Thursday, 4 April 2013

कैंसर मरीजों को सुप्रीम कोर्ट ने दी बड़ी राहत, सवा लाख की दवा 8000 में



 Published on 4 April, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
 मरीजों के हित ताक पर रखकर कैंसर की दवा पर एकाधिकार की दलील देने वाली स्विटजरलैंड की कम्पनी नोवार्टिस को भारत के सुप्रीम कोर्ट ने करारा झटका दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कई मायनों में ऐतिहासिक व दूरगामी प्रभाव वाला फैसला सुनाया। स्विस कम्पनी की उस याचिका को खारिज कर दिया जिसमें उसने ग्लीवेक दवा पर पेटेंट के अधिकार का दावा किया था। साथ ही भारतीय कम्पनियों को इसके सस्ते (जेनेटिक) संस्करण को बनाने से रोकने का आग्रह भी किया था। यह कम्पनी सात साल से ग्लीवेक को भारत में पेटेंट कराने की कानूनी लड़ाई लड़ रही थी जिस पर दुनियाभर की फार्मा कम्पनियों की निगाहें लगी थीं। ग्लीवेक दवा को खून, स्किन और अन्य तरह के कैंसर के इलाज के लिए इस्तेमाल किया जाता है। कम्पनी का दावा था कि ग्लीवेक में इमातिनिब मेसीलेट पदार्थ का इस्तेमाल हुआ है। जो नया उत्पाद है। लिहाजा कम्पनी को इस दवा का पेटेंट मिलना चाहिए। दूसरी दलील यह दी गई थी कि दवा में सिर्प पदार्थों के मिश्रण नहीं बदले हैं। वर्षों अनुसंधान किए। इसलिए यह एवरग्रीनिंग पेटेंट का मामला नहीं है।  तीसरी दलील यह थी कि हमारा मकसद गरीब मरीजों से पैसा बनाना नहीं है। 85 प्रतिशत मरीजों का इलाज मुफ्त होता है। हम सिद्धांतों के आधार पर लड़ाई लड़ रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि पेटेंट का अधिकार सिर्प असली आविष्कारक पर ही दिया जाता है। एक ही खोज की पुनरावृत्ति के लिए नहीं। इमातिनिब मेसीलेट कोई नई खोज नहीं है। इसकी जानकारी पहले से मौजूद है, सिर्प इस आधार को पेटेंट नहीं मिल सकता। फैसले से विदेशी कम्पनियों को डरने की जरूरत नहीं है। जब-जब वे नई खोज पेश करेंगी, पेटेंट अधिकार जरूर मिलेगा। यह दवा भारतीय पेटेंट कानून के तहत निर्धारित मानकों को पूरा करने में विफल रही है। नोवार्टिस की तरह फाइजर और रोम होल्डिंग एजी जैसी कम्पनियां भी पेटेंट की लड़ाई लड़ रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने ग्लीवेक के पेटेंट की याचिका को खारिज करके गरीबों को बहुत राहत दी है। कैंसर की सवा लाख की दवा अब सिर्प आठ हजार रुपए में मिलने की उम्मीद है। इस ऐतिहासिक फैसले का वैश्विक दवा कारोबार पर भी दूरगामी असर पड़ना तय है। इसका महत्व इसी से समझा जा सकता है कि स्विटजरलैंड की दवा कम्पनी नोवार्टिस को यदि ग्लीवेक का पेटेंट दे दिया जाता तो वह हमारे यहां मरीजों से हर महीने सवा लाख रुपए तक वसूलने को स्वतंत्र हो जाते जबकि इस फार्मूले की जेनेटिक दवाएं महज 8 से 10 हजार रुपए में बाजार में उपलब्ध हैं। असल में यह एक बड़ा खेल है जिसे दिग्गज बहुराष्ट्रीय कम्पनियां पहले से मौजूद दवाओं में मामूली फेरबदल कर या फिर उनका नाम बदलकर अंजाम देती हैं। जिस ग्लीवेक के पेटेंट के लिए दावा किया जा रहा था, वह किसी नए फार्मूले से नहीं बनी है बल्कि 15 वर्ष पूर्व बाजार में उतारी जा चुकी दवा का नया रूप है। इस दवा की मांग का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि नोवार्टिस  ने दुनियाभर में चार अरब डॉलर की ग्लीवेक दवा बेच डाली है। नोवार्टिस कम्पनी ने प्रतिक्रिया में कहा है कि यह फैसला मरीजों के लिए बड़ा झटका है। इससे कैंसर बीमारी के कारण इलाज के विकल्प मुहैया नहीं रहने से मेडिकल प्रगति में बाधा आएगी। लेकिन हम भारत में पेटेंट के लिए दावे करते रहेंगे। दूसरी ओर इस फैसले से भारत के कैंसर मरीजों के लिए ग्लीवेक के जेनेटिक संस्करणों के निर्माण का रास्ता खुल गया है। जेनेटिक दवाओं के दाम पेटेंट दवाओं की कीमतों से बेहद कम हैं। जबकि ये कारगर वैसे ही होती है। नोवार्टिस की ग्लीवेक दवा की एक महीने की खुराक लगभग 1.2 लाख रुपए बैठती है। वहीं भारतीय कम्पनियों की ओर से जेनेटिक दवा पर खर्च 8000 से 10 हजार रुपए प्रति माह ही आएगा।

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