Published on 16 April,
2013
अनिल नरेन्द्र
राजस्थान खेल परिषद इन दिनों अपने एक फरमान को लेकर
सुर्खियों में है। राजस्थान खेल परिषद ने राजस्थान सरकार से खेल पुरस्कार पाने वाले
खिलाड़ियों से एक शपथ पत्र मांगा है, जिसमें उल्लेख करने को कहा गया है कि क्या उनका
संबंध राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) और जमात-ए-इस्लामी से है या नहीं? इस फरमान
को लेकर शुकवार और शनिवार को भारी हंगामा हुआ और शनिवार को राज्य में कई जगह पदर्शन
भी हुए। असल में राज्य खेल परिषद ने शुकवार को सवा दो करोड़ रुपए की पुरस्कार राशि
बांटने के लिए खिलाड़ियों को बुला लिया। इस दौरान उनसे एक शपथ पत्र भरने को कहा गया,
जिसमें साफ करना था कि उनका संबंध आरएसएस और जमात-ए-इस्लामी से नहीं है। इसको लेकर
खिलाड़ियों ने हल्का विरोध दर्ज कराया लेकिन आगे की कार्रवाई जारी रही। इसकी सूचना
जैसे ही बाहर निकली विरोध होना आरम्भ हो गया। पदेश के खेल मंत्री मांगीलाल गरासिया
का कहना है कि यह नियम 1986 से लागू है। सरकार उसका पालन कर रही है। लेकिन राजस्थान
खेल परिषद के पूर्व अध्यक्ष एसएन माथुर ने इस तरह के किसी नियम से इंकार किया। इस मुद्दे
के गरमाने के बाद राज्य सरकार और खेल परिषद के बयानों में भी अंतर आ गया है। इस शपथ
पत्र की बाबत पूछे जाने पर खेल परिषद के आला अधिकारियों का कहना है कि वे तो राज्य
सरकार के आदेशों का पालन कर रहे हैं। इस पूरे मामले में उनकी ओर से किसी पकार की शुरुआत
नहीं की गई थी, लेकिन सरकार ने इस पकार के किसी आदेश की बात से साफ इंकार किया है। सेक्युलरिज्म अर्थात धर्मनिरपेक्षता कितनी विकत
हो चुकी है राजस्थान खेल परिषद की इस मांग से पता चलता है। इस पर भी कतई आश्चर्य नहीं
कि संघ और जमात-ए-इस्लामी की ओर से आपत्ति जताए जाने के बावजूद राजस्थान की कांग्रेस
सरकार अपने इस फैसले को सही ठहराने पर अड़ी है जिसके तहत खिलाड़ियों से दस रुपए के
स्टाम्प पेपर पर यह लिखवाया गया कि वे अमुक-अमुक संगठनों के सदस्य नहीं हैं। अगर कांग्रेस
यह मानती है कि हिंदुओं के सबसे बड़े संगठन और मुसलमानों की एक पमुख जमात से संबंध
रखना अथवा उनका सदस्य-समर्थक होना कई अपराध है और पंथनिरपेक्षता के खिलाफ है तो फिर
इन्हें उसे पतिबंधित करना चाहिए। इससे भी बेहतर यह होगा कि कांग्रेस धार्मिक-सामाजिक
माने जाने वाले उन संगठनों की कोई सूची जारी कर दे जो उसकी नजर में साम्पदायिक हैं।
पंथनिरपेक्षता के बहाने संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों को सिद्ध करने का सिलसिला तो तब
से शुरू हो गया था जब आपातकाल के दौरान संविधान में संशोधन करके उसकी पस्तावना में
सेक्युलरिज्म शब्द जोड़ दिया गया था। देश के संविधान में सेक्युलरिज्म सरीखे विजातीय
शब्द को शामिल करने और उसकी व्याख्या इस रूप में करने की आवश्यकता नहीं थी कि इसका
आशय सभी धर्मों अर्थात पथों, उपासना पद्धतियों के पति निरपेक्ष रहना है। आज कांग्रेस
ने स्थिति यह बना दी है कि सेक्युलरिज्म बहुसंख्यों के विरोध में अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण
के पर्याय में तब्दील हो गया है। राजनीतिक दल जब चाहते हैं तब सेक्युलरिज्म की मनमानी
व्याख्या कर लोगों को बरगलाने लगते हैं। इनमें वे राजनीतिक दल भी शामिल हैं जिनका चिंतन
और नीतियां घोर साम्पदायिक हैं। हमारी राय में राजस्थान खेल परिषद का यह फरमान पूरी
तरह अवैध है जिसे फौरन वापस लेना चाहिए।
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