लोगों ने इस बार
नैगेटिव वोटिंग की है, उन्हें भाजपा को हटाना था और उन्हें स्थाई विकल्प के रूप में
कांग्रेस नजर आई। केंद्र में घोटालों से घिरी कुशासन का प्रतीक बनी यूपीए सरकार को
बेशक इन परिणामों से थोड़ी राहत मिली होगी
पर कर्नाटक का जनादेश केंद्र सरकार के लिए अपने किए कारनामों पर पानी फेरने का काम
नहीं कर सकता।
No comments:
Post a Comment