Published on 5 May,
2013
अनिल नरेन्द्र
लाहौर की कोट लखपत जेल में
आईएसआई द्वारा रची गई हत्या का अभागा शिकार सरबजीत सिंह को आखिरकार वतन की मिट्टी
नसीब हुई। जिन्दा तो वह नहीं लौट सका पर
ताबूत में जरूर लौट सका। सरबजीत को पाकिस्तान ने यातनाएं देकर बाकायदा एक योजना के
तहत मारा। भारत में सरबजीत के हुए दोबारा पोस्टमार्टम रिपोर्ट से साफ पता चलता है
कि हत्यारों का इरादा सरबजीत को मौत के घाट ही उतारना था। अमृतसर के निकट पट्टी
अस्पताल में अमृतसर मेडिकल कालेज के छह डाक्टरों की टीम ने सरबजीत का पोस्टमार्टम
किया। पोस्टमार्टम से खुलासा हुआ है कि उसके शरीर में किडनी और दिल नहीं है।
डाक्टरों का अनुमान है कि पाकिस्तान में
पोस्टमार्टम के समय सरबजीत के शरीर से किडनी और दिल निकाल लिए गए होंगे। सूत्रों
के अनुसार खबर यह भी है कि सरबजीत पर हमला 26 तारीख को नहीं बल्कि 20 दिन पहले
किया गया था। सरबजीत के शरीर पर कई जख्म हैं जो यह संकेत करते हैं कि जेल में उस
पर हमला करने वाले लोग निश्चित रूप से दो से अधिक थे। एक डाक्टर ने कहा कि सरबजीत
के शरीर पर जैसा जख्म है उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि एक अकेला व्यक्ति
उसके जैसे हट्टे-कट्टे व्यक्ति को इतना नुकसान नहीं पहुंच सकता। निश्चित तौर पर
ज्यादा लोगों ने उस पर हमला किया। डाक्टरों ने बताया कि सरबजीत के शरीर के जख्म
छह-सात दिन पुराने थे। सरबजीत की खोपड़ी दो हिस्से से टूटी हुई थी, उसके जबड़े की
हड्डियां टूटी हुई थीं। सरबजीत की पांच पसलियां टूटी हुई थीं। कराची केंद्रीय कारागार
में वर्ष 1986-87 के बीच पाक राष्ट्रपति जरदारी के साथ जेल में रहे पूर्व भारतीय
जासूस मेहबूब इलाही ने सरबजीत पर हुए हमले को आईएसआई की साजिश करार दिया है। उनका
कहना है कि इसमें जेल अधिकारियों की भी मिलीभगत रही है। हालांकि हमला दूसरे लोगों
ने किया, लेकिन दो कैदियों को बलि का बकरा बनाया गया है। इलाही ने दावा किया कि
वर्ष 1977 में जेल और आईएसआई अधिकारियों ने उन्हें इस बात की पूरी छूट दी थी कि एक
पाक नेता की हत्या कर दी जाए, जो उस समय लाहौर कोट लखपत जेल में था, अन्य कैदियों
द्वारा सरबजीत पर हमला असम्भव है। मैं खुद भी पाक जेल में 20 साल रह चुका हूं। मैं
अच्छी तरह से जानता हूं कि पाकिस्तानी कैदी भारतीय या बंगलादेशी कैदियों पर कभी
हमला नहीं करते हैं। वह अलग सेल में रखे जाते हैं। रिहाई की आस में दो दशक से
ज्यादा समय तक पाकिस्तानी जेल में बन्द रहे सरबजीत की कहानी तो खत्म हो गई। उन पर
जो बीती तो उनकी जुबानी नहीं सुन सकते, बस महसूस ही कर सकते हैं। मगर कारगिल की
लड़ाई के बाद पाक जेल में पांच साल तक कैद रहे भारतीय सैनिक आरिफ की आप-बीती सुनकर
रौंगटे खड़े हो जाते हैं। मेरठ के गांव मुंडाली का रहने वाला आरिफ फिलहाल पुणे में
तैनात है। आरिफ पर गुजरी प्रताड़ना के बारे में उसके भाई हामिद ने बताया कि
पाकिस्तानी जेल में सबसे आखिर में भारतीय कैदियों को खाना दिया जाता है। दाल का
पानी और चावल में कंकर। कुछ कहने पर गालियां और पिटाई। कुछ कहने से बेहतर था कि
भूखे सो जाओ। बीमार हो गए तो हो गए, दवा नहीं मिलेगी। पाक कैदी उसकी चादर छीन लेते
थे तो कभी उसके कमरे की बत्ती गुल कर देते थे। कारगिल युद्ध के दौरान कश्मीर के
द्रास सेक्टर से आरिफ पाक सीमा में चला गया था और पाक सैनिकों ने उसे जेल में डाल
दिया था। सरबजीत सिंह का ऐसा अकेला केस नहीं जब पाकिस्तानियों ने अपनी बर्बरता और
