Friday, 30 November 2012

और अंतत सरकार को विपक्ष के आगे झुकना ही पड़ा


 Published on 30 November, 2012
 अनिल नरेन्द्र
यूपीए के सिपहसालारों ने विपक्षी एकता तोड़ने के बहुत से प्रयास किए पर एफडीआई एक ऐसा मुद्दा साबित हुआ कि अंतत मनमोहन सरकार को झुकना पड़ा। विपक्षी एकता, दृढ़ता रंग लाई। लगातार चार दिनों तक संसद की कार्यवाही ठप करने वाले भाजपा और वामदल के अड़ियल रुख के आगे सरकार को झुकना पड़ा। मंगलवार को सहयोगी दलों की बैठक में एका से संतुष्ट हो जाने के बाद कांग्रेस नीत यूपीए सरकार ने खुदरा व्यापार में 57 प्रतिशत विदेशी निवेश को मंजूरी देने के फैसले पर बहस के साथ मतदान कराने का फैसला लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति पर छोड़ दिया। सरकार नियम-184 के तहत (लोकसभा) और नियम-167 के तहत (राज्यसभा) बहस को तभी तैयार हुई जब उसको ऐसा लगा कि वोटिंग में उसके पास पर्याप्त संख्या बल हो गया है। द्रमुक पार्टी अपनी कड़वाहट रखते हुए भी उसे गिरने से रोकने आ गई, जबकि ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस वोटिंग पर जोर नहीं देने पर मान गई। यही ममता एफडीआई समेत कई मसलों पर सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाई थीं। सपा और बसपा को अंतत सरकार के साथ रहना ही था, भले ही वह कितने भी नाटक कर लें। इसलिए प्रधानमंत्री के हमारे पास नम्बर हैं कहने में यही गणित बोल रहा है। अब सरकार इत्मीनान में आ गई है पर सरकार को गिराने में तो शायद ही किसी विपक्षी दल की इच्छा रही हो। वह तो गम्भीर बहस चाहती थी और वोटिंग से पता चलेगा कि कौन-सी पार्टी इस मुद्दे पर खड़ी कहां है। दरअसल सरकार को सबसे बड़ा भय तो यह था कि कहीं उसके ही सहयोगी दल उसके खिलाफ वोट न कर दें। क्योंकि डीएमके खुलकर सरकार के फैसले का विरोध कर रही थी। भाजपा और वामदल बहस के साथ-साथ मतदान पर अड़े थे। संसद पूरी तरह जाम थी। विपक्ष अपनी बात मनवाकर जीत महसूस कर रहा है। भाजपा और वामदलों का मकसद सरकार के अलावा उसे समर्थन देने वाले उन दलों को भी बेनकाब करना है जो खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश के मामले पर सरकार के खिलाफ आग तो उगलते रहे हैं पर सदन में उसे समर्थन देने की दोहरी चाल भी चलते हैं। भाजपा का निशाना खासकर सपा, बसपा और डीएमके है, जो जनता के बीच सिर्प बातों का बम फोड़ते नजर आते हैं पर सदन में सरकार का समर्थन भी करते हैं। फ्लोर मैनेजमेंट की प्राथमिक जिम्मेदारी विपक्ष से ज्यादा सरकार की होती है और इस काम में वह इस सत्र में विफल रही है। क्या इस हक का उपयोग नम्बर जुटाने में ही किया जाना चाहिए, सत्र चलाने के लिए नैतिकता और प्रतिबद्धता में नहीं? अगर ऐसा होता तो सरकार पिछले साल सात दिसम्बर को शीतकालीन सत्र में किए गए अपने वादों पर अमल करती। तब सरकार ने कहा था एफडीआई पर अंतिम फैसला लेने से पहले सरकार सदन, राजनीतिक दलों व अन्य भागीदारों को अपने भरोसे में लेगी। इसमें कोई संदेह नहीं कि सरकार का पलटी खाना और उसका अड़ियल रवैया, संसद ठप होने की अहम वजह है। दरअसल यह अहंकारी सरकार समझती है कि उसे संसद की मुहर की आवश्यकता ही नहीं। तभी तो वह कहती है कि यह फैसला कैबिनेट को करना है और कैबिनेट के फैसलों पर सदन में वोटिंग नहीं कराई जाती। यह कार्यपालिका का अधिकार है। संसदीय नजीर उसके तर्प को गलत ठहराती है। राजग के शासनकाल में भाकपा के बाल्को (भारत एल्युमीनियम कम्पनी लिमिटेड) के विनिवेश के फैसले पर वोटिंग वाले प्रावधान के तहत चर्चा के प्रस्ताव का कांग्रेस ने भी समर्थन किया था। तब उसके नेता प्रियरंजन दास मुंशी ने कहा था विनिवेश और निजीकरण दो अलग मसले हैं। अगर प्रबंधन में शेयर 51 फीसद हैं तो यह विनिवेश नहीं, निजीकरण है। इस नजरिए से एफडीआई पर वोटिंग के तहत संसद में चर्चा होनी चाहिए पर सत्ता में स्टैंड और होता है और विपक्ष में और। खुदरा क्षेत्र में एफडीआई के मुद्दे पर पहले ही भाजपा और वामदलों समेत विभिन्न संगठनों द्वारा देशव्यापी आंदोलन छेड़ा जा चुका है पर सरकार टस से मस नहीं हुई थी। सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों 2014 के लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर ताना-बाना बुन रहे हैं। अब देखना यह है कि कौन कितना सफल होता है।


साथी को बचाना तो दूर रहा बदमाशों को फरार होने का मौका दिया


 Published on 30 November, 2012
 अनिल नरेन्द्र
घटना रात करीब 2.10 बजे की है, हेड कांस्टेबल राम किशन अपने साथी सिपाही जेके सिंह के साथ जोंटी बार्डर पर वाहनों की चैकिंग कर रहा था। इस बीच नाइट पेट्रोलिंग पर आए एसआई खजान सिंह और हैड कांस्टेबल विजेंद्र भी वहां पहुंच गए। खजान सिंह पिकेट पर रजिस्टर की जांच करने लगा तभी हरियाणा की ओर से एक सफेद रंग की होंडा सिटी कार वहां आई। राम किशन ने कार को रोक कर ड्राइवर से उसके कागजातों की मांग की। किसी बात पर दोनों के बीच बहस होने लगी। इसी बीच बदमाशों ने राम किशन पर गोलियां दाग दीं। फायरिंग करते हुए बदमाशों ने कार बैक की और फरार हो गए। यह घटना रविवार रात की है। घटनास्थल के दोनों ओर खेत हैं। इस कारण कार काफी दूर तक बैक करते वक्त असंतुलित होकर एक जगह गिर भी गई थी पर बदमाशों के पास इतना वक्त था कि उनमें से दो ने बाहर निकल कर कार को धक्का देकर उसे बाहर निकाला और उसमें बैठकर फरार हो गए। यदि पुलिस वाले चाहते तो उन बदमाशों को पकड़ा जा सकता था। उन पुलिसकर्मियों के पास राइफल व पिस्तौलें मौजूद थीं। यह भी जानकारी मिली है कि दीवाली पर्व के दरम्यान भी हैड कांस्टेबल राम किशन ने रात्रि ड्यूटी के वक्त ऐसे ही बदमाशों से लोहा लिया था। उस वाहन की जांच करते समय भी एक बदमाश ने उन्हें बंदूक दिखा दी थी। तब भी राम किशन ने हिम्मत का परिचय दिया जिस वजह से बदमाश अपनी गाड़ी ही मौके पर छोड़कर फरार हो गए थे। इस पूरे घटनाक्रम के मद्देनजर पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी अपनों का पक्ष लेते हुए दलील दे रहे हैं कि यह वारदात इतने कम समय में हुई कि वे कुछ समझ ही नहीं पाए। सूत्रों की मानें तो भागते समय बदमाशों की पिस्टल भी घटनास्थल पर गिर गई थी। इसके बावजूद चौकी पर मौजूद अन्य पुलिसकर्मियों ने बदमाशों को पकड़ने की हिम्मत नहीं दिखाई। ऐसे में राम किशन के परिजन घटनास्थल पर मौजूद पुलिसकर्मियों की कार्यशैली पर सवाल उठाते हैं तो इसमें गलत क्या है? राम किशन के भाई का कहना है कि बदमाशों ने उनके भाई पर फायरिंग की लेकिन किसी पुलिसकर्मी ने उनकी मदद नहीं की। यहां तक पुलिस कर्मियों ने बदमाशों का पीछा करने का भी प्रयास नहीं किया। बदमाशों से लोहा लेते हुए आपका साथी घायल हो जाए और उसके तीन हथियार बंद साथी पुलिसकर्मी मूक  दर्शक बने रहें? क्या दिल्ली पुलिस कर्मियों को यह सिखाया जाता है? शहीद राम किशन विजय एन्क्लेव नांगलोई में रहता था। उसके घर में पत्नी सुनीता देवी और दो बच्चे नीरज और धीरज हैं। नीरज एमटेक का छात्र है। जबकि धीरज इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा है। 1982 में दिल्ली पुलिस में बतौर सिपाही भर्ती हुआ राम किशन मूल रूप से बहादुरगढ़ के यूपियान गांव का रहने वाला था। हम इस बहादुर जवान को अपनी श्रद्धांजलि देते हुए मांग करते हैं कि उस दिन तैनात वहां उसके साथी पुलिस कर्मियों से जवाब-तलब किया जाए न कि उनकी ओर से बेतुकी दलीलें दी जाएं।

Thursday, 29 November 2012

प्लास्टिक बैन कितना कारगर साबित होगा


 Published on 29 November, 2012
 अनिल नरेन्द्र
राजधानी में प्लास्टिक की थैलियों पर पतिबंध की अधिसूचना दिल्ली सरकार ने 23 अक्तूबर 2012 को जारी की थी। अधिसूचना में पतिबंध को लागू करने के लिए 30 दिन का समय दिया गया था। बृहस्पतिवार को यह समय सीमा समाप्त हो गई और सरकार ने भी शुकवार से प्लास्टिक की थैलियों पर पूरी तरह पतिबंध लगाने की तैयारी कर ली है। अब न तो प्लास्टिक थैलियों का उत्पादन व आयात किया जा सकेगा और न ही कोई दुकानदार, थोक बिकेता या रेहड़ी वाला सामान बेचने के लिए प्लास्टिक की थैलियों का पयोग व भंडारण कर सकेगा। यह पतिबंध निमंत्रण पत्रों के प्लास्टिक कवरों, प्लास्टिक फिल्मों व प्लास्टिक ट्यूब पर भी लागू होगा। इसका उल्लंघन करने पर एक लाख रुपए जुर्माना व पांच वर्ष की सजा का पावधान है। जैव चिकित्सीय कूड़ा पबंधन व सामान्य नियमावली 1998 के तहत पयोग होने वाली प्लास्टिक थैलियों पर पतिबंध नहीं लगेगा। एक विशेषज्ञ के मुताबिक फिलहाल दिल्ली में प्लास्टिक बैग बनाने की करीब 400 इकाइयां काम कर रही हैं और इनका सालाना कारोबार 800 करोड़ रुपए से लेकर 1000 करोड़ रुपए तक का है। दिल्ली सरकार ने बेशक प्लास्टिक थैलियों पर बैन लगा दिया है पर इसे लागू करना इतना आसान नहीं। विशेषज्ञों की मानें तो सरकार के पास जहां प्लास्टिक का उत्पादन कर रहीं फैक्ट्रियों का पूरा रिकॉर्ड नहीं है, वहीं वाया ट्रेन, प्लेन व बस दूसरे राज्यों से आ रहे प्लास्टिक पर भी इसका ज्यादा जोर नहीं चलेगा। केन्द्राrय पदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की एक रिपोर्ट बताती है कि संगठित क्षेत्र में प्लास्टिक का उत्पादन व रीसाइकिल करने वाले करीब 150 यूनिट हैं। जबकि इससे दस गुना से ज्यादा असंगठित क्षेत्र में हैं। वहीं दूसरी रिपोर्ट के मुताबिक हजरत निजामुद्दीन, नई दिल्ली व दिल्ली रेलवे स्टेशन से रोजाना करीब 7000 किलोग्राम व अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट से 3.370 किलो प्लास्टिक कचरा आता है। ज्यादातर प्लास्टिक का उत्पादन असंगठित क्षेत्र की फैक्ट्रियों में होता है जहां सरकार के पास इस पर लगाम लगाने की ठोस रणनीति नहीं है। यही वजह है कि तीन वर्ष पहले 40 माइकोन से पतली प्लास्टिक पर लगाई गई पाबंदी कारगर नहीं हो सकी। दोबारा अड़चन यहीं से आएगी। जहां हम प्लास्टिक की थैलियों पर पतिबंध का स्वागत करते हैं और दिल्ली को बढ़ते पदूषण से बचाने के लिए एक ठोस कदम मानते हैं वहीं हकीकत यह भी है कि प्लास्टिक पर पाबंदी लगा पाना आसान नहीं है। यह रोजमर्रा का अहम हिस्सा बन चुकी है, जिसका सस्ता विकल्प भी बाजार में नहीं है। यही वजह रही कि सरकार के पहले फैसले सकारात्मक परिणाम नहीं दे सके। पाबंदी को कारगर तरीके से लागू करने के लिए पहले सरकार को बाजार में विकल्प लाना होगा। प्लास्टिक से संबंधित सीपीसीबी की नियमावली से साफ है कि जूट आदि से बनाए गए कंपोजिट बैग प्लास्टिक का विकल्प हो सकता है। कोर्ट ने पहले ही निर्देश दे रखा है कि कंपोजिट बैग के उत्पादन को पोत्साहित करने के लिए कर में छूट देनी चाहिए। साथ ही साथ प्लास्टिक थैलियों का सस्ता विकल्प भी जल्द मार्केट में लाना होगा। सभी चाहते हैं कि इन प्लास्टिक थैलियों से छुटकारा मिले।

