Published on 22 May,
2013
अनिल नरेन्द्र
चीन के नए प्रधानमंत्री ली केकियांग पहली बार
विदेश के दौरे पर निकले हैं और इसका आरम्भ उन्होंने भारत से किया है। खास बात है
कि चीनी प्रधानमंत्री वर्तमान यात्रा को 27 वर्ष पूर्व की उस याद से जोड़ते दिखते
हैं जब वह अपने देश के एक युवा प्रतिनिधिमंडल की अगुवाई करते यहां आए थे। अमर
प्रेम की गाथा सुनाने वाला ताजमहल आज भी उन्हें भावनाओं में बहा रहा है। लगता है
कि चीन के प्रधानमंत्री ली केकियांग महज भारत की नब्ज टटोलने के इरादे से यहां आए
हैं। ली की यात्रा को उनका देश ऐसे प्रचारित कर रहा था मानो वह रिश्तों का नया
आयाम रचने की तैयारी में हैं। लेकिन जब दोनों प्रधानमंत्री दुनिया के सामने बातचीत
का ब्यौरा लेकर आए तो इनमें सपाट बयानबाजी से अधिक कुछ नजर नहीं आया। बेशक चन्द
समझौतों पर हस्ताक्षर हुए और दुनिया की दो सबसे बड़ी आबादियों को नेतृत्व देने
वाले दोनों राजनेताओं ने शांति और सद्भाव के रास्ते विकास के वादे भी दोहराए।
लेकिन इस अत्यंत महत्वपूर्ण मुलाकात का लम्बित विवादों के सन्दर्भ में नतीजा क्या
रहा? चीनी प्रधानमंत्री ली केकियांग और भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बीच
हुई शिखर वार्ता बेहद महत्वपूर्ण जरूर है क्योंकि एक ने अपने कार्यकाल के शुरुआत
में इस शिखर वार्ता में हिस्सा लिया जबकि दूसरे ने अपने कार्यकाल की समाप्ति पर।
दोनों पक्ष दिल पर हाथ रखकर भले ही दावा कर रहे हैं कि वार्ता का दौर `ऑल इज वेल'
रहा है किन्तु सच तो यह है कि भारत के लिए यह वार्ता कितनी वेल रही, यह तथ्य एक
बहुत बड़े सवाल के घेरे में है। यह सच है कि दोनों देशों के बीच आठ समझौतों पर
हस्ताक्षर हुए और दावा किया गया कि शीर्ष वार्ता सफल रही किन्तु भारत ने इस वार्ता
के दौरान न तो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के सन्दर्भ में
चीन का पक्ष जानने की कोशिश की और न ही भारतीय परमाणु विकास के सन्दर्भ में कोई
आश्वासन। यही नहीं, भारतीय पक्ष ने इस शिखर वार्ता में चीनी पक्ष के सामने इस
चिन्ता का इजहार भी नहीं किया कि वह पाकिस्तान को जो परमाणु और सैन्य सहायता दे
रहा है उसका सीधा प्रहार भारत के खिलाफ ही करेगा, इसलिए पाकिस्तान को सैन्य सहायता
तो समझ में आती है पर परमाणु रिएक्टर बनाने में मदद आजाद कश्मीर में चीनी सैनिकों
की गतिविधियों पर एक शब्द न कहना हमारी समझ से तो बाहर है। इस अत्यंत महत्वपूर्ण मुलाकात
का लम्बित विवादों के सन्दर्भ में नतीजा आखिर क्या रहा? क्या हम चीन को सहमत कर
पाए कि सीमा विवाद को समयसीमा में बांधते हुए इसका स्थायी समाधान निकालने की
गम्भीर पहल की जाए? क्या हमारे पड़ोसी को घुसैपठ की गलती समझ में आई? प्रधानमंत्री
मनमोहन सिंह ने तो जरूर कहा कि इस घटना से दोनों देशों ने सबक लिया है और
पुनरावृत्ति न हो इसके लिए विशेष प्रतिनिधि स्तरीय वार्ता पर सहमति बनी है। लेकिन
ऐसी सहमति तो पहले भी बनी थी और समाधान के
तरीके भी निकाल लिए गए थे। फिर वे क्यों फेल हो गए और नया तरीका सफल रहेगा इसकी
क्या गारंटी है? हर बार की तरह इस बार भी चीन की तरफ से सीमा विवाद को ऐसी
