Friday 30 November 2012

और अंतत सरकार को विपक्ष के आगे झुकना ही पड़ा


 Published on 30 November, 2012
 अनिल नरेन्द्र
यूपीए के सिपहसालारों ने विपक्षी एकता तोड़ने के बहुत से प्रयास किए पर एफडीआई एक ऐसा मुद्दा साबित हुआ कि अंतत मनमोहन सरकार को झुकना पड़ा। विपक्षी एकता, दृढ़ता रंग लाई। लगातार चार दिनों तक संसद की कार्यवाही ठप करने वाले भाजपा और वामदल के अड़ियल रुख के आगे सरकार को झुकना पड़ा। मंगलवार को सहयोगी दलों की बैठक में एका से संतुष्ट हो जाने के बाद कांग्रेस नीत यूपीए सरकार ने खुदरा व्यापार में 57 प्रतिशत विदेशी निवेश को मंजूरी देने के फैसले पर बहस के साथ मतदान कराने का फैसला लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति पर छोड़ दिया। सरकार नियम-184 के तहत (लोकसभा) और नियम-167 के तहत (राज्यसभा) बहस को तभी तैयार हुई जब उसको ऐसा लगा कि वोटिंग में उसके पास पर्याप्त संख्या बल हो गया है। द्रमुक पार्टी अपनी कड़वाहट रखते हुए भी उसे गिरने से रोकने आ गई, जबकि ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस वोटिंग पर जोर नहीं देने पर मान गई। यही ममता एफडीआई समेत कई मसलों पर सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाई थीं। सपा और बसपा को अंतत सरकार के साथ रहना ही था, भले ही वह कितने भी नाटक कर लें। इसलिए प्रधानमंत्री के हमारे पास नम्बर हैं कहने में यही गणित बोल रहा है। अब सरकार इत्मीनान में आ गई है पर सरकार को गिराने में तो शायद ही किसी विपक्षी दल की इच्छा रही हो। वह तो गम्भीर बहस चाहती थी और वोटिंग से पता चलेगा कि कौन-सी पार्टी इस मुद्दे पर खड़ी कहां है। दरअसल सरकार को सबसे बड़ा भय तो यह था कि कहीं उसके ही सहयोगी दल उसके खिलाफ वोट न कर दें। क्योंकि डीएमके खुलकर सरकार के फैसले का विरोध कर रही थी। भाजपा और वामदल बहस के साथ-साथ मतदान पर अड़े थे। संसद पूरी तरह जाम थी। विपक्ष अपनी बात मनवाकर जीत महसूस कर रहा है। भाजपा और वामदलों का मकसद सरकार के अलावा उसे समर्थन देने वाले उन दलों को भी बेनकाब करना है जो खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश के मामले पर सरकार के खिलाफ आग तो उगलते रहे हैं पर सदन में उसे समर्थन देने की दोहरी चाल भी चलते हैं। भाजपा का निशाना खासकर सपा, बसपा और डीएमके है, जो जनता के बीच सिर्प बातों का बम फोड़ते नजर आते हैं पर सदन में सरकार का समर्थन भी करते हैं। फ्लोर मैनेजमेंट की प्राथमिक जिम्मेदारी विपक्ष से ज्यादा सरकार की होती है और इस काम में वह इस सत्र में विफल रही है। क्या इस हक का उपयोग नम्बर जुटाने में ही किया जाना चाहिए, सत्र चलाने के लिए नैतिकता और प्रतिबद्धता में नहीं? अगर ऐसा होता तो सरकार पिछले साल सात दिसम्बर को शीतकालीन सत्र में किए गए अपने वादों पर अमल करती। तब सरकार ने कहा था एफडीआई पर अंतिम फैसला लेने से पहले सरकार सदन, राजनीतिक दलों व अन्य भागीदारों को अपने भरोसे में लेगी। इसमें कोई संदेह नहीं कि सरकार का पलटी खाना और उसका अड़ियल रवैया, संसद ठप होने की अहम वजह है। दरअसल यह अहंकारी सरकार समझती है कि उसे संसद की मुहर की आवश्यकता ही नहीं। तभी तो वह कहती है कि यह फैसला कैबिनेट को करना है और कैबिनेट के फैसलों पर सदन में वोटिंग नहीं कराई जाती। यह कार्यपालिका का अधिकार है। संसदीय नजीर उसके तर्प को गलत ठहराती है। राजग के शासनकाल में भाकपा के बाल्को (भारत एल्युमीनियम कम्पनी लिमिटेड) के विनिवेश के फैसले पर वोटिंग वाले प्रावधान के तहत चर्चा के प्रस्ताव का कांग्रेस ने भी समर्थन किया था। तब उसके नेता प्रियरंजन दास मुंशी ने कहा था विनिवेश और निजीकरण दो अलग मसले हैं। अगर प्रबंधन में शेयर 51 फीसद हैं तो यह विनिवेश नहीं, निजीकरण है। इस नजरिए से एफडीआई पर वोटिंग के तहत संसद में चर्चा होनी चाहिए पर सत्ता में स्टैंड और होता है और विपक्ष में और। खुदरा क्षेत्र में एफडीआई के मुद्दे पर पहले ही भाजपा और वामदलों समेत विभिन्न संगठनों द्वारा देशव्यापी आंदोलन छेड़ा जा चुका है पर सरकार टस से मस नहीं हुई थी। सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों 2014 के लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर ताना-बाना बुन रहे हैं। अब देखना यह है कि कौन कितना सफल होता है।


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