Friday 19 April 2013

आतंकवाद से लड़ने की न तो भारत सरकार की कोई रणनीति है, न इच्छाशक्ति



 Published on 19 April, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
आतंकवाद एक वैश्विक समस्या है यह हम बार-बार कहते हैं। अमेरिका में बोस्टन मैराथन धमाकों के कुछ ही घंटों बाद कर्नाटक के बेंगलूर में हुआ बम विस्फोट इसका पमाण है। बेंगलूर के भाजपा कार्यालय को निशाना बनाकर बुधवार को किए गए विस्फोट में 11 पुलिसकर्मियों सहित कम से कम 16 लोग घायल हो गए। पांच मई को होने वाले विधानसभा चुनाव की वजह से विस्फोट और स्थान का महत्व और बढ़ जाता है। धमाके का टाइम भी संकेत देता है कि ऐसा वक्त चुना गया जब भाजपा कार्यालय में कार्यकर्ताओं और टिकटार्थियों की भीड़ थी। हालांकि चुनाव को देखते हुए भाजपा कार्यालय के पास विशेष सुरक्षा पबंध किए गए थे। बम को एक वैन और कार के बीच मोटर साइकिल पर लगाया गया था। विस्फोट आईईडी विस्फोटक के जरिए किया गया। विस्फोटक में अमोनियम नाइट्रेट का इस्तेमाल किया गया। क्या 17 अपैल की डेट आतंकियों के लिए कोई विशेष महत्व रखती है। क्या इसे इत्तिफाक समझें कि ठीक तीन साल पहले 17 अपैल 2010 को इसी शहर बेंगलूर के चिन्नास्वामी स्टेडियम के बाहर शाम 4 बजे दो धमाके हुए थे जिनमें सात लोग घायल हुए थे? इससे पहले इसी शहर में 25 सितम्बर 2005, 10 मई 2008 और 4 जुलाई 2008 को आतंकवादी विस्फोट कर चुके हैं। इसे इस देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आतंकी घटना पर भी राजनीति होती है। धमाके के तुरन्त बाद कांग्रेस के वरिष्ठ नेता शकील अहमद ने ट्विटर पर कहा अगर भाजपा दफ्तर के बाहर आतंकी हमला हुआ है तो इससे उसे चुनाव में फायदा होगा। भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कहा कि ये आतंकी कार्रवाई किसी स्लीपर सेल का काम है जो आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में केन्द्र सरकार के पयासों की कमी का नतीजा है। कांग्रेस महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने अपनी टिप्पणी में कहा कि आतंक से जुड़ी कोई भी घटना राष्ट्रीय और कुछ हद तक अंतर्राष्ट्रीय समस्या है। आतंकवाद को कांग्रेस पार्टी इस दृष्टि से देखती है। यह पूरे देश के लिए एक चुनौती है और इसे राजनीतिक लाभ या हानि से जोड़कर नहीं देखना चाहिए। अमेरिका ने एक भी आतंकी हमला बर्दाश्त नहीं करने की नीति अपना रखी है जिससे वह पिछले 12 सालों से महफूज रहा। इसके विपरीत भारत में आतंकवाद दो दशकों से भी अधिक समय से चलता आ रहा है तो इसके पीछे भारत सरकार की इच्छा शक्ति और आधी-अधूरी तैयारी है। जहां आतंक से निपटने के लिए तैयारी आधी अधूरी है वहीं हाल के घटनाकम से इस मोर्चे पर सरकार की चुनौतियां और बढ़ने की आशंका भी है। एनसीटीसी बनाने का (आतंक से निपटने के लिए एक राष्ट्रीय एजेंसी बनाने का) पस्ताव पिछले एक साल से राज्य-केन्द्र विवादों में ही लटका हुआ है। एक नेशनल ग्रिड बनाने के पस्ताव का भी यही हाल है। इसके तहत बैंक खातों, फोन नंबरों, पैन कार्ड, वोटर कार्ड समेत 21 सेवाओं पर ऑन लाइन नजर रखने की योजना पर अब तक अमल नहीं हो सका। आतंकी अमूमन ऐसे बमों में अमोनियम नाइट्रेट का इस्तेमाल करते हैं अभी तक सरकार इसकी बिकी पर रोक लगाने में असमर्थ रही है। आतंकी हमले को रोकने के लिए सबसे पभावी बचाव है खुफिया एजेंसियां और मुखबिर। ऐसा नहीं कि अमेरिका में आतंकियों ने पिछले 12 सालों में हमला करने का पयास नहीं किया पर वहां की खुफिया एजेंसियां और मुखबिर इतने चुस्त हैं कि वह हमला होने से पहले ही इसे रोक लेते हैं। हमारे यहां देश में 40000 लोगों पर एक खुफियाकर्मी है जो वैश्विक औसत दस हजार से कम है। योजना एक अलग खुफिया बल बनाने की है लेकिन अभी तक इस पर कोई खास पगति नहीं हुई। एनआईए बेशक बनी पर इसमें बेहतरीन अफसरों की भर्ती न होना, राज्यों को जांच अधिकार न होना, स्थानीय पुलिस का सहयोग न मिलना इन कारणों से यह आतंक के खिलाफ 2008 में बनी यह एजेंसी सिर्प खानापूर्ति कर रही है, जहां तक माहौल की बात है तो संसद भवन पर हमले के साजिशकर्ता अफजल गुरू को फांसी के बाद से ही किसी बड़ी आतंकी घटना की भविष्यवाणी की जा चुकी है। इधर भुल्लर की फांसी को लेकर भी वातावरण खराब हो रहा है। फर्प इससे नहीं पड़ता कि इस बार बेंगलूर में विस्फोट कर्नाटक भाजपा दफ्तर के सामने हुआ, यह जगह किसी मस्जिद, स्कूल, बाजार, बस, ट्रेन, मेट्रो या सभा-जुलूस इनमें से कहीं भी हो सकता था। असल चिंता तो इस बात की है कि हम सब आतंकवाद के निशाने पर बने हुए हैं। अमेरिका की तरह भारत में हमले से बचने या पलटवार कर आतंकवादी को ही मार गिराने की न तो कोई ठोस रणनीति है और न ही इच्छाशक्ति। मानसिक रूप से हमें तैयार रहना होगा कि इस पकार के बम विस्फोट होते ही रहेंगे।

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