कांग्रेस का चुनावी हथकंडा ः कैश फॉर वोट

 
 Published on 29 November, 2012
 अनिल नरेन्द्र
यूपीए सरकार ने 2014 लोकसभा चुनाव की तैयारियां जोर-शोर से कर दी हैं। वह एक बार पुराने आजमाए हुए फार्मूले पर काम करने जा रही है। केन्द्र सरकार ने अपनी वोटें पक्की करने के लिए गरीबों को सीधे पैसे बांटने का फैसला किया है। कांग्रेस पार्टी को उम्मीद है कि जब सीधे लोगों के खाते में पैसा जमा होगा तो वह सारे घोटालों, भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी, बिजली, पानी, कानून अव्यवस्था सब को भूल जाएंगे और कांग्रेस पार्टी को 2014 के चुनाव में वोट दे देंगे। ऐसा सम्भव भी हो सकता है और नहीं भी। यूपीए सरकार की योजना सफल हुई तो देश में सब्सिडी का स्वरूप 2013 के अंत तक पूरा ही बदल जाएगा। लेकिन यह काम इतना आसान भी नहीं है, पेचीदगियों से भरा हुआ है। सब्सिडी के कैश ट्रांसफर यानि लाभार्थियों को सीधे नकद सहायता देने की योजना में राजनीतिक जोखिम भी है। वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम ने घोषणा की कि 15 राज्यों के 57 जिलों में कैश ट्रांसफर का काम 1 जनवरी 2013 से शुरू होगा और सारे देश में इसे अगले साल के अंत तक पूरा कर लिया जाएगा। सोमवार देर रात सहयोगी मंत्रियों के साथ हुई बैठक में पधानमंत्री मनमोहन सिंह ने गरीब लोगों के बैंकों में खाते खुलवाने की पकिया आसान बनाने पर भी जोर दिया। पधानमंत्री ने इस योजना को सफल बनाने के लिए हर सम्भव पयास करने पर बल दिया। इस योजना के तहत रसोई गैस एवं मिट्टी तेल, छात्रवृत्ति, मनरेगा की मजदूरी एवं कमजोर वर्गों को मिलने वाली अन्य सहायता को नकद रूप में उन तक पहुंचाया जाएगा। सरकार की योजना के मुताबिक आधार कार्ड के जरिए लाभार्थियों के बैंक खाते खोले जाएंगे, जिसमें उनके हिस्से की रकम हर महीने ट्रांसफर कर दी जाएगी। इस योजना के सफल होने में कई पशासनिक दिक्कतें आ सकती हैं। स्पष्टत यह योजना सफल हो इसके लिए बारीक तकनीकी कौशल एवं नए दर्जे की पशासनिक दक्षता की जरूरत होगी। इससे भारत की बैंकिंग व्यवस्था का कड़ा इम्तिहान होगा। चूंकि आधार कार्ड वितरण में अभी कई समस्याएं बाकी हैं इसलिए यह सवाल कायम है कि कहीं सहायता पाने के योग्य बहुत से लोग पशासनिक विफलताओं के कारण लाभ से वंचित तो नहीं हो जाएंगे? फिर खाद्य सब्सिडी का मुद्दा भी है। सब्सिडी से पिंड छुड़ाने की कोशिश करती आई सरकार की इस मामले में तेजी और इसकी समय-सीमा को देखते हुए यह अटकल लगाई जानी स्वाभाविक ही है क्या अगले चुनाव से इसका सीधा संबंध है? ब्राजील के उदाहरण से यह कहा जाने लगा है कि नकद सब्सिडी सत्तारूढ़ दल को चुनावी फायदा पहुंचा सकती है। अनेक सामाजिक संगठनों ने नकद सब्सिडी को लेकर कई अंदेशे जताए हैं। इनमें सबसे पमुख सवाल यह है कि गरीबों को नकद सब्सिडी देने से यह कैसे सुनिश्चित किया जा सकेगा कि उसका मकसद के अनुरूप ही इस्तेमाल होगा? बहुत से गरीब उधार और कर्जे में दबे रहते हैं। जैसे ही पैसा उनके खाते में आएगा बकाया बसूलने वाले सिर पर सवार होंगे। एक दूसरी आशंका यह है कि सब्सिडी के तौर पर मिलने वाली नकद राशि व्यसन या दूसरे गैर जरूरी खर्चों की भेंट न चढ़ जाए? जबकि सरकारी सहायता के चलते अगर जरूरतमंदों के घर में अनाज आता है तो यह भरोसा उन्हें जरूर रहेगा कि जीने के लिए उनके परिवार की सबसे बुनियादी जरूरत पूरी हो जाएगी। आधार कार्ड के इस्तेमाल से सरकार ने यह मान लिया है कि अनियमितता के सारे रास्ते बंद हो जाएंगे। मगर जहां तमाम बीपीएल परिवारों की पहचान को लेकर ही बहुत सारी गड़बड़ी चल रही हो, वहां इस बारे में कम से कम हम तो आश्वस्त नहीं हो सकते। फिर यह भी कटु सत्य ही है कि अभी तक देश की आधी ग्रामीण आबादी के पास कोई बैंक खाता नहीं हैं, न बहुत सारे देहाती इलाकों में बैंकिंग सेवाएं हैं। क्या महज डेढ़ साल में यह ढांचागत कमी दूर हो जाएगी?

Wednesday, 28 November 2012

राम जेठमलानी, यशवंत सिन्हा के बाद अब शत्रुघ्न सिन्हा


 Published on 28 November, 2012
 अनिल नरेन्द्र
भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी की मुश्किलें बढ़ती ही जा रही हैं। एक तरफ जहां पार्टी में उनके इस्तीफे की मांग करने वालों की तादाद बढ़ती जा रही है वहीं दूसरी तरफ पूर्ति कम्पनी को लेकर नए खुलासे से पार्टी बैकफुट पर आ गई है। गडकरी की कम्पनी में निवेश करने वाली कम्पनियों में उनके परिवार के सदस्यों के शामिल होने की खबर के बाद पार्टी ने पहले की तरह बचाव नहीं किया है। पूर्ति में पैसा लगाने वाली कम्पनियों के खुलासे से आरएसएस विचारक और अकाउंटेंट एस. गुरुमूर्ति की नितिन गडकरी को दी गई क्लीन चिट पर भी सवाल खड़े हो गए हैं। मीडिया में आई खबरों में कहा गया है कि पूर्ति में निवेश करने वाली 18 में 6 कम्पनियां नितिन गडकरी के परिवार के लोगों की हैं। गुरुमूर्ति ने भाजपा नेताओं को बताया था कि 18 कम्पनियों के जरिए निवेश का सारा घालमेल व्यापारी मनीष मेहता ने किया है पर इन खुलासों के बाद वह गलत साबित हो गए हैं। भाजपा अध्यक्ष के तौर पर नितिन गडकरी का कार्यकाल अगले माह (दिसम्बर) में खत्म हो रहा है। राम जेठमलानी और यशवंत सिन्हा की खुली बगावत के बाद अब शत्रुघ्न सिन्हा भी मैदान में उतर आए हैं। नितिन गडकरी के इस्तीफे की मांग करने वालों में अब `बिहारी बाबू' शत्रुघ्न सिन्हा का नाम भी जुड़ गया है। सिन्हा ने शनिवार को पटना में जेठमलानी और यशवंत सिन्हा की तरफ से गडकरी के इस्तीफे की मांग को सही ठहराते हुए कहा कि जिम्मेदार पद पर बैठे लोगों को न सिर्प ईमानदार होना चाहिए बल्कि दिखना भी चाहिए। अगले ही दिन शत्रुघ्न ने पटना में कहा कि लाल कृष्ण आडवाणी प्रधानमंत्री पद के सबसे योग्य उम्मीदवार हैं। बिहारी बाबू ने कहा कि आडवाणी अटल बिहारी वाजपेयी की तरह अंधेरी सुरंग में रोशनी की लकीर हैं। बिहारी बाबू ने कहा कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी प्रधानमंत्री पद के लिए सक्षम उम्मीदवार हैं, लेकिन उम्मीदवार का चयन संख्या बल को ध्यान में रखकर किया जाएगा। शत्रुघ्न ने कहा कि उन्हें किसी अनुशासनात्मक कार्रवाई का डर नहीं है। कहाöमैं अब सीनियर हो गया हूं। मैंने कभी मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया है। सच बोलने पर सजा नहीं मिलती। भाजपा में आडवाणी, यशवंत सिन्हा, राम जेठमलानी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, नरेन्द्र मोदी जैसे कई नेता हैं लेकिन आडवाणी सबसे बेहतर हैं। उनकी दृष्टि व्यापक, अनुभव व स्वच्छ छवि उन्हें सबसे बेहतर उम्मीदवार बनाते हैं। पार्टी के लिए बेहतर रहेगा कि 2014 के आम चुनाव से पहले प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा कर दें। शत्रुघ्न सिन्हा ने एक और मुद्दे पर पार्टी लाइन से हटकर स्टैंड लिया। सीबीआई के नए निदेशक रंजीत सिन्हा की नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर भाजपा आलाकमान द्वारा उठाए गए सवालों को खारिज करते हुए शत्रुघ्न ने पार्टी स्टैंड के खिलाफ खुली बगावत कर दी। राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली और लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने नए सीबीआई निदेशक पर आपत्ति जाहिर की थी। अब शत्रुघ्न ने कहा है कि रंजीत सिन्हा बेहद योग्य अफसर हैं इसलिए उनकी नियुक्ति बिल्कुल जायज है। उन्होंने कहा कि रंजीत सिन्हा 1974 बैच के आईपीएस अफसर हैं और वे बिल्कुल सक्षम हैं। नए सीबीआई निदेशक की नियुक्ति सीवीसी की सिफारिश पर हुई है। यह बिल्कुल सही कदम है, इसलिए इसका विरोध गलत है। शत्रुघ्न यशवंत सिन्हा के पहले से करीब रहे हैं। तीनों सिन्हा का यह समीकरण बिहार के संदर्भ में जातीय समीकरण से भी जोड़कर देखा जा सकता है। सीबीआई के नए निदेशक रंजीत सिन्हा बिहार कैडर के हैं। इसलिए हर बिहारी नेता खुलकर भले ही उनका समर्थन न करे लेकिन खुलकर विरोध भी नहीं करेगा। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी व्यक्तिगत बातचीत में बिहार कैडर के अफसर को सीबीआई निदेशक बनाने के समर्थक हैं और बात हमने शुरू की थी। अध्यक्ष नितिन गडकरी के खिलाफ पार्टी में बढ़ रही बगावत की। अब इतना तो तय लगता है कि संघ चाहे जितना चाहे वह नितिन गडकरी को दूसरा कार्यकाल नहीं दिलवा सकता। अब जबकि उनके कार्यकाल में कुछ ही दिन बचे हैं, हम समझते हैं कि नितिन गडकरी को स्वेच्छा से बयान दे देना चाहिए कि वह दूसरे टर्म के लिए पार्टी अध्यक्ष के उम्मीदवार के रूप में खड़े नहीं होंगे और वह स्वेच्छा से स्टैप डाउन कर रहे हैं पर सवाल यह है कि क्या नितिन गडकरी ऐसा करेंगे या यूं कहें कि उन्हें ऐसा करने दिया जाएगा?