अस्वीकार्य व्यवहार किया हो। कारगिल की लड़ाई के दौरान कैप्टन सौरभ कालिया को पाक
फौजों ने 15 मई 1999 को पांच जवानों के साथ काकसर सेक्टर में बंदी बना लिया। 22
दिनों तक पाक फौजियों ने उन्हें घोर यातनाएं दीं। आंखें निकल ली गई थीं और निजी
अंगों को भी काट दिया था। 8 जनवरी 2013 को पाक सेना की बार्डर एक्शन टीम ने
नियंत्रण रेखा का उल्लंघन किया। घने कोहरे का फायदा उठाकर पाक सेना के जवान भारतीय
सीमा में 600 मीटर तक घुस आए। पाक सैनिकों ने नियंत्रण रेखा पर तैनात भारतीय सेना
पर फायरिंग की। इसमें सेना के जवान शहीद हो गए। पाकिस्तानी सैनिकों ने बर्बरता
दिखाते हुए दोनों भारतीय सैनिकों लांस नाइक हेमराज और सुधाकर सिंह के शवों को
क्षत-विक्षत कर दिया। हेमराज का सिर काटकर पाकिस्तानी फौजी अपने साथ ले गए। चमेल
सिंह को 15 जनवरी 2013 में कोट लखपत जेल में जेल स्टाफ ने नल से पानी भरने पर इतना
मारा कि दो दिन बाद इसी जिन्ना अस्पताल
में जिसमें सरबजीत को लाया गया था, लाया गया जहां चमेल सिंह की मौत हो गई। चमेल
सिंह को जुलाई 2008 में जासूसी के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। सरबजीत कौन थे,
इस पर कई तरह की अफवाहें फैलाई जा रही हैं। प्रस्तुत है पाकिस्तान की कोट लखपत जेल
से लिखे गए खत में सरबजीत सिंह ने बयां की थी अपनी बेगुनाही। पूरी दुनिया को पता
है कि मैं सरबजीत सिंह पंजाब (भारत) का रहने वाला हूं और आज पाकिस्तान के शहर
लाहौर की कोट लखपत जेल में दिन गुजार रहा
हूं। मेरा मकसद पाठकों को यह बताना है कि मैं मंजीत सिंह नहीं सरबजीत सिंह हूं।
मैं गलती से 29-30 अगस्त की रात पाक सीमा में दाखिल हो गया था। मुझे मंजीत सिंह
बनाकर पेश कर दिया गया। अदालत ने इस बात पर कतई गौर नहीं किया कि मुल्जिम को सफाई
का मौका दिया जाए और लाहौर धमाके के मामले में मुझे सजा-ए-मौत का फैसला दे दिया।
जिस दिन मुझे पकड़ा गया उसी दिन मुझे एफआईयू के हवाले कर दिया गया। इस संस्था का
काम भोले-भाले भारतीयों को गुमराह करना और भारतीय पंजाब में आतंकवाद फैलाना है।
मुझे उम्मीद थी कि गलती से सीमा का उल्लंघन कर चुका हूं सो जल्द ही रिहा हो
जाऊंगा, लेकिन किस्मत में कुछ और ही लिखा था। जब एक जुलाई 1991 को मैं कोर्ट में
पेश हुआ तो मैंने जज से कहा कि मैं मंजीत सिंह नहीं हूं। मेरा नाम सरबजीत सिंह है।
जज ने मुझे यह कहकर टाल दिया कि मैं पूरा इंसाफ करूंगा। लेकिन हर तारीख में पुलिस
ने गवाहों के तौर पर अपने मुखबिरों को पेश किया। कई गवाहों ने तो यह कह दिया कि
हमें पुलिस मजबूर कर रही है कि तुम गवाही दो। लाहौर धमाके के घायलों ने भी साफ कहा
है कि हमें नहीं पता कि कौन धमाका कर रहा है। जेल में कुछ पत्र सरबजीत ने दूसरे
लोगों को भी लिखे थे जिससे उसकी बेगुनाही व अन्याय का पता चलता है। सरबजीत ने यह
पत्र अपनी बहन, वकील, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी
को भी लिखे थे। सरबजीत ने एक पत्र प्रधानमंत्री को भी लिखा था जिसमें रिहाई के लिए
पाक सरकार पर दबाव बनाने का आग्रह किया था। केस की सुनवाई के दौरान गवाहों की न तो
कोई पहचान परेड कराई गई थी और न ही सरबजीत के पास से कोई बरामदगी हुई थी। यह पत्र
जिसका मैंने जिक्र किया है वह उनके वकील औवेश शेख की पुस्तक सरबजीत सिंह की अजीब
दास्तान से पेश है। सरबजीत तो चला गया। भारत सरकार को इतना तो अब कर ही देना चाहिए
कि वह सार्वजनिक तौर पर घोषणा करे कि सरबजीत सिंह भारतीय खुफिया एजेंट नहीं था।
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