Saturday 13 April 2013

ममता पर हमला पहला नहीं, दिल्ली में नेताओं पर हमले बढ़ रहे हैं



 Published on 13 April, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
 दिल्ली में मंगलवार को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनके वित्तमंत्री के साथ बदसलूकी की घटना अकेली नहीं है। हाल ही में राजधानी में कई नेताओं के साथ ऐसी हरकतें हो चुकी हैं। इससे पहले केंद्रीय गृहमंत्री, केंद्रीय दूरसंचार मंत्री, कृषि मंत्री, दिल्ली की मुख्यमंत्री प्रदर्शनकारियों और लोगों के गुस्से और हाथापाई के शिकार हो चुके हैं। नई दिल्ली में योजना आयोग के गेट पर ममता बनर्जी और उनके मंत्रियों के साथ सीपीएम छात्र संगठन एसएफआई से जुड़े प्रदर्शनकारियों का हिंसक और शर्मनाक व्यवहार निन्दनीय तो है ही, संसद के इतने पास अति सुरक्षित क्षेत्र में ऐसी घटना होना सुरक्षा व्यवस्था पर भी सवालिया निशान लगाता है। आमतौर पर इस इलाके में धरना, प्रदर्शन की अनुमति नहीं है, फिर इस अति सुरक्षित क्षेत्र में प्रदर्शनकारियों को कैसे पहुंचने दिया गया? वहां पुलिस की चौकसी व सुरक्षा व्यवस्था और ज्यादा चुस्त-दुरुस्त क्यों नहीं की गई? लोकतंत्र में विरोध प्रदर्शन का अधिकार तो अनिवार्य है, लेकिन गुंडागर्दी का कतई नहीं। जिस तरह एक महिला मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनके 65 वर्षीय वित्तमंत्री डॉ. अमित मित्रा का कुर्ता फाड़ डाला, यह विरोध प्रदर्शन नहीं  बल्कि एक तरह से लोकतंत्र का चीरहरण है। ममता इस हादसे से इस कदर नाराज हैं कि मंगलवार को पहले उन्होंने प्रधानमंत्री के साथ अपनी मुलाकात टाल दी और अगले दिन वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम से तयशुदा मुलाकात को रद्द करके वापस कोलकाता चली गईं। दिल्ली से कोलकाता लौटते ही ममता को सांस लेने में दिक्कत, घबराहट और दर्द की शिकायत के बाद अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां डाक्टरों की एक टीम उनके स्वास्थ्य पर नजर रखे हुए है। ममता बनर्जी और अमित मित्रा के साथ बदसलूकी की घटना के मामले में आक्रामक तेवर अपना रही माकपा बुधवार को बैकफुट पर आ गई। राज्यपाल एमके नारायणन के विवाद में कूदने से और घटना को माकपा द्वारा सुनियोजित हमला करार देने से दबाव में आई पार्टी के पोलित ब्यूरो को बयान जारी कर न केवल घटना की निन्दा करनी पड़ी बल्कि घटना की जांच कराने की घोषणा करनी पड़ी। श्री नारायणन का कहना कि ममता पर हमला अप्रत्याशित है, यह लोकतंत्र के मूल्यों पर धब्बा है, राजनीतिक द्विवेष की हिंसक परिणति की ओर संकेत करता है। दरअसल एसएफआई के कार्यकर्ता अपने एक नेता सुदीप्तो गुप्त की कथित तौर पर पुलिस हिरासत में हुई मौत से नाराज होंगे पर एक मुख्यमंत्री के खिलाफ इस तरह के हिंसक प्रदर्शन को लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता। दूसरा पक्ष यह भी है कि यह घटना तृणमूल कांग्रेस और वाम मोर्चे के बीच पिछले कुछ महीने से जारी टकराव का नतीजा है जो अब देश की राजधानी तक पहुंच गया है। दिल्ली की घटना के बाद प्रतिक्रिया स्वरूप प. बंगाल में बवाल मचा है। वहां जगह-जगह एसएफआई और तृणमूल कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक झड़पें हो रही हैं। यह सिलसिला तत्काल रोके जाने की आवश्यकता है। सभी राजनीतिक दलों को इस घटना से सबक जरूर लेना चाहिए। यदि राजनीतिक दलों ने संयम और लोकाचार की परवाह नहीं की तो किस ओर देश की राजनीति जाएगी, कुछ कहा नहीं जा सकता?

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