Published on 10 November, 2012
नितिन गडकरी प्रकरण को लेकर संघ और भाजपा की अंदरूनी खींचतान सतह पर आ गई है। आज दरअसल मुद्दा यह नहीं रहा कि नितिन गडकरी कसूरवार हैं या नहीं, उन्हें त्यागपत्र देना चाहिए या नहीं पर मुद्दा यह है कि क्या राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भारतीय जनता पार्टी को एक स्वतंत्र राजनीतिक पार्टी की तरह चलने भी देगा या नहीं। इस सिलसिले में मुझे एक पुरानी कहावत याद आ रही है। बहुत समय पहले एक सर संघ चालक शायद वह गुरु गोलवरकर थे, ने कहा था कि भाजपा संघ के लिए गाजर की पुंगी है जब तक बजे बजाओ और न बजे तो खा जाओ। ठीक आज यही स्थिति है। यदि आज भाजपा और संघ नितिन गडकरी को लेकर एक बार फिर संकटग्रस्त नजर आने लगी हैं तो इसके लिए वह किसी और को दोषी नहीं ठहरा सकतीं। मौजूदा हालात में राजनीतिक रूप से गडकरी का बचाव करना कितना कठिन हो गया है, यह इससे समझा जा सकता है कि उनके एक बेतुके बयान ने पार्टी के लिए बवंडर खड़ा कर दिया है। पहले केवल राम जेठमलानी विरोध कर रहे थे लेकिन अब तो भाजपा में खुली बगावत हो गई है। भाजपा नेतृत्व को यह अहसास होना चाहिए कि वह कांग्रेस नहीं है, जहां गांधी परिवार का निर्णय अंतिम होता है। यहां संघ का निर्णय अंतिम होता है। तभी तो आरोपों के बावजूद सर संघ चालक मोहन भागवत नितिन गडकरी को जबरन क्लीन चिट देने पर तुले हुए हैं। यदि संघ का कोई चार्टर्ड एकाउंटेंट वित्तीय तकनीक के आधार पर यह साबित कर दे कि नितिन गडकरी ने कोई वित्तीय गड़बड़ी नहीं की है तो इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि गडकरी पाक-साफ साबित हो गए। वित्त विश्लेषक तकनीकी आधार पर कारपोरेट गड़बड़ियां निकालते-छिपाते हैं। जबकि चार्टर्ड एकाउंटेंट बैलेंसशीट बनाने के लिए कैसे-कैसे हथकंडे अपनाते हैं, यह सबको पता है। इसलिए सवाल तो यह उठता है कि यदि गडकरी का खाता बही सही है तो वे उनकी सरकारी एजेंसियों की जांच की रिपोर्ट की प्रतीक्षा करने से क्यों घबराते हैं। यदि गडकरी और संघ में इतना ही आत्मविश्वास होता तो उन्हें स्वत अध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर सरकारी जांच एजेंसियों की रिपोर्ट की प्रतीक्षा करनी चाहिए थी। आखिर यही बात तो भाजपा और संघ आरोपी कांग्रेसी नेताओं के बारे में कहते हैं। हम श्री लाल कृष्ण आडवाणी, जसवंत सिंह, यशवंत सिन्हा की दुविधा समझ सकते हैं। भाजपा नेतृत्व ने संसद के शीत सत्र में कोयला ब्लॉक आवंटन से लेकर रसोई गैस, हेराल्ड हाउस विवाद और रॉबर्ट वाड्रा मामले संसद में उठाने की जबरदस्त तैयारी कर रखी थी। पार्टी नेताओं ने जगह-जगह इसका ऐलान भी किया है। मगर अब गडकरी के खिलाफ बने माहौल से विपक्ष के हमलों की धार पुंद हो सकती है। चूंकि गडकरी के खिलाफ पार्टी के अन्दर भी विद्रोह छिड़ गया है लिहाजा पार्टी की स्थिति और कमजोर हुई है। सूत्रों की मानें तो कांग्रेस पार्टी भी नहीं चाहती कि संसद सत्र से पहले गडकरी पद छोड़ें। यूपीए सरकार