अरविन्द केजरीवाल की `आम आदमी पार्टी'


 Published on 28 November, 2012
 अनिल नरेन्द्र
खुद को भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़ा एक आदमी बताने वाले अरविन्द केजरीवाल ने अब अपनी पार्टी का नाम भी तय कर लिया है। अरविन्द केजरीवाल ने अपनी राजनीतिक पार्टी के लिए नाम `आम आदमी पार्टी' तय किया है। शनिवार को 300 से ज्यादा संस्थापक सदस्यों की बैठक ने संविधान को मंजूरी दी गई। पार्टी ने सोमवार से औपचारिक रूप से कामकाज शुरू कर दिया। केजरीवाल का दावा है कि इसके जरिए वे राजनीति में आम लोगों को खास जगह दिलवाएंगे अभी तक तो गैर राजनीतिक संगठन के रूप में हलचल पैदा करने और सुर्खियां बटोरने में सफल रही टीम केजरीवाल अर्थात आम आदमी पार्टी के समक्ष चुनौतियां इसलिए ज्यादा दिख रही हैं, क्योंकि उससे अपेक्षाओं में इजाफा हो गया है। इन अपेक्षाओं का एक कारण यह भी है कि अन्ना हजारे के सिपहसलार बनकर अपनी पहचान बनाने वाले केजरीवाल ने कुछ ऐसे मुद्दे उठाने का साहस दिखाया जो आज तक किसी अन्य राजनीतिक दल ने नहीं दिखाया। इससे जनता में न केवल उनकी अलग पहचान ही बनी बल्कि अपेक्षा भी बढ़ गई। अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी की पार्टी दूसरे राजनीतिक दलों से अलग कैसे है? इस प्रश्न के उत्तर में केजरीवाल ने बताया कि हम सारे चन्दे और खर्च का पूरा ब्यौरा नियमित रूप से सार्वजनिक करेंगे। हमारी पार्टी में एक परिवार के एक ही सदस्य को पार्टी टिकट मिलेगा या पद। हर प्राथमिक इकाई को दो संयोजकों में एक महिला होना अनिवार्य होगा। पार्टी अधिकारियों व कार्यकारी सदस्यों पर आरोपी की सुनवाई के लिए आंतरिक लोकपाल होगा। केजरीवाल द्वारा नई पार्टी की घोषणा करने से ही विवाद शुरू होना स्वाभाविक था। पार्टी प्रवक्ता और सूचना प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी ने कहा कि लोकतांत्रिक देश में पार्टी बनाना सभी का हक है। देश में 1300 दल हैं। एक और शामिल होगा तो लोकतंत्र और मजबूत होगा। 1885 से ही `आम आदमी' कांग्रेस का पर्याय रहा है। कोई भी इसे हाइजैक नहीं कर सकता। उधर भाजपा प्रवक्ता मुख्तार अब्बास नकवी ने कहा, केजरीवाल को हमारी शुभकामनाएं। वे पार्टी का नाम आम रखें चाहे खास। चुनाव के मैदान में आए हैं। अब तक जो कहते आए हैं, उसे करने का वक्त आ गया है। जिन मुद्दों को लेकर अब तक सबको कठघरे में खड़ा करते रहे हैं अगर उन्हें दुरुस्त कर सकें तो हम खुश होंगे। वैसे केजरीवाल के हक में यह जरूर जाता है कि उन्होंने अपनी आम आदमी की पार्टी में राष्ट्रीय स्तर पर लोकपाल और राज्य व जिला स्तर पर लोकायुक्त का प्रावधान रखा है। ये रिटायर्ड जज होंगे। पार्टी एग्जीक्यूटिव मेम्बर्स के खिलाफ इनसे शिकायत की जा सकेगी। पहली बार किसी राजनीतिक दल में अगर नेशनल कौंसिल  चाहे तो नेशनल एग्जीक्यूटिव मेम्बरों को वापस बुला सकेगी। स्टेट कौंसिल राज्यों में भी एग्जीक्यूटिव मेम्बरों को रिकॉल कर सकेंगे। फिलहाल इन आश्वासनों पर यकीन न करने की कोई वजह नहीं है लेकिन उन्हें यह आभास होना चाहिए कि अब उन्हें इन अनेक सवालों से जूझना होगा जिनसे अभी तक उनका वास्ता नहीं पड़ा अथवा जिनके जवाब देने की उन्हें जरूरत नहीं पड़ी। अभी आम आदमी पार्टी का पूरा स्वरूप और उनका दृष्टिकोण सामने आना शेष है, लेकिन उसका गठन जिस तरह से वामदलों की तर्ज पर हुआ है और अनेक मुद्दों पर समाजवादी और वामपंथी रुझान प्रकट किया गया है उससे कुछ संदेह-सवाल खड़े होना स्वाभाविक है। उदाहरण के तौर पर उनकी नई पार्टी की उद्योग जगत विशेषकर बड़ी औद्योगिक परियोजनाओं व एफडीआई जैसे मुद्दों पर क्या नीति होगी? अरविन्द केजरीवाल पर यह आरोप भी लगता रहा है कि वह मुद्दे तो उठाते हैं पर उन्हें आगे बढ़ाते नहीं हैं। उन्हें अन्त तक नहीं ले जाते। क्या पार्टी में भी यह रुख रहेगा? आम जनता के हितों की सार्वजनिक सभाओं में बात उठाना और बात है पर इन्हें जमीन पर अमल कराना ज्यादा मुश्किल है। चुनाव लड़ने के लिए हर प्रकार के सामर्थ्य की जरूरत पड़ेगी। देखना यह होगा कि केजरीवाल को चन्दा कहां से और कितना मिलता है? पूरे देश में कार्यकर्ताओं की जमात खड़ा करना भी कम चुनौती नहीं है पर इन सब दिक्कतों के बावजूद उनकी आम आदमी की पार्टी की इसलिए सराहना की जाएगी क्योंकि फिलहाल उनके तौर-तरीके और इरादे अन्य सियासी पार्टियों से अलग नजर आ रहे हैं।


Tuesday, 27 November 2012

तालिबानी फरमान ः शियाओं से आस्था का टकराव है और वह ईशनिंदक हैं


 Published on 27 November, 2012
 अनिल नरेन्द्र
पाकिस्तान में चाहे वह हिन्दू हो, ईसाई हो उन्हें तो टारगेट किया ही जाता है पर शियाओं को टारगेट क्यों किया जाता है, यह हमारी समझ से बाहर है। आए दिन शियाओं की मस्जिदों, जुलूसों को निशाना बनाया जाता है। ताजी घटना पाकिस्तान के अशांत खैबर पख्तूनख्वा प्रांत में डेरा इस्माइल खान जिले की है। बाहरी इलाके में स्थित एक इमामबाड़े से निकले शिया जुलूस को निशाना बनाकर सड़क किनारे रखे गए एक बम विस्फोट से सात व्यक्तियों की मौत हो गई जबकि 18 अन्य घायल हो गए। प्रत्यक्षदर्शियों और पुलिस ने बताया कि बम को एक कूड़े के ढेर में छिपाया गया था। जुलूस शहर के मुख्य जुलूस में शामिल होने जा रहा था। विस्फोट में चार बच्चों सहित सात व्यक्तियों की मौत हो गई। घायलों में दो बच्चे और एक पुलिसकर्मी शामिल है। पुलिस ने बताया कि बम तकरीबन 10 किलोग्राम विस्फोटक पदार्थ और बॉल वियरिंग से तैयार किया गया था। टीवी के दृश्यों में कई मकानों की दीवारों में बॉल वियरिंग फंसी दिखाई दी। सन् 680 ई. में इमाम हुसैन की शहादत पर शोक मनाने के लिए असुरा पर शिया समुदाय के लोग जुलूस निकालते हैं। तमाम सुरक्षा इंतजाम के दावे खोखले साबित हुए। तालिबान ने हमले की जिम्मेदारी ली है। तालिबान के एक प्रवक्ता ने मीडिया को बताया कि आतंकवादियों का शियाओं के साथ `आस्था का टकराव' है। प्रवक्ता ने अल्पसंख्यकों को `ईशनिंदक' करार देते हुए कहा कि तालिबान उनको निशाना बनाता रहेगा। इस हमले से कुछ ही दिन पहले बृहस्पतिवार को रावलपिंडी में एक शिया जुलूस के दौरान हुए आत्मघाती हमले में 23 व्यक्ति मारे गए थे जबकि 60 से अधिक घायल हो गए थे। खैबर पख्तूनख्वा के लक्की मारवात में एक शिया इबादखाने के पास हमलावर ने खुद को उड़ा लिया, धमाके में दो व्यक्ति घायल हुए। इससे पहले उत्तरी पाकिस्तान के गिलगित बालटिस्तान क्षेत्र में अज्ञात बन्दूकधारियों ने शिया समुदाय के कम से कम 26 लोगों को तीन बसों से बाहर निकाला और गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। बन्दूकधारियों ने बस सवारों के पहचान पत्रों की पहले जांच की और फिर गोली मार दी। पाक टीवी रिपोर्टों के मुताबिक इस हमले में करीब 15 बन्दूकधारी शामिल थे, जिसे अधिकारियों ने जातीय हमला बताया। पहले भी गिलगित बालटिस्तान में बसों पर हमले में अल्पसंख्यक शिया समुदाय के दर्जनों लोग मारे जाते रहे हैं। सवाल यह उठता है कि भारत में तो छोटी से छोटी घटना पर शिया समुदाय सड़कों पर उतर आता है। पाकिस्तान में उनको चुन-चुनकर मारा जा रहा है और आज तक शिया समुदाय के गुरुओं और भारत के शियाओं ने इस बढ़ते अत्याचार पर आवाज क्यों नहीं उठाई? क्यों नहीं पाकिस्तान हाई कमीशन में इसके खिलाफ मुजाहिरा और विरोध किया? तालिबान की नजरों में पाकिस्तान में रह रहे शिया भी सुन्नी श्रेणी में आते हैं जिसमें हिन्दू, ईसाई व सिख हैं। तालिबान ने साफ कहा है कि यह मजहब का टकराव है और ईशनिंदा के तहत उन्हें भी निशाना बनाया जाता रहेगा।

आज मुकदमा हटेगा कल पद्म भूषण दे देना


 Published on 27 November, 2012
 अनिल नरेन्द्र
उत्तर प्रदेश की आतंकवादी घटनाओं से मुल्जिमों को निर्दोष बताकर मुकदमे वापस लेने की उत्तर प्रदेश सरकार की कोशिशों का विरोध तेज हो गया है। राजनीतिक पार्टियों से लेकर अदालतों में इसका विरोध हो रहा है। विधान परिषद में कांग्रेस के नेता नसीब पठान ने कहा कि आतंकवाद के आरोपियों से मुकदमे वापस लेने का यह तरीका ठीक नहीं है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. लक्ष्मी कान्त वाजपेयी ने कहा कि हाई कोर्ट की तल्ख टिप्पणी के बाद सपा सरकार ने सत्ता में बने रहने का नैतिक अधिकार खो दिया है। उन्होंने कहा कि आतंकवादी गतिविधियों के खिलाफ जहां एक तरफ पूरी दुनिया जूझ रही है वहीं सपा सरकार आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त होने के आरोपी युवकों को वोट के लालच में छोड़े जाने की कवायद कर रही है। भाजपा प्रवक्ता राजेन्द्र तिवारी ने कहा कि सपा सरकार ने एक वर्ग विशेष को प्रसन्न कर वोट हासिल करने के लालच में तुष्टीकरण की सारी हदें पार कर दी हैं। यही कारण है कि न तो यह सरकार कानून व्यवस्था पर कोई नियंत्रण कर पा रही है और न ही प्रदेश की बुनियादी समस्याओं का हल करने की दिशा में कोई ठोस कदम उठा पा रही है। सबसे तल्ख टिप्पणी इलाहाबाद हाई कोर्ट ने की है। सीआरपीएफ कैम्प पर आतंकी हमला जैसी वारदातों में शामिल लोगों पर से केस उठाने की कवायद को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान जस्टिस आरके अग्रवाल और आरएसआर मौर्य की खंडपीठ ने कहा, यह कौन तय करेगा कि आतंकी कौन है। जब मामला कोर्ट में है तो अदालत को ही तय करने दीजिए। सरकार खुद कैसे तय कर सकती है कि कौन आतंकवादी है। आतंकवादियों पर से मुकदमा हटाने की पहल कर क्या सरकार आतंकवाद को बढ़ावा दे रही है। आज आप आतंकवादियों को छोड़ दें, कल उन्हें पद्म भूषण देंगे? संकट मोचन मंदिर, कैन्ट स्टेशन सहित वाराणसी के कई स्थानों पर बम ब्लास्ट, रामपुर सीआरपीएफ कैम्प पर आतंकी हमला जैसी वारदातों में शामिल लोगों पर से केस उठाने की कवायद को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान अदालत ने यह टिप्पणी की। इस मामले को लेकर वाराणसी के नित्यानन्द चौबे और सामाजिक कार्यकर्ता राकेश न्यायिक ने जनहित याचिका दाखिल की है। याचीगणों ने उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल करते हुए वाराणसी में हुए बम ब्लास्ट के आरोपियों पर चलाए जा रहे आपराधिक मुकदमे को हटाने के लिए प्रदेश के विशेष सचिव द्वारा 31 अक्तूबर 2012 को जारी आदेश को चुनौती दी है। रामपुर के सीआरपीएफ कैम्प पर दिसम्बर 2007 में हुए आतंकी बम ब्लास्ट के आरोपियों के विरुद्ध भी आपराधिक मुकदमे वापस लेने के राज्य सरकार के आदेश को चुनौती दी गई है। याचीगणों के अधिवक्ता एसके गुप्ता और शिवशंकर त्रिपाठी आदि का तर्प था कि आरोपियों के विरुद्ध भारतीय दंड संहिता की 302, 307, 323, 427 और 120बी आदि धाराओं में मुकदमे दर्ज हैं। इनका कृत्य देशद्रोह की श्रेणी में आता है। ऐसे मामलों में मुकदमे वापस लेने से इस तरह का कृत्य करने वालों को बढ़ावा मिलेगा। याचिका में इस संबंध में राज्य सरकार द्वारा जारी आदेश को रद्द करने की प्रार्थना की गई है। हमारी राय में उत्तर प्रदेश सरकार को अदालतों पर भरोसा रखना चाहिए। अगर पुलिस ने इन केसों में निर्दोषों को फंसाया है तो वह अदालत में छूट जाएंगे। हमने नई दिल्ली में लाजपत नगर बम धमाके में देखा कि दिल्ली हाई कोर्ट ने सबूतों के अभाव में दो आरोपियों मिर्जा निसार हुसैन और मोहम्मद अली भट्ट को बरी कर दिया। समाजवादी पार्टी सरकार के हित में यह नहीं होगा कि उस पर आतंकवाद को बढ़ावा देने की मुहर लगे। यह न तो उसके लिए अच्छा है और न ही देश के लिए। राज्य सरकार को मुकदमे वापस लेने के आदेश को रद्द करना चाहिए।


