Thursday, 8 November 2012

सवाल लोकायुक्त के अधिकारों और संसाधनों का


 Published on 8 November, 2012
 अनिल नरेन्द्र
     मुख्य सतर्पता आयुक्त (सीवीसी) की मानें तो भ्रष्टाचारियों को सजा देने के मामले में सरकारी एजेंसियां फिसड्डी साबित हुई हैं। उनका साफ कहना है कि इन मामलों में हमारा रिकॉर्ड एकदम दयनीय है। इसमें शासन के पति जनता का विश्वास उठता जा रहा है। सीवीसी आयुक्त आर. श्रीकुमार ने 11वें अखिल भारतीय लोकायुक्त सम्मेलन को संबोधित करते हुए शनिवार को कहा कि भ्रष्टाचार रूपी राक्षस का अगर सर्वनाश करना है तो हमें (सरकारी जांच एजेंसियों को) आपस में हाथ मिलाना होगा। भ्रष्टाचार के खिलाफ मौजूदा कार्यपणाली का जिक करते हुए सीवीसी का कहना था कि भ्रष्टाचार के मोर्चे पर हम अलग-अलग काम कर रहे हैं। बमुश्किल हम समन्वय स्थापित करते हैं। यही कारण है कि भ्रष्टाचारी को सजा दिला पाना एक दुष्कर कार्य हो गया है। हमारी राय में भ्रष्टाचार से कारगर ढंग से निपटने के लिए यह जरूरी है कि हम निगरानी और जांच का तंत्र मजबूत करें। इसलिए लोकयुक्तों का यह कहना वाजिब है कि उन्हें और अधिकार दिए जाएं। हर बार लोकायुक्तों के सम्मेलन में यह मांग उठती रही है लेकिन सत्ता में बैठे सियासतदान इसकी हर बार अनसुनी कर देते हैं। दरअसल राजनीतिक दलों की इस बात में ज्यादा दिलचस्पी है कि पतिद्वंद्वी दलों और विपक्षी नेताओं पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों का किस तरह सियासी फायदा उठाए जाएं। लेकिन ऐसे हर मामले की समय से जांच पूरी हो और उसे तार्पिक परिणति तक ले जाया जाए, ऐसी व्यवस्था बनाने के पति वे उदासीन और अनिच्छुक रहते हैं। हालत यह है कि इतने वर्षों के बाद भी अभी तक देश के केवल सत्रह राज्यों में ही लोकायुक्त संस्था का गठन हो पाया है। जहां यह लोकायुक्त हैं भी, एक-दो राज्यों को छोड़कर उनके अधिकार और संसाधन बेहद सीमित हैं। ऐसे में उनकी भूमिका महज सिफारिशी होकर रह जाती है। लोकायुक्त को सबसे ज्यादा अधिकार कर्नाटक में हासिल हैं और इसके अच्छे नतीजे भी देखने को आए हैं। वहां के लोकायुक्त रहने के दौरान जस्टिस संतोष हेगड़े ने बेल्लारी के अवैध खनन के बारे में विस्तृत रिपोर्ट दी और अनेक अफसरों के अलावा राजनीतिक रूप से कई ताकतवर लोग भी कार्रवाई के दायरे में आए। पूरे देश में एक जैसा लोकायुक्त कानून बने और इस संस्था को पर्याप्त सक्षम बनाया जाए यह वक्त का तकाजा है। पर मौजूदा राजनीतिक माहौल में ऐसा होते दिखता नहीं। दुख से कहना पड़ता है कि लोकायुक्त एक नाम की संस्था बनकर रह जाएगी।

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