Wednesday 24 April 2013

मामला 5 वर्षीय बच्ची से दुष्कर्म का ः महज कानून बनाने से काम नहीं चलेगा



 Published on 24 April, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
 राजधानी में मासूम बच्ची से दुष्कर्म की घटना ने सामाजिक स्तर पर महिलाओं व नौनिहालों की सुरक्षा की कई खामियों को उजागर तो किया ही है साथ ही पुलिस व सरकार की कार्यपणाली पर एक बार फिर कई सवाल खड़े किए हैं। सरकार व पुलिस ने न तो 16 दिसम्बर की घटना से कोई सबक लिया और न ही 16 दिसम्बर के बाद लगातार दुष्कर्म की बढ़ती घटनाओं ने सरकार व पुलिस को झकझोरा है। कटु सत्य तो यह है कि सख्त एंटी रेप कानून के पहले टेस्ट में ही दिल्ली पुलिस बुरी तरह फेल हुई है। पांच वर्षीय बच्ची से दुष्कर्म की रिपोर्ट नहीं लिखने पर पुलिस ने इस कानून की धारा 166ए का उल्लंघन किया है। इस धारा के अंतर्गत यौन हमलों के केस दर्ज नहीं करने पर छह माह से लेकर दो साल तक की कड़ी सजा और जुर्माने का पावधान है। यह कानून 3 अपैल को देश में लागू हुआ था। इसके बाद बच्ची से दुष्कर्म का पहला मामला था, जिसमें पुलिस बुरी तरह फेल हुई। इतना ही नहीं मामले को दबाने के लिए पीड़ित परिवार को कथित रूप से रुपए देना साबित करता है कि पुलिस केस दर्ज ही नहीं करना चाहती थी। यह हाल तब है जब 16/12 को चलती बस में गैंगरेप के बाद रेप कानूनों को सख्त करने के लिए जस्टिस वर्मा कमेटी की सिफारिशों पर धारा 166ए को आपराधिक कानून संशोधित बिल के जरिए आईपीसी में जोड़ा गया था। जब भी रेप की कोई वारदात सामने आती है, हमारा सारा ध्यान सिर्प रेपिस्ट को पकड़ने और उसे कड़ी से कड़ी सजा दिलाने पर होता है। इसकी वजह से पुलिस और पशासन में मौजूद वे सारे लोग बेदाग बच निकलते हैं जो असल में रेपिस्ट तैयार करते हैं। इसके व्यवहार और काम करने के तरीके से अपराध करने वाले के भीतर साहस पैदा होता है, कानून का डर खत्म होता है, पीड़ित पक्ष जलील होता है और अपने आपको सिस्टम के आगे असाहय महसूस करता है। हमारी मांग है कि महिलाओं के पति होने वाले अपराध के बारे में शिकायत मिलने पर अगर कोई सरकारी कर्मचारी (पुलिस या पशासन) किसी भी तरह की कोताही या संवेदनहीनता बरते तो उसके खिलाफ सख्त कदम उठाए जाएं, उसे उस मामले में सह-अभियुक्त बनाया जाए और कार्रवाई की जाए। इसके लिए भी उतनी ही कड़ी सजा का पावधान रखा जाए जितनी अपराधी को दी जाए। निलम्बन या लाइन हाजिर जैसी कार्रवाई निरर्थक है। यही वजह है कि इनकी मानसिकता में इतना कुछ होने के बाद भी कोई बदलाव नहीं आया है। कटु सत्य तो यह है कि यह घटना हमारे समाज की मानसिक विकृति को ही दर्शाती है, जिसमें पांच-छह साल की बच्चियां तक महफूज नहीं हैं। पता नहीं यह कौन सा समाज है और हम कैसे पुरुष और लड़के तैयार कर रहे हैं? ऐसी वीभत्स घटनाओं के लिए हमारा समाज ही जिम्मेदार है, जब तक हम लोग नहीं सुधरेंगे, समाज नहीं सुधरेगा तब तक शर्मसार करने वाली घटनाएं होती रहेंगी। इस घटना की गम्भीरता इसलिए भी संगीन है क्योंकि इससे कुछ महीने पहले 16 दिसम्बर की दरिंदगी भी झेली है। इसके बाद देशभर में विरोध पदर्शनों के दबाव में सरकार ने सख्त कानून बना तो दिए पर जमीनी स्तर पर इसका असर अभी तक देखने को नहीं मिला। यह घटना दर्शाती है कि तमाम पयासों के बावजूद जमीनी स्थिति नहीं बदली बल्कि यह कहें कि दुष्कर्म की घटनाओं में उल्टा वृद्धि ही हुई है।

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