Sunday, 25 November 2012

पोंटी और हरदीप चड्ढा की हत्या किसने की और क्यों? रहस्य बरकरार


 Published on 25 November, 2012
 अनिल नरेन्द्र
पोंटी चड्ढा और उनके भाई हरदीप चड्ढा को किसने मारा और क्यों मारा? यह प्रश्न इस हाई प्रोफाइल हत्याकांड के सात दिन बीत जाने के बाद भी स्पष्ट नहीं हो सके। शुरू में बताया गया कि छोटे भाई हरदीप ने पोंटी को मारा और उत्तराखंड अल्पसंख्यक के पूर्व अध्यक्ष सुखदेव सिंह नामधारी के पीएसओ ने अपनी कार्बाइन से हरदीप को दो गालियां मार दीं। बुधवार को आई पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार पोंटी को सात गोलियां लगीं और हरदीप को दो गोलियां। पोंटी को दो गोलियां उनकी छाती पर लगी थीं। ये गोलियां दिल और लंग्स में फंस गईं जिससे दिल पंचर हो गया। पुलिस के अनुसार दो गोलियां उनके पेट और बाकी तीन शरीर के निचले भाग में लगीं। वहीं हरदीप को जो दो गोलियां लगी थीं वह शरीर से आर-पार हो गई थीं। पुलिस सूत्रों के अनुसार फार्म हाउस के अन्दर और बाहर यानि परिसर में करीब 80 राउंड गोलियां चली थीं। तकरीबन सभी खोखे पुलिस को मिल गए हैं। सवाल यह है कि जब इतनी गोलियां चलीं तो यह कैसे हुआ कि मरने वाले सिर्प पोंटी और हरदीप दो व्यक्ति थे? पोंटी के साथ नामधारी बैठे हुए थे, उनको कोई गोली क्यों नहीं लगी? पोस्टमार्टम रिपोर्ट के बाद पुलिस के सामने यह बात साफ हो गई है कि चड्ढा बंधुओं को 9 गोलियां लगी थीं लेकिन एक दर्जन सवाल अभी भी अनुसलझे हैं। क्या भाइयों का झगड़ा केवल दो फार्म हाउसों को ही लेकर था? वारदात के दौरान मौके पर कौन-कौन मौजूद था? सुखदेव सिंह नामधारी की पूरे मामले में क्या भूमिका थी? क्या सुखदेव के कहने पर त्यागी ने गोली चलाई? मौके पर क्या अन्य रसूखदार लोग भी मौजूद थे? पीसीआर कॉल के बाद भी पुलिस को क्यों नहीं भनक लगी कि स़ढ़े 11 बजे यहां गोलियां चली हैं? क्या मौके पर जाने वाले पुलिसकर्मियों को हिंसा की जानकारी थी और वे किसी कारण चुपचाप रहे? किन-किन हथियारों से फायरिंग हुई? राजदेव वह शख्स है जिसने पोंटी व हरदीप के बीच हुए खूनी खेल को अपनी आंखों से देखा था। राजदेव पोंटी की बहू की लैंड कूजर गाड़ी का ड्राइवर है। उसने पुलिस को बताया कि वह फार्म हाउस नम्बर 21 में थे। शनिवार सुबह करीब साढ़े 11 बजे पोंटी चड्ढा बाहर आए और उनसे पूछने लगे कि वह कहां जा रहे हैं। इस पर राजदेव ने कहा कि मैडम कहीं जा रही हैं और वह उनका इंतजार कर रहा है। तब पोंटी ने उससे कहा कि मैडम बाद में जाएंगी पहले सेंट्रल ड्राइव फार्म हाउस नम्बर 42 चलो। राजदेव ने बताया कि उनके साथ मैनेजर नरेन्द्र स्कार्पियो गाड़ी से पीछे आ रहा था। जब नरेन्द्र अन्दर से चॉभी लेकर फार्म हाउस का ताला खोल रहा था उसी समय हरदीप आ गए। हरदीप ने नरेन्द्र को गाली देते हुए पैर में गोली मारी। जब हरदीप के लैंड कूजर के बोनेट पर गोली मारी तो राजदेव गाड़ी से उतरकर दूर चला गया। जब हरदीप ने पोंटी के ऊपर गोलियां चलानी शुरू की तो वह मौके से भाग खड़ा हुआ। अगर वह भागता नहीं तो मारा जाता। अंग्रेजी अखबरों में एक अन्य रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि हरदीप ने पोंटी पर गोली उन्हें मारने के लिए नहीं चलाई थी। इन रिपोर्टों के अनुसार पहले पोंटी ने हरदीप को जमीन पर पटक दिया और जब वह गिर गए तो उन्होंने दोनों हाथों में पिस्तौल निकालकर पहले पोंटी की टांग पर गोली मारी यानि पहले उन्होंने पोंटी को मारने की नीयत से गोली नहीं चलाई। पोस्टमार्टम रिपोर्ट इतनी तो पुष्टि करती है कि पोंटी की टांग में गोली लगी। पुलिस कन्फर्म करती है कि पोंटी को दो गोलियां उनकी जांघ में लगी और एक टांग में। फिर से सवाल उठता है कि पोंटी पर किसने गोलियां चलाईं और क्यों? इसमें सुखदेव सिंह नामधारी की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है। वह बार-बार न केवल अपना बयान बदल रहे हैं बल्कि कई दिनों से गायब थे। शुक्रवार को दिल्ली पुलिस ने उत्तराखंड पुलिस की मदद से उन्हें उत्तराखंड से गिरफ्तार कर लिया। सुखदेव को हरदीप के मैनेजर नन्द लाल द्वारा दर्ज कराई गई शिकायत पर गिरफ्तार किया गया है। इस केस में यह आठवीं गिरफ्तारी है। पुलिस के गिरफ्त में आए सभी लोग पोंटी की तरफ के हैं। पुलिस ने बताया कि अब सुखदेव और सचिन त्यागी (सुरक्षाकर्मी) से पूछताछ के बाद वारदात की तस्वीर साफ हेने की सम्भावना है। सुखदेव सिंह आपराधिक पृष्ठभूमि रखते हैं और उस दिन अपने साथ गुंडे लेकर फार्म हाउस पर जबरन कब्जा करने के लिए पोंटी के साथ आए थे। हम तो अब इस नतीजे पर पहुंचते जा रहे हैं कि गोलीकांड में ट्रिगर चलाने वाला कोई और ही था। कभी-कभी काल्पनिक घटनाओं पर आधारित फिल्में भी सच्चाई को सामने लाने में कारगर साबित हो सकती हैं। 1994 में निर्देशक राजीव राय की थ्रिलर फिल्म `मोहरा' आई थी। पुलिस यह दबी जुबान से मान रही है कि किसी तीसरे पक्ष ने फायदा उठाने के लिए दोनों भाइयों को आमने-सामने कर उनकी हत्या करवा दी है। सूत्रों के अनुसार फैसला लिया गया है कि मामले की जांच कर रही पुलिस की 21 टीमों को यह फिल्म दिखाई जाएगी, जिससे खेल के असली मोहरे को सामने लाया जा सके। फिल्म में अभिनेता गुलशन ग्रोवर और रजा मुराद का शहर में अपना-अपना गुट होता है। नसीरुद्दीन शाह इन दोनों गैंगों का खात्मा कराकर खुद शहर पर राज करना चाहता है। इसके लिए वह अभिनेता सुनील शेट्टी को मोहरा बनाता है। नसीरुद्दीन की एक चाल पर रजा मुराद और ग्रोवर का गैंग आमने-सामने आ जाता है। इसी दौरान असलहों से लैस तीसरा गुट दोनों गुटों का सफाया कर देता है। मामले की जांच कर रहे पुलिस अधिकारी अक्षय कुमार को सारा माजरा काफी मशक्कत करने के बाद समझ आता है और वह नसीरुद्दीन शाह का खात्मा कर देता है। पोंटी से सबसे ज्यादा परेशान शराब सिंडीकेट था। पश्चिमी यूपी के 20 जिलों में पोंटी के एकछत्र राज व बाकी जिलों की 40 फीसदी दुकानों पर कब्जा करने से दूसरे कारोबारी परेशान थे। पोंटी के रसूख के चलते अब तक सिंडीकेट से जुड़े लोग विरोध करने का साहस नहीं जुटा पाते थे। सम्भव है कि इस शराब माफिया ने यह कांड रचा हो। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में शराब कारोबार में कई कत्ल दफन हैं। 16-17 वर्षों के दौरान वेस्ट यूपी और उत्तराखंड में कई की हत्या कराई गई तो कइयों को पुलिस एनकाउंटर में ढेर करा दिया गया। मतलब साफ है कि जिन लोगों ने शराब के कारोबार में अपना सिक्का फिर से जमाना चाहा वह हर गतिरोधक को हटा सकते हैं। इस कांड का मास्टर माइंड कोई और है जिसने दोनों को एक जगह पहुंचा दिया और फिर दोनों को रास्ते से हटा दिया।

Saturday, 24 November 2012

शिंदे उवाच ः सोनिया और मनमोहन को कसाब की फांसी का टीवी से पता चला?


