Published on 2 May,
2013
अनिल नरेन्द्र
कोयला घोटाले की जांच को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार
को मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार को और देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी सीबीआई को ऐसी फटकार
लगाई जो आज तक किसी भी अन्य केंद्र सरकार को नहीं लगाई होगी। सरकार के साथ जांच की
रिपोर्ट साझा किए जाने के मामले में कड़ी टिप्पणी करते हुए सीबीआई को हिदायत दी कि
उसे अपनी जांच पर राजनीतिक आकाओं से निर्देश हासिल करने की जरूरत नहीं है। शायद ही
किसी को यह गलतफहमी हो कि सीबीआई स्वतंत्र रूप से काम करती है। यह आम धारणा रही है
कि जो पार्टी केंद्र की सत्ता में होती है, वह देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी का बेजा
इस्तेमाल करने से बाज नहीं आती। सत्ताधारी पार्टियों पर राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों
को घेरने और अपनों को बचाने के लिए सीबीआई का इस्तेमाल करने के आरोप आए दिन लगते ही
रहते हैं। लेकिन कोयला घोटाले की जांच में सीबीआई पर सरकार ने किस हद तक जाकर दबाव
डाला, उसे दुस्साहस ही कहा जा सकता है। सर्वोच्च अदालत ने सीबीआई को यह स्पष्ट निर्देश
दे रखा था कि जांच की स्थिति रिपोर्ट सरकार से साझा न की जाए। इसके बावजूद सीबीआई ने
भारत सरकार के कानून मंत्री व पीएमओ को न केवल रिपोर्ट दिखाई बल्कि उसमें काट-छांट
करने की भी इजाजत दी। यह सब तब जबकि 12 मार्च की सुनवाई में ही सीबीआई ने सरकार को
रिपोर्ट न दिखाने का दावा किया था। यह आश्वासन देने से पहले ही वह कानून मंत्री और
पीएमओ अधिकारियों की इच्छा जताने पर जांच प्रगति रिपोर्ट साझा कर चुकी थी। यह न्यायपालिका
की अवज्ञा करने, उसे गुमराह करने और उसके साथ विश्वासघात करने की गुस्ताखी है। इस पूरे
प्रकरण से भारतीय शासन प्रणाली की भी बदनामी हुई है। अब दुनिया को भारत पर और अधिक
खुलकर हंसने का मौका मिला होगा। दुनिया को यह मौका केंद्र सरकार की छल-फरेब के कारण
ही मिला है। यह सरकार किस्म-किस्म के कुतर्प गढ़कर और ढिठाई का परिचय देते हुए सत्ता
में बनी रह सकती है, लेकिन वह जनता का आदर
व भरोसा नहीं हासिल कर सकती। उसकी कलई खुल गई है और वह पूरी तरह बेनकाब हो गई है। हालांकि
सुप्रीम कोर्ट को अभी इस मामले में अंतिम निर्णय तक पहुंचना है, लेकिन यह स्पष्ट हो
चुका है कि अब सरकार के पास अपने बचाव में कहने के लिए कुछ भी नहीं रह गया है। उसने
खुद की कारस्तानी से अपने साथ-साथ समूचे देश को शर्मसार किया है। सवाल सीबीआई निदेशक
समेत उन लोगों की जवाबदेही का भी है जिनसे रिपोर्ट साझा की गई। आखिर कानून मंत्री और
कोयला मंत्रालय, प्रधानमंत्री कार्यालय के संयुक्त सचिवों को वह रिपोर्ट देखने की इतनी
बेचैनी क्यों थी? क्या इसलिए कि उन्हें भय था कि सीबीआई की जांच रिपोर्ट सरकार के लिए
परेशानी का सबब बन सकती है? पर दखलअंदाजी से तो सरकार की उल्टी मुसीबत और फजीहत बढ़
गई है। देश के साथ दुनिया को यह संदेश जा चुका है कि केंद्र सरकार ने पूरी ताकत इसमें
लगा दी कि कोयला घोटाले का सच सामने न आने पाए। अब कोई भी यकीन नहीं करने वाला कि यह
सरकार इस घोटाले की तय में जाने का कोई इरादा रखती है। देश-दुनिया को यह भी अच्छी तरह
पता चल गया है कि भारत में किसी बड़े घपले-घोटाले की जांच सही तरह से क्यों नहीं हो
पाती? सुप्रीम कोर्ट ने तो यह पकड़ ही लिया कि सरकार और उसकी पूरी मशीनरी किस तरह सीबीआई
का गला दबाने में लगी हुई थी। रही-सही कसर सीबीआई के निदेशक ने यह कहकर पूरी कर दी
कि हम कोई स्वायत्त जांच एजेंसी नहीं बल्कि सरकार का अंग हैं। जब स्वयं सीबीआई निदेशक
यह कह रहे हैं कि वह सरकार का अंग हैं तब फिर इस दुप्रचार के लिए कोई गुंजाइश नहीं
रह जाती कि यह जांच एजेंसी स्वतंत्र और स्वायत्त है। अतिरिक्त महान्यायवादी हरेन रावल
ने हाई-फाई मामलों की जांच रिपोर्टों में सॉलिसिटर जनरल जीई वहनावती के न्यायिक अधिकारों
के कामों को अनुचित दखल का हवाला दिया है। इसकी पुन पुष्टि हो गई है। इस भयावह परिस्थिति
में सर्वोच्च न्यायालय का सीबीआई को सियासी दखल से स्वाधीन और स्वायत्त बनाने के नतीजे
पर पहुंचना लाजिमी है। यह काम अपरिहार्य है और कब से लम्बित पड़ा है। तत्कालीन मुख्य
न्यायाधीश स्वर्गीय जेएस वर्मा ने 1997 में जैन हवाला कांड पर अपने फैसले में इसकी
आवश्यकता को रेखांकित किया था। मगर उनके सुझाए दो दर्जन सुझावों पर अमल किया जाता तो
आज आपके पास एक तनी हुई विश्वसनीय, निष्पक्ष व निर्भीक और स्वायत्त जांच एजेंसी होती।
जन लोकपाल आंदोलन के समय भी सीबीआई को स्वायत्त किए जाने की मांग उठाई गई थी लेकिन
सरकार ने उसे ठुकरा दिया था। अब न्यायालय का सतत हस्तक्षेप ही सरकार से सीबीआई को मुक्ति
दिला सकता है। नैसर्गिक न्याय में भरोसे और उसकी हिफाजत की खातिर यह ऐतिहासिक व्यवस्था
हो ही जानी चाहिए। यह अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने यह तय किया कि इस जांच एजेंसी
को सरकार के चंगुल से बाहर निकालने की जरूरत है। कोयला घोटाले की जांच में सीबीआई और
सरकार के झूठ का पर्दाफाश हो जाने के बाद एडिशनल सॉलिसिटर जनरल का इस्तीफा सामने आ
गया है। यह सम्भव है कि आने वाले दिनों में कानून मंत्री अश्वनी कुमार की बलि दी जाए
लेकिन केवल इतने से बात बनने वाली नहीं है, क्योंकि खुद प्रधानमंत्री कार्यालय भी लपेट
में आ गया है और इसके लिए प्रधानमंत्री के अतिरिक्त और कोई जिम्मेदार नहीं हो सकता।
केंद्र सरकार की जैसी फजीहत हो रही है उसके लिए प्रधानमंत्री अन्य किसी को दोषी नहीं
ठहरा सकते। अब उनके पास एक भी तर्प नहीं जिससे वह इस शर्मनाक स्थिति के लिए किसी और
को जिम्मेदार ठहरा सकें।
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