Saturday 24 November 2012

बाला साहेब की विरासत को आगे कौन बढ़ाएगा?


 Published on 24 November, 2012
 अनिल नरेन्द्र

बाला साहेब ठाकरे के निधन के बाद यह सवाल उठना स्वाभाविक ही है कि शिवसेना का अब क्या होगा? सेना सुप्रीमो का पद रहेगा या खत्म होगा या कोई अन्य घोषणा होगी? जब भी कोई बड़ा नेता जाता है तो संगठन में परिवर्तन होता है। शिवसेना में तो नेतृत्व का एक तरह से शून्य पैदा हो गया है। बेटा उद्धव उस स्तर का न तो नेता है और न ही कार्यकर्ताओं में पिता समान पकड़ व इज्जत। भतीजे राज ठाकरे ने अलग होकर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) का गठन कर अपनी अलग पहचान बहरहाल जरूर बनाने का प्रयास किया है और कुछ हद तक सफल भी रहे हैं पर अकेले उनमें भी वह दम नहीं जो बाला साहेब में था। बाला साहेब के जाने के बाद शिव सैनिकों में मायूसी का इस शिव सैनिक की टिप्पणी से पता चलता है। शिव सैनिक का कहना था कि बाला साहेब के निधन के बाद मराठी मानुष खुद को अनाथ, असहाय और असुरक्षित महसूस कर रहा है। इन हालात में अब दोनों भाइयों को लोगों के हित में निश्चित ही एकजुट होकर साथ आना चाहिए। सवाल यह है कि शिव सैनिक तो चाहते हैं कि उद्धव और राज एक साथ मिलकर बाला साहेब की विरासत को आगे बढ़ाएं पर क्या यह सम्भव है? बाल ठाकरे ने कई बरस पहले ही अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी तय कर दिया था, अपने पुत्र उद्धव ठाकरे को शिवसेना का कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर। इसी के साथ पार्टी में नेतृत्व को लेकर विवाद की गुंजाइश भी अपनी ओर से समाप्त कर दी थी। अलबत्ता पार्टी को इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी। बाल ठाकरे के भतीजे राज ठाकरे शिवसेना से अलग हो गए और 2006 में उन्होंने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना नाम से अपना अलग दल बना लिया। छग्गन भुजबल और फिर नारायण राणे जैसे कई जनाधार वाले नेता इससे भी पहले शिवसेना छोड़ चुके थे। दुखद पहलू तो यह है कि उद्धव के हाथ में शिवसेना की कमान तो आ गई पर महाराष्ट्र की राजनीति में वे अभी तक अपनी कोई खास छाप नहीं छोड़ सके। बेशक विरासत में उन्हें एक मजबूत सांगठनिक आधार तो मिला पर कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने में वे सक्षम साबित नहीं हो पाए। मराठा मानुष और मुंबईकर और हिन्दुत्व की मिलीजुली नीति ने बाला साहेब ठाकरे को एक खास तरह की ताकत दी पर इसी के साथ यह भी हुआ कि बहुत से लोग उनसे खौफ खाते रहे। कई लोगों को लगता है कि उद्धव में अपने पिता जैसी न भाषा है, न ही वह तेवर जिसके सहारे शिवसेना की उग्र अस्मितावादी राजनीति पनपी और चलती रही। यह तेवर, भाषा बहरहाल हमें राज ठाकरे में थोड़ी नजर आ रही है। शायद यही कारण है कि वे शिवसेना के बहुत से कार्यकर्ताओं को तोड़ने में सफल हुए। 2009 के चुनाव नतीजे ने भी शिवसेना के आधार में लगी इस सेंध की पुष्टि की। यह तब हुआ जब शिवसेना को राह दिखाने और अपने लोगों का हौसला बढ़ाने के लिए बाला साहेब ठाकरे मौजूद थे। अब जब वे इस दुनिया में नहीं हैं तो शिवसेना का भविष्य अनिश्चित-सा लग रहा है। दोनों भाइयों में मतभेद हैं यह सत्य किसी से छिपा नहीं। अब देखना यह है कि शिवसेना के भविष्य के लिए क्या उद्धव और राज अपने मतभेद भुलाकर बाला साहेब की विरासत को आगे चला सकेंगे?

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