 Published on 24 November, 2012
 अनिल नरेन्द्र
अजमल आमिर कसाब को यूं गुपचुप तरीके से फांसी पर लटकाना क्या एक राजनीतिक फैसला था? फांसी को लेकर सियासत तेज होना स्वाभाविक ही है। भारत के अन्दर और बाहर दोनों ही जगहों पर सियासत तेज हो गई है। अजमल कसाब की फांसी पर भारत और पाकिस्तान के बीच नया कूटनीतिक दंगल छिड़ गया है। भारत के मुताबिक पाकिस्तान ने कसाब की फांसी से पहले भेजी गई औपचारिक सूचना लेने से ही इंकार कर दिया। इसके बाद पाकिस्तान ने कसाब के पार्थिव शरीर को भी लेने के बारे में कोई खबर भारत को नहीं दी। अब हालांकि पाक खेमा भारत सरकार के उक्त दावों से इंकार कर रहा है। भारत ने अब पाकिस्तान में मौजूद मुंबई हमले के साजिशकर्ताओं के खिलाफ कार्रवाई के लिए भी दबाव बढ़ा दिया है। इधर देश के अन्दर भी इस फांसी को लेकर सियासी दाव चले जा रहे हैं। केंद्र और राज्य सरकारों ने पिछले चार सालों में 29.5 करोड़ रुपए खर्च किए हैं। इनमें आर्थर रोड जेल में उसके खाने-पीने, सुरक्षा, दवाइयों और कपड़ों पर किया गया खर्च शामिल है। वहीं कसाब को फांसी चढ़ाने वाले जल्लाद को इस काम के लिए 5 हजार रुपए दिए गए। सुरक्षा पर 30 करोड़ रुपए खर्च को कम किया जा सकता था? अगर जल्द फांसी दे दी जाती तो यह बच सकता था। हमें हैरानी तब सबसे ज्यादा हुई जब माननीय गृहमंत्री श्री सुशील कुमार शिंदे ने यह कहा कि कसाब को फांसी दिए जाने के बारे में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को भी नहीं पता था। उन्हें टीवी देखने से ही पता चला कि कसाब को फांसी पर लटका दिया गया है। सवाल है कि आप पाकिस्तान को तो एडवांस में कसाब की फांसी के बारे में बता रहे हैं और देश के प्रधानमंत्री को नहीं बता रहे? यह मानना आसान नहीं है कि पीएम को नहीं पता था, कुछ ऊकचूक हो जाती तो जिम्मेदारी तो देश के हेड यानि पीएम की होती और उन्हें पता ही नहीं था। एक रिपोर्ट के अनुसार न केवल पीएम को मालूम ही था बल्कि यह ऑपरेशन सीधे प्रधानमंत्री की निगरानी में हुआ। ऑपरेशन के बारे में वरिष्ठ मंत्रियों और अधिकारियों तक को भी भनक नहीं लगी यह ठीक है। केवल प्रधानमंत्री ही नहीं रक्षामंत्री एके एंटनी को भी पूरी जानकारी थी। गृहमंत्री के रोम से इंटरपोल के सम्मेलन से लौटने के बाद ही तय हो गया था कि जल्द ही कसाब को गोपनीय तरीके से सुप्रीम कोर्ट द्वारा बरकरार रखी गई फांसी की सजा दे दी जाए। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने जिस स्पीड से कसाब की दया याचिका रिजैक्ट की वह भी अभूतपूर्व था। महामहिम ने महज 13 दिनों में ही इतना महत्वपूर्ण फैसला ले लिया। इससे पहले तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने तो सात दिनों में ही दया याचिका पर फैसला सुना दिया था। भारत में यह दूसरा ऐसा मामला है जिसमें दया याचिका पर इतनी तेजी से फैसला हुआ है और गृहमंत्री हमें यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि यह सब प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष की जानकारी के बिना हुआ है? कसाब को फांसी से देश ने दुनिया को एक मजबूत संदेश दिया है। लेकिन इसकी टाइमिंग कई मायनों में बढ़िया रही। फांसी के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र में प्रस्ताव पास होने के एक ही दिन बाद कसाब को फांसी दी गई है। यह संयोग भी हो सकता है, लेकिन हमारे सिस्टम को तो यह काफी पहले से पता था कि यूएन में 19-20 नवम्बर को क्या प्रस्ताव पास होने वाला है। टाइमिंग के मसले पर संसद सत्र से पहले ही एक दिन भी देखा जा सकता है, सरकार की बढ़ती अस्थिरता देश में कांग्रेस के लिए मौजूदा माहौल, तटस्थ हिन्दू वोट, खासकर युवा वर्ग और फिर महत्वपूर्ण गुजरात विधानसभा चुनाव। अगर हम इस घटनाक्रम को देखें तो हमें तो यकीनन लगता है कि यह फैसला राजनीतिक ज्यादा था और सभी जानते हैं कि देश में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, राहुल गांधी की स्वीकृति के बिना पत्ता तक नहीं हिलता, यह तो बहुत ही बड़ा फैसला था।

बाला साहेब की विरासत को आगे कौन बढ़ाएगा?


 Published on 24 November, 2012
 अनिल नरेन्द्र

बाला साहेब ठाकरे के निधन के बाद यह सवाल उठना स्वाभाविक ही है कि शिवसेना का अब क्या होगा? सेना सुप्रीमो का पद रहेगा या खत्म होगा या कोई अन्य घोषणा होगी? जब भी कोई बड़ा नेता जाता है तो संगठन में परिवर्तन होता है। शिवसेना में तो नेतृत्व का एक तरह से शून्य पैदा हो गया है। बेटा उद्धव उस स्तर का न तो नेता है और न ही कार्यकर्ताओं में पिता समान पकड़ व इज्जत। भतीजे राज ठाकरे ने अलग होकर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) का गठन कर अपनी अलग पहचान बहरहाल जरूर बनाने का प्रयास किया है और कुछ हद तक सफल भी रहे हैं पर अकेले उनमें भी वह दम नहीं जो बाला साहेब में था। बाला साहेब के जाने के बाद शिव सैनिकों में मायूसी का इस शिव सैनिक की टिप्पणी से पता चलता है। शिव सैनिक का कहना था कि बाला साहेब के निधन के बाद मराठी मानुष खुद को अनाथ, असहाय और असुरक्षित महसूस कर रहा है। इन हालात में अब दोनों भाइयों को लोगों के हित में निश्चित ही एकजुट होकर साथ आना चाहिए। सवाल यह है कि शिव सैनिक तो चाहते हैं कि उद्धव और राज एक साथ मिलकर बाला साहेब की विरासत को आगे बढ़ाएं पर क्या यह सम्भव है? बाल ठाकरे ने कई बरस पहले ही अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी तय कर दिया था, अपने पुत्र उद्धव ठाकरे को शिवसेना का कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर। इसी के साथ पार्टी में नेतृत्व को लेकर विवाद की गुंजाइश भी अपनी ओर से समाप्त कर दी थी। अलबत्ता पार्टी को इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी। बाल ठाकरे के भतीजे राज ठाकरे शिवसेना से अलग हो गए और 2006 में उन्होंने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना नाम से अपना अलग दल बना लिया। छग्गन भुजबल और फिर नारायण राणे जैसे कई जनाधार वाले नेता इससे भी पहले शिवसेना छोड़ चुके थे। दुखद पहलू तो यह है कि उद्धव के हाथ में शिवसेना की कमान तो आ गई पर महाराष्ट्र की राजनीति में वे अभी तक अपनी कोई खास छाप नहीं छोड़ सके। बेशक विरासत में उन्हें एक मजबूत सांगठनिक आधार तो मिला पर कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने में वे सक्षम साबित नहीं हो पाए। मराठा मानुष और मुंबईकर और हिन्दुत्व की मिलीजुली नीति ने बाला साहेब ठाकरे को एक खास तरह की ताकत दी पर इसी के साथ यह भी हुआ कि बहुत से लोग उनसे खौफ खाते रहे। कई लोगों को लगता है कि उद्धव में अपने पिता जैसी न भाषा है, न ही वह तेवर जिसके सहारे शिवसेना की उग्र अस्मितावादी राजनीति पनपी और चलती रही। यह तेवर, भाषा बहरहाल हमें राज ठाकरे में थोड़ी नजर आ रही है। शायद यही कारण है कि वे शिवसेना के बहुत से कार्यकर्ताओं को तोड़ने में सफल हुए। 2009 के चुनाव नतीजे ने भी शिवसेना के आधार में लगी इस सेंध की पुष्टि की। यह तब हुआ जब शिवसेना को राह दिखाने और अपने लोगों का हौसला बढ़ाने के लिए बाला साहेब ठाकरे मौजूद थे। अब जब वे इस दुनिया में नहीं हैं तो शिवसेना का भविष्य अनिश्चित-सा लग रहा है। दोनों भाइयों में मतभेद हैं यह सत्य किसी से छिपा नहीं। अब देखना यह है कि शिवसेना के भविष्य के लिए क्या उद्धव और राज अपने मतभेद भुलाकर बाला साहेब की विरासत को आगे चला सकेंगे?

Friday, 23 November 2012

चेन स्नैचिंग अब एक आर्गेनाइज्ड धंधा बन गया है


 Published on 23 November, 2012
अनिल नरेन्द्र
आजकल अपराध भी एक हाई टैक बिजनेस हो गया है। दिल्ली एनसीआर में बाइकर्स रोजाना दर्जनों महिलाओं से स्नैचिंग की वारदात को अंजाम देते हैं। आपको जानकर हैरानी होगी कि दिल्ली में हो रही अधिकतर वारदात के पीछे वैस्टर्न यूपी के कई बड़े गिरोह हैं जिनके निशाने पर खासकर राजधानी दिल्ली रहती है। इन गिरोहों का सालाना टर्नओवर करोड़ों में है। स्नैचिंग की गई ज्वेलरी सस्ते दामों में यह गिरोह पश्चिमी यूपी में सुनारों से गलवा देते हैं। इससे सुनारों का तो फायदा होता ही है, गिरोह को भी भारी रकम आसानी से मिल जाती है। यही वजह है कि दिल्ली एनसीआर में जब भी स्नैचरों को पुलिस पकड़ती है उनसे रिकवरी नाममात्र ही हो पाती है। सरगनाओं के इशारे पर गिरोह के सदस्य अलग-अलग इलाकों में रेकी करते रहते हैं और फिर हाथ लगे स्नैचिंग की वारदात करके फरार हो जाते हैं। गिरोह के हाथ रोजाना ही दर्जनों सोने की चेन, अन्य गहने और पर्स पहुंच जाते हैं। उनका बाकायदा लेखाजोखा रखा जाता है। जी हां, स्नैचरों को बाकायदा महीने की पगार यानि सैलरी भी दी जाती है। काबिलियत और फुर्ती के हिसाब से स्नैचरों की तनख्वाह तय की जाती है। जो इस काम में महारथ हासिल कर लेता है उसकी सैलरी 80 हजार रुपए महीने तक  हो जाती है। इसका खुलासा दिल्ली एनसीआर में स्नैचिंग की सेंचुरी बना चुके ब्रिजेन्द्र ने उस वक्त किया जब वह नोएडा में वारदात के बाद भागते हुए पब्लिक के शिकंजे में आ गया। उसने पुलिस के सामने जो खुलासा किया तो पुलिस वालों के होश उड़ गए। बेखौफ होने की सबसे बड़ी वजह यह है कि ज्यादातर महिलाएं डर और प्रतिष्ठा की वजह से थानों के चक्कर काटने की फजीहत से बचना चाहती हैं। पुलिस के हाथ आए स्नैचर ब्रिजेन्द्र का रिकॉर्ड खंगाला गया तो पता चला कि पिछले साल गाजियाबाद में कपड़ा व्यापारी से दो लाख की लूट में वह शामिल था। ब्रिजेन्द्र तीन बार जेल जा चुका है। बाबूगढ़ थाने में गैंगस्टर एक्ट में वांछित इस स्नैचर के कबूलनामे पर पता चला कि गिरोह में भर्ती किसी भी मेम्बर के पकड़े जाने पर उस गिरोह के आका जुगाड़ लगाकर जमानत पर छुड़ा लेते हैं। ब्रिजेन्द्र को पुलिस मामूली स्नैचर समझ बैठी थी पर उसकी पीठ पर तो कई बड़े गिरोहों का हाथ था। उसने बताया कि स्नैचरों की कद-काठी और उसकी फुर्ती को देखकर सैलरी तय की जाती है। फ्रैशर्स को हर महीने तकरीबन 30 हजार तक मिलते हैं। उसके बाद जैसे-जैसे स्नैचर का तजुर्बा बढ़ता है उसी हिसाब से सैलरी भी बढ़ती है। कइयों को तो 80 हजार रुपए तक तनख्वाह गिरोह अदा करता है। उसके अनुसार लूटी गई डेढ़ से दो तोले की चेन की कीमत 50 से 80 हजार रुपए होती है। एक दिन में दो-चार चेन उड़ा लीं तो लाखों की इन्कम सरगनाओं को होती है। गिरोह के सदस्यों को एरिया बांटे गए हैं। उनकी हर सप्ताह में शिफ्ट बदल दी जाती है। मसलन बाइक सवार दो स्नैचर एक सप्ताह गाजियाबाद इलाका देख रहे हैं तो वह अगले सप्ताह पूर्वी दिल्ली या साउथ दिल्ली भेज दिए जाते हैं और उनकी जगह दूसरे मेम्बर को शिफ्ट मिल जाती है। गिरोह में फ्रैशर समेत तकरीबन 30 मेम्बर हैं। उसके अनुसार गिरोह में शामिल ज्यादातर मेम्बर पूर्वी दिल्ली, नोएडा, गाजियाबाद, लोनी, खोड़ा कॉलोनी, हापुड़, बुलंदशहर और सिकंदराबाद के हैं। जो अच्छी तरह इलाके की भौगोलिक स्थिति से वाकिफ हैं। कम से कम डेली दो-चार चेन झपटना गिरोह के हर मेम्बर को बाकायदा टारगेट दिया जाता है।