ऐतिहासिक समस्या बता दिया गया जिसका हल निकालना मानो किसी तिलस्मी किले को फतह
करना जैसा पेचीदा है। मामला सिर्प सीमा का ही नहीं है। चीन ब्रह्मपुत्र नदी को
बांध कर भारत के बड़े हिस्से में तबाही का इंतजाम कर रहा है। भारत बार-बार चीन से
अपनी चिन्ता के निराकरण की मांग करता रहा है पर चीन अपने इरादों पर अडिग है। एक और
अन्य गम्भीर मामला है सीमा पर चीन की रक्षा तैयारियों का। चीन डेढ़ दशक से सीमा पर
सड़कें, रेलमार्ग और एयरपोर्ट के जाल बिछा रहा है। अपने सैनिकों और भारी हथियारों
को वह पलक झपकते हमारी सीमा तक पहुंचा सकता है। जब हमने जवाबी तैयारी शुरू की है
तब वह आंखें तरेर रहा है। इस संवेदनशील मसले पर भी हमें चीन से प्रत्युत्तर की आशा
थी, जो निराशा में बदल गई। जहां तक चीनी प्रधानमंत्री का सवाल है, उन्होंने बड़ी
ही कुशलता से दोनों देशों के बीच समस्याओं का उल्लेख वार्ता के दौरान किया। सीमा
विवाद, संवाद, एक-दूसरे से लगातार सम्पर्प एवं सलाह पर तो जोर दिया परन्तु चीनी
पक्ष ने अपनी तरफ से कुछ भी नहीं छोड़ा और भारतीय पक्ष फिसड्डी की तरह चीन के साथ
`यस नो वेरी गुड' में लीन रहा। यानि वही परम्परागत समस्याएं जिसे लेकर भारत चीन के साथ जूझ रहा है वहीं की
वहीं रहीं। भारत के चीन में गिरफ्तार दो हीरा व्यापारियों का मुद्दा उठाया तक नहीं
गया। भारतीय निर्यातक चीन की धरती पर कदम रखने से घबराते हैं क्योंकि एक तरफ तो
चीन दुनिया की सबसे बड़ी फैक्टरी यानि उत्पादक देश बनने के लिए लालायित है जबकि
दूसरी तरफ अपने राष्ट्रीय कानूनों को कठोर बनाए रखा है। इतना ही नहीं, चीन एक तरफ
तो दावा करता है कि यदि भारत और चीन एक साथ मिल जाएं तो वे दुनिया की 30 प्रतिशत
आबादी को प्रभावित कर सकते हैं किन्तु उसका विरोधाभास यह है कि अपने देश में उसने
जिन भारतीय उत्पादों पर प्रतिबंध लगा रखा है उसमें रत्तीभर छूट देने के लिए तैयार
नहीं है। अपनी तरफ से चीनी प्रधानमंत्री ने बड़ी कूटनीतिक चतुराई से असल मुद्दों
को टाल दिया। हमें उम्मीद थी कि चीन का नया नेतृत्व भारत से रिश्ते सुधारने में
साहसिक फैसला लेगा और हमारे जायज हितों के प्रति गम्भीर दिखेगा। तब क्या केवल चीन
के आर्थिक हित ली की इस यात्रा के सबब हैं। चीन की आर्थिक रफ्तार में मंदी के
संकेत दिखने लगे हैं और वह शिद्दत से बड़े बाजारों की तलाश में है। वह जोर-शोर से
भारत की सम्भावनाओं को टटोल रहा है और हमारा दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार
बनने में सफल भी रहा है लेकिन पिछले साल की तुलना में यह भागीदारी भी झटके खा रही
है क्योंकि इसमें भी मलाई तो चीन के हिस्से जा रही है और भारत भारी घाटा उठाने को
मजबूर है। लब्बोलुआब यह है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद अपनी पहली विदेश यात्रा
भारत से शुरू करके केकियांग ने नई दिल्ली को स्पष्ट संदेश भी दिया है कि संबंधों
में सुधार के साथ-साथ दक्षिण एशिया में चीनी हितों को भारत किसी भी प्रकार
प्रभावित करने की कोशिश न करे। बहरहाल अपना तो मानना है कि चीन के लिए यह शिखर
वार्ता भारतीय पक्ष की अपेक्षा ज्यादा सफल रही।
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