कामकाज और छवि बदलने के लिहाज से संसद के इस सत्र को लेकर काफी उम्मीदें लगाए हुए है। सरकार के रणनीतिकार हर हाल में सत्र को सफल बनाना चाहते हैं ताकि बजट सत्र तक माहौल में कुछ सुधार लाया जा सके। मंत्रिमंडल में विस्तार का भी यही उद्देश्य है। यह तो अब साफ हो चुका है कि नितिन गडकरी को संघ का खास आशीर्वाद प्राप्त है, नागपुर के खास निर्देश के चलते ही महाराष्ट्र के क्षेत्रीय स्तर के नेता गडकरी अचानक पार्टी के शीर्ष पद पर तीन साल पहले बैठा दिए गए थे। उनकी कार्यशैली को लेकर पार्टी के अन्दर पहले दिन से ही विवाद था। फिर भी संघ की इच्छा को देखकर उन्हें अध्यक्ष के तौर पर दूसरा कार्यकाल देने की तैयारी पूरी हो चुकी है। इसके लिए पार्टी ने पिछले दिनों अपने संविधान में आवश्यक संशोधन तक कर डाला ताकि गडकरी के रास्ते की यह तकनीकी दिक्कत भी दूर हो जाए। जनता अक्सर यह सवाल पूछती है कि भाजपा कांग्रेस की इतनी दयनीय स्थिति होने के बावजूद अपने आपको एक विकल्प के रूप में पेश क्यों नहीं कर पाती? माहौल बने होने पर भी आज कोई यह कहने को तैयार नहीं कि भाजपा को लाओ देश बचाओ। आखिर क्यों? मेरी राय में इसकी एक बहुत बड़ी वजह है संघ की दखलअंदाजी। संघ भाजपा को चलने ही नहीं देता। कम से कम एक राजनीतिक पार्टी के ढंग से नहीं तभी तो एक उद्योगपति को इस बेशर्मी से डिफैंड किया जा रहा है। दुख से कहना पड़ता है कि संघ में भी अब लालच बढ़ गया है और गडकरी इसके एक माध्यम बन गए हैं। यही वजह है कि छह राज्यों में शानदार सरकार चलाने के बावजूद भाजपा आज कांग्रेस का विकल्प नहीं बन पा रही है। निसंदेह आरोप लगने मात्र से गडकरी या कोई नेता दोषी नहीं हो जाता, लेकिन आप किस-किस को समझाएंगे कि गडकरी के पूर्ति समूह को लेकर जो तमाम आरोप उन पर लगे हैं वे निराधार हैं? नैतिकता का तकाजा तो यह कहता है कि राजनीति के उच्च पदों पर आसीन लोग गम्भीर आरोप लगने के उपरांत निर्दोष सिद्ध होने तक अपना पद छोड़ देते हैं। भाजपा में इसकी प्रथा भी है। खुद लाल कृष्ण आडवाणी ने हवाला कांड में नाम आने पर ऐसा ही किया था। मदन लाल खुराना, उमा भारती ने भी वही किया था। इस खींचतान में संघ बेनकाब हो गया है। संघ के दबाव में सुषमा स्वराज, अरुण जेटली सरीखे के भाजपा नेता मैदान में तो उतरे लेकिन आडवाणी ने उसमें शामिल न होकर अपना विरोध जता दिया है। यही नहीं संघ का प्रतिक्रियावादी चेहरा भी उभरकर सामने आया है। आखिर ऐसी क्या वजह थी कि सर संघ चालक मोहन भागवत को गडकरी को बचान के लिए खुद मैदान में कूदना पड़ा? संघ ने ऐसा पहले तो कभी नहीं किया? हमारा मानना तो अब यह है कि भाजपा को अगर बतौर एक राजनीतिक पार्टी आगे चलना है तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की दखलअंदाजी पूरी तरह समाप्त करनी होगी। संघ की स्थापना राजनीति करने के लिए नहीं हुई है। वह वही काम करे जिसके लिए अस्तित्व में आई थी। इस गैंग ऑफ नागपुर से पिण्ड छुड़ाना ही होगा।
-अनिल नरेन्द्र
No comments:
Post a Comment