कसाब को फांसी ः भारत ने दुनिया को दिया संदेश हम सॉफ्ट स्टेट नहीं


 Published on 23 November, 2012
 अनिल नरेन्द्र
चार साल पहले मुंबई की गलियों को 165 बेगुनाहों के खून से रंगने वाले पाकिस्तानी आतंकवादी अजमल आमिर कसाब को बुधवार को यरवदा जेल में गुपचुप तरीके से फांसी पर लटका दिया गया। उसे सुबह साढ़े सात बजे फांसी दी गई। यह भी संयोग रहा कि कसाब और उसके नौ दहशतगर्द साथियों ने कत्लेआम के लिए बुधवार का दिन चुना था और यही दिन कसाब के लिए जिन्दगी की आखिरी सुबह लेकर आया। `सी 7096' नाम के इस बेहद खूनी मुजरिम मोहम्मद अजमल आमिर कसाब की लाश को जेल में ही दफन कर दिया क्योंकि उसके आकाओं ने उसका शव लेने से इंकार कर दिया था। ऑपरेशन एक्स को अत्यंत गोपनीय रखा गया। भारत सरकार ने जिस गुपचुप ढंग से लेकिन दृढ़तापूर्वक इस ऑपरेशन एक्स को अंजाम दिया वह सराहना योग्य है। यह कार्य आवश्यक ही नहीं था अनिवार्य भी था। कसाब महज एक आतंकी नहीं था वह आतंक का पर्याय प्रतीक बन गया था। कसाब को फांसी देने का फैसला `देर आयद दुरुस्त आयद' कहावत को चरितार्थ करने के साथ ही यह बताता है कि सरकारें ठान लें तो कठिन नजर आने वाले काम भी कहीं अधिक आसानी से किए जा सकते हैं। भारत के आत्मसम्मान को झकझोर देने वाले 26 नवम्बर 2008 को दुस्साहसिक आतंकी हमले के गुनहगार कसाब को फांसी पर लटका दिए जाने के बाद यह कहा जा सकता है कि मुंबई की धरती पर किए गए गुनाह का इंसाफ हो गया। कसाब को फांसी पर लटकाने की रणनीति में सरकार ने निश्चित तौर पर कई हिसाब-किताब का ध्यान रखा। सबसे पहले तो सरकार की कोशिश अपनी खत्म होती विश्वसनीयता को फिर से बहाल करने की थी और दूसरे 26 नवम्बर के गुनहगार को सजा देने के लिहाज से नवम्बर माह की अपनी अहमियत थी। इन सब गुणा-भाग से अधिक महत्व उस संदेश का है जो नई दिल्ली ने पूरी दुनिया को दिया है और यह संदेश है कि वह देश भी अपने आत्मसम्मान को चोट पहुंचाने वाले आतंकी को सजा देने का साहस रखता है जिसे आमतौर पर आतंकवाद से निपटने के लिए सॉफ्ट स्टेट माना जाता है। वैसे कसाब के इस अन्त में असामान्य जैसा कुछ भी नहीं है। लेकिन पिछले वर्षों में भारत में दुर्दांत आतंकियों को सजा देने को लेकर जैसा लचर रवैया जाहिर होता रहा है, उस लिहाज से कसाब की फांसी पूरे देश के लिए आश्चर्य मिश्रित खुशी की तरह है। अपने इस एक कदम से सरकार ने खुद पर लग रहे आतंकवाद के प्रति नरम रहने के आरोप को खारिज करने की भी सफल कोशिश की है। इससे देश के दुश्मनों तक यह संदेश भी पहुंचा होगा कि वे भारत को `सॉफ्ट स्टेट' समझने की गलती न करें। आतंकवाद से मुकाबला प्रबल इच्छाशक्ति से ही किया जा सकता है। बेहतर होता कि इस इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करने में संकोच और हिचक का वैसा प्रदर्शन करने से बचा जाता जैसा अब तक किया जाता रहा और जिसके कारण भारत सरकार दुनिया की नजरों में तो कमजोर सत्ता के रूप में उभरी ही, देशवासियों के बीच भी उपहास का पात्र बनी। अब सारे देश की नजरें भारतीय संसद पर हमले के दोषी आतंकी अफजल गुरु पर टिकी हैं। बेशक इस लाइन में पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के हत्यारों और पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों पर भी टिकी हैं पर मैं समझता हूं कि सबसे पहले अफजल गुरु को फांसी पर लटकाना चाहिए। उन्होंने राष्ट्र पर तो हमला किया, राष्ट्र सम्मान को भी ठेस पहुंचाई है, किसी व्यक्ति विशेष को नहीं इसलिए उनका अपराध ज्यादा गम्भीर है। सम्भव है कि कश्मीर घाटी में इसकी थोड़ी-बहुत प्रतिक्रिया हो पर उसको कंट्रोल करने के लिए हमारे सुरक्षा बल काफी हैं। वैसे भी घाटी में तो असंतोष, छोटी-मोटी तोड़फोड़ चलती रहती है। इन सभी को फांसी में देरी का एकमात्र कारण संकीर्ण राजनीति के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। इससे बड़ी विडम्बना और कोई नहीं हो सकती कि जो अपराधी किसी नरमी और रहम के काबिल नहीं उसे सजा देने में इसलिए देरी हो रही है क्योंकि कुछ राजनीतिक दल उसे लेकर राजनीति करने में लगे हैं। देखना अब यह होगा कि अफजल एवं अन्य आतंकियों को सजा देने में वैसा ही साहस प्रदर्शित किया जाता है या नहीं जैसा कसाब के मामले में किया गया। अब कसाब को फांसी लगने के बाद भारत को उसके आकाओं तक पहुंचने की पुरजोर कोशिश करनी चाहिए। क्योंकि उन्हें सबक सिखाए बगैर मुंबई हमले के पीड़ितों का न्याय अधूरा ही रहेगा। इसके साथ ही यह वक्त सतर्प रहने का भी है। मुमकिन है कि कसाब के अन्त के बाद बदला लेने के मकसद से पाकपरस्त आतंकी संगठनों द्वारा भारत में किसी घटना को अंजाम देने की कोशिश हो। जरूरी तो यह है कि सतर्पता बरतते हुए हम कसाब से शुरू हुआ इंसाफ का सिलसिला अफजल गुरु और अन्य मौत की सजा पर चुके दुर्दांत आतंकियों तक भी पहुंचें।



Ponty Chaddha – from a petty vendor to 6000 crore rupee empire

Anil Narendra
The murder of Gurdip Singh Chaddha alias Ponty Chaddha (55 years), a liquor baron and real estate businessman and his brother Hardeep Singh Chaddha has startled everybody. A petty vendor selling salted foods, Ponty Chaddha within no time rose to become a billionaire and this greed for wealth and riches led to the murders of both the brothers. It is such a big tragedy that it will be before long that the details of this crime would be revealed, but the story emerged so far says that there was dispute between the two brothers over seven acre property of 40 to 42 DLF Farm Central Drive. Besides, there was also dispute regarding rest of the property between the brothers. Prior to the Saturday incident, there was also firing at ancestral house of Chaddha group at Moradabad on 5th October, but with a few telephone calls, the matter was resolved. Had the matter been taken seriously at that time, may be this tragedy could have been avoided. But, the matter took a worst turn on Saturday. The matter of this Farm House was pending in the High Court. Members of the Committee appointed by the Court were to visit this property within a day or two. The Committee wanted to ascertain as to in whose possession the property was. It is believed that both the parties wanted to prove their possession over the property and the result of which came in the form of firing and the death of both the brothers on Saturday. At present, this property was in the possession of Hardip, the youngest of the three brothers. Hardip had gone somewhere on Saturday. In his absence, Ponty arrived at the Farm House at about 11.30 AM. He was accompanied by 10 to 12 armed men on vehicles. It is being said that he had brought about 50 men with him. Sukhdev Singh, Chairman, Uttarakhand Minority Commission was also present at the time of incident. Immediately, on reaching there, they started locking the rooms of the farm house. Persons, present at the farm house were forcefully ousted from there. In the meantime, an employee of Hardip informed him on phone. After locking the rooms in the farm house, when Ponty was leaving from the back door (towards Mandi Road), Hardip entered from the same gate and both confronted each other. There were heated arguments between the two brothers and it came to such a pass that Hardip took out his licensed pistol and fired at his elder brother. Reacting to this, five security guards of Ponty fired on Hardip. When both the sides started firing at each other, persons from both the groups scampered to hide themselves behind trees. During this incident, Ponty Chaddha received 12 bullets and his brother Hardip got four. Besides these, Narendra, an employee of Ponty was also injured in this firing incident. He received three bullet wounds. Narendra is Pont’s manager. Firing continued in the premises of the farm house for almost half an hour and 40-45 rounds were fired. Injured Ponty was taken to Fortis Hospital, Vasant Kunj, where he was declared dead. Hardip died at the spot. Vivek Gogia, Joint Commissioner of Police, South-west region told that a meeting of both the brothers was scheduled for 11-00 AM on Saturday. About three dozens persons from both the sides were present in the meeting. There started arguments between both the brothers at about 12.30 in the noon and Hardip started firing on Ponty. He was shot at about a dozen times. In retaliation, the security guard of Ponty also fired upon Hardip, who received four bullet injuries and he died on the spot. The PCR was informed of the incident at 12-45PM and the PCR van reached at the incident spot at about 13.15 hrs. Both Ponty and Hardip had already been taken to Fortis Hospital at about 13-00 hrs, where both were declared dead. Police found a Scorpio van outside the farm house. The Police sealed the form house after the incident. The Police also recovered two pistols, one AK-47 rifle and some live cartridges. Was this incident, the result of a deep conspiracy or of instant rage? First of all the Police will have to ascertain that who received which bullet and which weapon was it fired from? The ballistic report can prove to be important in this regard. The bullets extracted from the bodies of both the brothers would be sent to ballistic expert. The ballistic report will provide answers to some unsolved questions, which would prove important in solving the mystery of these murders. For example, how many weapons were used to fire the bullets extracted from the bodies of both the brothers? It would be easier to arrive at the number of aggressors involved in the murders. Delhi Police will also have to find out about the points of dissensions between the two brothers. A few months back, the income tax authorities raided Ponty Chaddha’s premises. The firm information with the Income Tax raid party could only have been provided by some insider. Ponty suspected his brother Hardip for providing information to the income tax authorities. Police is also interrogating the guard, who was injured in the firing incident in the farm house. The Police have taken the servants present at the time of firing at the farm house into custody and are trying to know about the series of incidents. The staff of Hardip Chaddha has told the Police about the scuffle between the brothers on Friday night in the party in this farm house. Ponty has always been a high class operator of low profile. A few persons know about his passion for kite flying. When he was a student of 10th class, his hand got numbed due to electric current through the manjha during kite flying. It was due to this incident that his left hand and two fingers of his right were amputated during an operation. There are so many eye witnesses of this incident that it would be known as to what happened in the farm house on Saturday.

Thursday, 22 November 2012

उत्तर पदेश में निरन्तर बढ़ती महिलाओं से छेड़छाड़ व दुष्कर्म की घटनाएं


 Published on 22 November, 2012
 अनिल नरेन्द्र
उत्तर पदेश में कानून व्यवस्था लगातार बिगड़ती जा रही है। लगता यह है कि इस अखिलेश की सरकार की कानून व्यवस्था पर पकड़ लगातार ढीली होती जा रही है। मानो दबंगों को दबंगई करने का लाइसेंस मिल गया हो। आए दिन अखबारों में पदेश के किसी कोने से चिंता बढ़ाने की खबर आती रहती है। हाल ही में खबर आई कि सहारनपुर जनपद में कमजोर तबके की छात्राओं और महिलाओं के साथ छेड़छाड़, दुष्कर्म और हिंसा की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। पाकिस्तान में जिस तरह मलाला तालिबानी हिंसा की शिकार हुई ठीक उसी तरह जनपद में छात्राओं को परेशानी झेलनी पड़ रही है। उनके परिजन उन्हें स्कूल जाने से रोक रहे हैं। हकीमपुर में पांच साल की दलित बालिका रीना (बदला नाम) के साथ पड़ोसी युवक ने बाथरूम में उस समय दुष्कर्म किया जब वह टीवी देखने आई थी। उससे पहले बहेर थाने के गांव घरौंदी की 28 साल की मुस्लिम महिला शीबा (बदला नाम) को अगवा कर सामूहिक दुष्कर्म किया गया। आरोपी फरार हैं। दूधली निवासी विकलांग बालिका मीनू की गर्दन कटा शव गन्ने के खेत से बरामद हुआ। उसके साथ सामूहिक दुष्कर्म की पुष्टि हुई। फिर पथसराय की 11 साल की दलित बालिका मोनिका को दो युवकों ने अगवा करने के बाद बेहोश कर उसके साथ दुष्कर्म किया। गंगोह में शाम को दुकान पर सामान लेने गई 15 साल की दलित बालिका के साथ दो युवकों ने दुष्कर्म किया। नौ अगस्त को देवबंद क्षेत्र में 14 साल की शगुफ्ता का सामूहिक दुष्कर्म करने के बाद हत्या कर दी गई। ऐसे और बतहेरे केस हुए हैं। मैंने कुछ केसों का ही बताया है। ये सभी घटनाएं मुख्यमंत्री अखिलेश यादव सरकार बनने के बाद घटित हुईं। जिससे पता चलता है कि इस सरकार में आरोपियों के हौंसले कितने बुलंद हैं। बीते महीने को सहारनपुर में महिला हिंसा के विरोध में एक सम्मेलन हुआ। सम्मेलन में सामाजिक संगठनों विकल्प, दिशा, परमय, सरोकार, नारी संसद, वूमन अगेंस्ट, सैक्सूअल हेरासमेंट एक्शन इंडिया, ज्ञानगंगा, शिक्षा समिति और राष्ट्रीय वन जन श्रमजीवी मंच के कार्यकर्ताओं ने बढ़ती महिला हिंसा पर गहरी चिंता जताई। बढ़ती महिला हिंसा का सबसे बुरा पभाव यह हुआ कि कई परिवारों ने बेटियों को स्कूल तक जाने से रोकना शुरू कर दिया है। बालिकाओं की शिक्षा पभवित हो रही है। ज्यादातर मामलों में पुलिस ने कार्रवाई तो की लेकिन सरकार और पुलिस पशासन के लोगों में विश्वास पैदा करने में नाकाम रहे। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने हाल ही में राज्य की कानून व्यवस्था को बेहतर बनाने में कुछ अफसरों तथा मीडिया के एक वर्ग का अपेक्षित सहयोग न मिलने का इशारा देते हुए कहा कि उनकी सरकार बाकी मोर्चों पर तो बेहतर समन्वय स्थापित कर पा रही है, लेकिन कानून-व्यवस्था का राज कायम करने के मसले पर कहीं कोई कमी बाकी है। मुख्यमंत्री लखनऊ में महिलाओं के लिए हैल्पलाइन सेवा 1090 की शुरुआत कर रहे थे। उन्होंने कहा सबसे ज्यादा आरोप उत्तर पदेश की कानून व्यवस्था को लेकर लग रहे हैं। हम तमाम चीजों पर समन्वय कर पा रहे हैं लेकिन कानून व्यवस्था के मामले में ऐसा नहीं हो पा रहा है। पुलिस में अच्छे लोग भी हैं लेकिन कहीं न कहीं कुछ कमी भी है।

क्या राहुल दल-दल में फंसी कांग्रेस को बाहर निकाल पाएंगे?


  Published on 22 November, 2012
 अनिल नरेन्द्र
कांग्रेस पार्टी में राहुल गांधी की 2014 के लोकसभा चुनाव में बड़ी भूमिका होगी। यह कांग्रेस समन्वय समिति के हाल में गठन से साफ हो गया है। कांग्रेस समन्वय समिति का राहुल को अध्यक्ष बनाया गया है और उनकी टीम को पाथमिकता दी गई है। हाई पावर इस टीम के अन्य सदस्यों से पता चलता है कि इस समिति को ही 2014 के लोकसभा चुनाव को जिताने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। टीम में अहमद पटेल, जनार्दन द्विवेदी व दिग्विजय सिंह ऐसे चेहरे हैं जिससे स्पष्ट संकेत मिलता है कि समिति को पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी का पूरा आशीर्वाद है। समिति के गठन से यह भी साफ हो गया है कि सोनिया गांधी के बाद सबसे महत्वपूर्ण राहुल गांधी हैं। यों पार्टी में उनकी अहमियत को लेकर कभी कोई संशय नहीं रहा है लेकिन औपचारिक तौर पर अभी तक उनकी सकियता पर्दे के पीछे और युवा और छात्र संगठनों में ज्यादा रही है। पिछले कुछ दिनों से यह कयास लगाया जा रहा था कि राहुल गांधी को संगठन में ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी मिलेगी। अब उम्मीदवार के चयन से लेकर तमाम चुनाव पचार चलाने का जिम्मा उन्हें सौंपकर कांग्रेस ने अपनी नीति साफ कर दी है। सवाल महत्वपूर्ण यहां यह है कि क्या चेहरे बदलने से कांग्रेस का भविष्य उज्ज्वल हो जाएगा? राहुल गांधी का चुनाव जिताने का ट्रैक रिकॉर्ड भी कोई ज्यादा उत्साह भरने वाला नहीं। बिहार व उत्तर पदेश में उनके नेतृत्व में पार्टी का क्या हाल हुआ किसी से छिपा नहीं। अगर मनमोहन सरकार की नीतियां नहीं बदलीं तो शायद राहुल भी फेल हो जाएं। आज पार्टी और सरकार दोनों ही आम आदमी से कट चुके हैं। लोग भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी से परेशान हैं। जब तक उन्हें इन मामलों में राहत नहीं मिलती हमें नहीं लगता कि कांग्रेस का भविष्य उज्ज्वल हो सकता है। पर राहुल को आगे करने से दो बातें उनके पक्ष में जरूर जाती हैं। पहली यह कि नेहरू गांधी परिवार की वजह से कांग्रेसियों की संदिग्ध वफादारी उनके साथ होगी। दूसरी 2009 के चुनावों के बाद जैसी अतिशय उम्मीदें और पचार उनके साथ जुड़ गया था, अब वह नहीं होगा। 2009 के बाद वह मध्यवर्ग के नायक थे। तमाम नौजवान उनमें अपना नेता देख रहे थे। अब ऐसा नहीं, इसलिए वह बिना किसी बोझ के काम कर सकते हैं। अब उन्हें अपेक्षाओं की चकाचौंध नहीं घेरेगी। राहुल गांधी को सौंपी गई नई जिम्मेदारी कांग्रेसी कार्यकर्ता की आम भावना को ही पतिबिंबित करती है। पर यही उनकी सबसे बड़ी चुनौती व परीक्षा भी होगी, क्योंकि कांग्रेस अपने इतिहास में शायद अब तक की सबसे कठिन चुनौती का सामना करने जा रही है। क्या राहुल गांधी का नेतृत्व अगले आम चुनाव में खरा था उम्मीदों के अनुरूप साबित होगा? जहां तक नीतियों और मुद्दों का सवाल है अभी तक तो राहुल गांधी ने कोई स्पष्ट संकेत नहीं दिए हैं। वे अपनी पसंद या सुविधा से किसी मुद्दे को उठाते हैं और फिर उसे बीच में ही छोड़ देते हैं। चुनाव में राहुल गांधी पार्टी को कितनी सफलता दिला पाएंगे यह तो बाद में ही पता चलेगा, पर चुनाव अभियान की बागडोर थाम कर वे मनमोहन सिंह सरकार के कामकाज की जवाबदेही से बच नहीं सकते। वह जीतते हैं तो सारा जग उनका, पर हारते हैं तो शायद कांग्रेस का स्वरूप ही बदल जाए।

Wednesday, 21 November 2012

इजरायल बनाम हमास लड़ाई खतरनाक मोड़ पर


 Published on 21 November, 2012
 अनिल नरेन्द्र
मध्य पूर्व एशिया में गाजा पट्टी और इजरायल में पिछले कई दिनों से लड़ाई खतरनाक स्थिति में पहुंचती जा रही है। गत दिनों फिलीस्तीनी चरमपंथियों ने यरुशलम पर एक रॉकेट से हमला किया। फिलीस्तीनी संगठन हमास ने कहा कि इस रॉकेट का निशाना इजरायली संसद सीनेट था। पिछले कई दशकों में यह पहली बार है कि यरुशलम को निशाना बनाया गया है और गाजा पट्टी से इस तरह का यह पहला हमला था। इजरायल ने जवाबी कार्रवाई करते हुए रविवार को पांचवें दिन गाजा क्षेत्र में जमीन और समुद्र से मिसाइल हमले किए। इनमें चार बच्चों सहित 18 लोगों की मौत हो गई। अब तक इजरायली हमलों में 60 जानें जा चुकी हैं और यह हमले जारी हैं। इजरायली गृहमंत्री ने कहा कि तभी हम 40 साल तक शांति से रह पाएंगे। इजरायल के हवाई हमलों में मीडिया दफ्तरों की इमारतें भी चपेट में आईं और आठ फिलीस्तीनी पत्रकार घायल हो गए। गाजा में हमास की ओर से किए गए दो रॉकेट हमलों को इजरायल की मिसाइल रोधक प्रणाली ने नाकाम कर दिया। बुधवार को इजरायली हमले में हमास के कमांडर के मारे जाने के बाद से यहां इजरायल-हमास संघर्ष भड़क गया। सीमा पर इजरायली सेना का बड़ा जमावड़ा हो गया है। इससे जमीनी हमले की भी आशंकाएं बढ़ गई हैं। हालांकि ब्रिटेन ने चेतावनी दी है कि अगर उसने ऐसा किया तो उसे अंतर्राष्ट्रीय समर्थन बन्द हो सकता है। मिस्र ने भी इसके गम्भीर नतीजों की चेतावनी दी है। वहीं अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा कि वह बचाव करने के इजरायल के अधिकार का सम्मान करते हैं। रविवार का दिन पिछले हफ्ते शुरू हुए इस संघर्ष के बाद सबसे ज्यादा खतरनाक दिन रहा। ये हमले हमास के कमांडर को लक्ष्य करके किए गए थे। लेकिन इसमें कमांडर के साथ-साथ कई बच्चों की भी जान चली गई। इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहू ने कहा है कि इजरायल हमले और तेज करने के लिए तैयार बैठा है। इस बीच हमास के चरमपंथी भी जवाबी कार्रवाई जारी रखे हुए हैं। उन्होंने इजरायल की ओर रॉकेटों से कई हमले किए हैं। सभी ओर से संघर्ष विराम की कोशिशें लगातार जारी हैं। इजरायली सरकार का एक दूत इस बारे में बातचीत करने काहिरा गया हुआ है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून भी काहिरा पहुंचने वाले हैं, जबकि अरब लीग का एक प्रतिनिधिमंडल मंगलवार को गाजा का दौरा करने वाला है। पिछले कई दिनों से हमास तथा इजरायल की तरफ से एक-दूसरे को निशाना बनाया जा रहा है और दोनों ही यह स्वीकार भी कर रहे हैं। अन्तर बस इतना है कि इजरायली डिफेंस फोर्स (आईडीएफ) इसे आतंकी ठिकानों पर किया गया हमला मानती है और हमास सहित अरब दुनिया या उससे जुड़े तमाम चरमपंथी संगठन इसे गाजा के निर्दोष लोगों के खिलाफ हमला मान रहे हैं। दोनों देशों द्वारा अपनाई जा रही गतिविधियों को देखते हुए यह कहना शायद गलत होगा कि इस स्थिति के लिए कोई एक दोषी है। प्राप्त संकेतों से तो लगता है कि सारा मामला हमास द्वारा यरुशलम पर रॉकेट दागने से शुरू हुआ और अपनी सर-जमीन की सुरक्षा करने हेतु इजरायल ने जवाबी कार्रवाई की। जरूरी है कि यह लड़ाई रुकनी चाहिए और इसे और खतरनाक रूप नहीं लेना चाहिए नहीं तो स्थिति नियंत्रण से बाहर होगी।

नरेन्द्र मोदी ने 3डी इस्तेमाल कर एक साथ 4 शहरों को सम्बोधित किया


 Published on 21 November, 2012
 अनिल नरेन्द्र
गुजरात विधानसभा चुनाव होने जा रहा है। मतदान 13 और 17 दिसम्बर को होना है। चुनाव तो बेशक गुजरात का है पर इस चुनाव पर सारे देश की नजरें टिकी हुई हैं। कुछ हद तक यह पूरे देश के भविष्य की राजनीति की दिशा तय कर सकता है। गुजरात में भाजपा का मुख्य मुकाबला कांग्रेस से है। गुजरात के बहुचर्चित मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रतिष्ठा दांव पर है। अगर वह यहां से फिर जीतते हैं और अच्छे मार्जिन से जीतते हैं तो न केवल भाजपा को नई ऊर्जा मिलेगी बल्कि सम्भव है कि नरेन्द्र मोदी सेंटर स्टेज पर आ जाएं और 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के प्रधानमंत्री उम्मीदवार बन जाएं। इस दृष्टि से यह चुनाव नरेन्द्र मोदी के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन गया है। नरेन्द्र मोदी ने गुजरात विधानसभा चुनाव 2012 के चुनाव प्रचार को एक नया आयाम दिया है। भाजपा के पोस्टर ब्वॉय नरेन्द्र मोदी रविवार को 3डी अवतार में नजर आए। दरअसल मोदी ने इस  तकनीक की मदद से रविवार को अहमदाबाद, सूरत, राजकोट एवं वड़ोदरा में एक साथ चार सभाओं को सम्बोधित किया। इसमें मोदी का पहले से रिकॉर्डिड संदेश दिखाया गया। हाइटैक टेक्नोलाजी की मदद से ऐसा आभास हो रहा था। मानों मोदी स्वयं चारों स्थानों पर मौजूद हैं और स्वयं मंच से सम्बोधित कर रहे हैं। 3डी मंच के जरिए चुनाव प्रचार का यह तरीका देश के लिए बिल्कुल नया है। दुनिया में सिर्प दो मौकों पर, पहली बार प्रिंस चार्ल्स द्वारा और दूसरी बार पिछले अमेरिकी चुनाव में अलगोर द्वारा इसका उपयोग किया गया था। देश की राजनीति में इसे लाने का श्रेय निश्चित तौर पर नरेन्द्र मोदी को जाएगा। आखिर क्या है 3डी मंच, किस तरह काम करता है, कैसे इसके जरिए एक साथ चार-पांच सभाएं ली जा सकती हैं? शब्दों में इसे बताना मुश्किल है पर मोटे तौर पर प्रोजैक्ट से मोदी की फोटो सरफेस से टकराती है, जो स्टेज पर 45 डिग्री के एंगल पर दिखाई पड़ती है। सामान्य समझ है कि विशेष चश्मे के बिना 3डी इफैक्ट को देखा नहीं जा सकता। लेकिन होलोग्रेफिक फाइल की मदद से बिना चश्मे के यह सम्भव हुआ है। स्टेज पर प्लास्टिक सीट की तरह पारदर्शी क्रीन लगाई जाती है, जिस पर रिफ्लैक्टिव सरफेस से इमेज बनती है। पहले 3डी मंच से नरेन्द्र मोदी ने कहा, गुजरात की 6 करोड़ जनता राम है मैं उनका वानर। मुझे मौका मिला है कि मैं हनुमान की तरह उनकी सेवा करूं। प्राप्त संकेतों से और सर्वेक्षणों से यही पता चलता है कि नरेन्द्र मोदी की जीत लगभग तय है। अब अगर नरेन्द्र मोदी 120 से अधिक सीटें लाने में सफल हो जाते हैं तो वह राष्ट्रीय स्तर पर 2014 की लड़ाई मोदी बनाम राहुल हो जाएगी। अगर 110 से कम सीटें आती हैं तो मोदी को भाजपा के भीतर से चुनौती मिल सकती है। उनके गुजरात डेवलपमेंट मॉडल पर भी प्रश्न उठने लगेंगे। इस सूरत में क्या अगली लड़ाई मोदी बनाम राहुल का रूप लेगी? हां अगर 100 से 105 सीटों तक भाजपा सिमट जाती है तो उसके मोदी के लिए दुष्परिणाम हो सकते हैं और मोदी की व्यक्तिगत स्थिति राज्य में और केंद्र दोनों में कमजोर होगी। यह अभी भी समय है। चुनाव में दिन-प्रतिदिन स्थिति बदलती रहती है।
           

Tuesday, 20 November 2012

दालमोठ बेचने से 6000 करोड़ रुपए का साम्राज्य बनाने वाले पोंटी चड्ढा


 Published on 20 November, 2012
 अनिल नरेन्द्र
उत्तर भारत के बड़े शराब और रियल एस्टेट व्यवसायी गुरदीप सिंह चड्ढा उर्प पोंटी चड्ढा (55) और उनके भाई हरदीप सिंह चड्ढा हत्याकांड ने सभी को चौंका दिया। एक रेहड़ी पर नमकीन सामान बेचने वाले पोंटी चड्ढा अरबों के मालिक देखते ही देखते बन गए पर धन-दौलत के लालच ने भाई-भाई को मरवा दिया। चूंकि यह इतना बड़ा हादसा है कि इसकी सारी डिटेल्स आने में समय लगे पर जो कहानी अब तक उभरकर आई है वह कुछ ऐसी है। लगभग सात एकड़ क्षेत्र में फैले फार्म हाउस संख्या 40 से 42 डीएलएफ फार्म सेंट्रल ड्राइव की प्रॉपर्टी को लेकर दोनों भाइयों में विवाद चल रहा था। इसके अलावा भी बाकी सम्पत्ति को लेकर दोनों भाइयों में विवाद चल रहा था। शनिवार के वाकया से पहले 5 अक्तूबर को भी मुरादाबाद में चड्ढा ग्रुप की पुश्तैनी कोठी में फायरिंग हुई पर दो-चार फोन कॉलों से मामला दबा दिया गया। मगर उसी दिन मामले की गहराई तक पहुंचा जाता तो शायद शनिवार का यह हादसा टल जाता। खैर! शनिवार को इस विवाद ने भयानक रूप ले लिया। इस फार्म हाउस का मामला हाई कोर्ट में चल रहा था। एक-दो दिन के भीतर ही कोर्ट द्वारा गठित एक कमेटी के सदस्यों ने इस प्रॉपर्टी को देखने आना था। कमेटी देखना चाहती थी कि आखिर वहां पर किसका कब्जा है। माना जा रहा है कि दोनों पक्ष सम्पत्ति को अपने कब्जे में दर्शाना चाहते थे, जिसका नतीजा शनिवार को गोलीबारी और दोनों भाइयों की मौत के रूप में सामने आ गया। यह प्रॉपर्टी इन दिनों तीनों भाइयों में सबसे छोटे भाई हरदीप के कब्जे में थी। शनिवार सुबह हरदीप कहीं गया हुआ था। पीछे से दिन में लगभग साढ़े 11 बजे पोंटी फार्म हाउस पर पहुंचे। वह अपने साथ 10 से 12 गाड़ियां भरकर हथियारबंद आदमी लाए थे। इनकी संख्या 50 बताई जा रही है। घटना के समय उत्तराखंड अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष सुखदेव सिंह भी मौजूद थे। फार्म हाउस के अन्दर घुसते ही इन लोगों ने वहां के कमरों में ताले लगाने शुरू कर दिए। जो लोग वहां मौजूद थे उन्हें डरा-धमकाकर बाहर निकाल दिया। यह देख हरदीप के एक कर्मचारी ने उन्हें फोन कर सूचना दी। फार्म हाउस के कमरों में ताले लगाने के बाद पोंटी अपने लोगों के साथ पीछे के रास्ते (मांडी रोड की तरफ वाला) से बाहर निकलने लगे। इसी रास्ते से हरदीप भी प्रवेश कर रहे थे। हरदीप के साथ उनके तीन सुरक्षा गार्ड भी थे। तभी दोनों का आमना-सामना हो गया। दोनों के बीच कहासुनी से शुरू हुई बात इतनी बढ़ गई कि पहले हरदीप ने अपनी लाइसेंसी पिस्टल निकालकर बड़े भाई पोंटी पर फायर किया। यह देख पोंटी के पांच सुरक्षा गार्डों ने हरदीप पर गोलियां चला दीं। दोनों ओर से फायरिंग शुरू होने पर दोनों गुटों के लोग इधर-उधर भाग पेड़ों की ओट में छिपने लगे। इस वारदात में पोंटी चड्ढा को 12 गोलियां और उसके भाई हरदीप को चार गोलियां लगीं। इसके अलावा नरेन्द्र नामक पोंटी का जो कर्मी घायल हुआ है उसे भी तीन गोलियां मारी गई हैं। उसका ऑपरेशन हुआ है। नरेन्द्र पोंटी का मैनेजर है। फार्म हाउस के अन्दर लगभग आधे घंटे तक दोनों ओर से 40-45 गोलियां चलीं। वारदात में घायल पोंटी के लोग उसे अचेत हालत में फोर्टिस बसंत पुंज अस्पताल ले गए जहां उसे मृत घोषित किया गया। हरदीप ने मौके पर ही दम तोड़ दिया। दक्षिण पश्चिमी परिक्षेत्र के ज्वाइंट कमिश्नर विवेक गोगिया ने बताया कि शनिवार सुबह करीब साढ़े 11 बजे दोनों भाइयों की मीटिंग थी। मीटिंग में दोनों पक्षों के करीब तीन दर्जन से ज्यादा लोग मौजूद थे। दोपहर करीब साढ़े 12 बजे भाइयों में बहस हुई और हरदीप ने पोंटी पर फायरिंग शुरू कर दी। उन्हें करीब एक दर्जन गोलियां मारी गईं। जवाबी कार्रवाई में पोंटी के गार्ड ने भी हरदीप पर गोलियां दागीं। हरदीप को चार गोलियां लगीं और मौके पर ही उसकी मौत हो गई। पौने एक बजे पीसीआर को इस घटना की सूचना दी गई। सूचना के बाद करीब सवा बजे पीसीआर की गाड़ी फार्म हाउस पहुंची। पोंटी और हरदीप को पुलिस के पहुंचने से पहले ही करीब एक बजे बसंत पुंज स्थित फोर्टिस अस्पताल ले जाया जा चुका था, जहां डाक्टरों ने दोनों को मृत घोषित कर दिया। पुलिस को फार्म हाउस के बाहर एक स्कोर्पियो कार भी मिली है। घटना के बाद पुलिस ने फार्म हाउस को सील कर दिया। फार्म हाउस से दो पिस्टल, एक एके-47 राइफल और कुछ जिन्दा कारतूस भी बरामद हुए हैं। यह हत्याकांड किसी गहरी साजिश का नतीजा था या फिर मौके पर आए गुस्से का? सबसे पहले तो पुलिस को यह पता करना होगा कि किसको कौन-सी गोली लगी और वह किस हथियार से फायर की गई? इस सिलसिले में बैलेस्टिक रिपोर्ट महत्वपूर्ण साबित हो सकती है। पोस्टमार्टम के दौरान दोनों भाइयों के शरीर से निकाली गईं गोलियों को बैलेस्टिक एक्सपर्ट के पास भेजा जाएगा। बैलेस्टिक रिपोर्ट से कई ऐसे अनसुलझे सवालों के जवाब मिल जाएंगे, जिसके जवाब इस हत्याकांड की गुत्थी को सुलझाने के लिए अत्यंत जरूरी हैं। मसलन पोंटी चड्ढा और हरदीप चड्ढा के शरीर में मौजूद गोलियां कितने हथियारों से चलीं? हथियारों की संख्या से अनुमान लगाना आसान होगा कि हत्याकांड में कितने हमलावर शामिल हैं। दिल्ली पुलिस को यह भी पता लगाना होगा कि दोनों भाइयों के बीच किन-किन बातों को लेकर मतभेद थे। कुछ महीने पहले पोंटी चड्ढा के यहां आयकर विभाग के छापे पड़े थे। जिस प्रकार की सटीक जानकारी इन्कम टैक्स पार्टी को थी वह कोई अन्दर का आदमी ही दे सकता था। पोंटी को भाई हरदीप पर शक था। फार्म हाउस में घायल हुए गार्ड से भी पूछताछ की जा रही है। पुलिस ने मौके वारदात में मौजूद नौकरों को हिरासत में ले लिया है और पूरे घटनाक्रम को जानने की कोशिश कर रही है। हरदीप चड्ढा के स्टाफ ने पुलिस को बताया कि शुक्रवार रात्रि इसी फार्म हाउस पार्टी में भी दोनों भाइयों के बीच लम्बी तकरार हुई थी। पोंटी हमेशा लो-प्रोफाइल के हाई क्लास ऑपरेटर रहे। बहुत कम लोगों को मालूम है कि उन्हें पतंगबाजी का भी शौक था। जब वे 10वीं में पढ़ते थे तो पतंगबाजी के दौरान तार लगा मांझा बिजली करंट की चपेट में आ गया और पोंटी का हाथ सुन हो गया था। इस वजह से ऑपरेशन के दौरान उनका बायां हाथ और दाहिने हाथ की दो अंगुलियों को काटना पड़ा था। इस हत्याकांड के इतने चश्मदीद गवाह हैं कि यह तो पता चल जाएगा कि शनिवार को फार्म हाउस में हुआ क्या था।