Sunday, 28 April 2013

लूट-खसोट की योजना बनती मनरेगा, किसान वहीं का वहीं रह गया




 Published on 28 April, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 

 अपने देश में बहुत कुछ बदल गया, लेकिन एक चीज नहीं बदली वह है सरकारी योजनाओं और संसाधनों के लूट के तरीके। ताजा उदाहरण है महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी (मनरेगा) का। नियंत्रण एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की एक और रिपोर्ट सामने आई है जो बताती है कि कैसे महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून के तहत गरीबी दूर करने के लिए शुरू की गई योजना को भ्रष्टाचार के खुले खेल का मैदान बना दिया गया। तरीका वही। फर्जी जॉब कार्ड बनवाए गए, कागजों पर काम दिखाया गया। नतीजा भी वही। जो पैसा गरीबों में बंटना चाहिए था, गरीबों के पेट भरने के लिए आवंटित किया गया, वह भ्रष्टाचारियों की तिजोरी में पहुंच गया। गौरतलब है कि मनरेगा स्कीम में एक वित्तीय वर्ष में एक परिवार को सौ दिन का रोजगार पाने की पात्रता है। यानी किसी परिवार में 10 वयस्क सदस्य हैं और उनमें से जो रोजगार की मांग करते हैं, उनमें प्रत्येक व्यक्ति को नहीं बल्कि सबको जोड़कर सौ दिन का रोजगार देने का प्रावधान है। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय ने 30 नए काम जोड़कर मनरेगा-2 का नाम दिया। यहां मनरेगा के बेरोजगारी भत्ते ने गांव वालों की नीयत खराब कर दी। स्कीम आते ही यह बात जोरों से प्रचारित हो गई कि मनरेगा में जिन्हें रोजगार नहीं मिल पाएगा उन्हें बेरोजगारी भत्ता मिलेगा। इस तरह अधिक रोजगार और अधिक बेरोजगारी भत्ता पाने के लिए 10 वयस्क व्यक्तियों के संयुक्त परिवार ने अलग-अलग पांच परिवार दर्शाते हुए पांच जॉब कार्ड बनवा लिए जबकि वे एक ही घर में रह रहे हैं और एक ही चूल्हे पर उनका संयुक्त भोजन बनता है। उधर अधिकांश सरपंचों और पंचायत सचिवों ने यह चालाकी की कि फर्जी जॉब कार्ड बनवाकर अपने कब्जे में कर लिए ताकि उनके नाम की रकम हड़पी जा सके। उपरोक्त के अलावा भ्रष्टाचार के तरीके पर गौर कीजिए। उत्तर प्रदेश की रायबरेली के महाराजगंज ब्लॉक की ग्राम पंचायत घुरैना में 80 फुट लम्बा और 70 फुट चौड़ा पकरिया का तालाब है। वर्ष 2009-10 में इसे आदर्श तालाब बनाने की योजना बनी और 9.10 लाख रुपए स्वीकृत हुए। इसमें से 5.28 लाख रुपए आदर्श तालाब बनाने में खर्च भी हो गए। असलियत यह है कि तालाब के नाम पर महज एक गड्ढा खुदा है। ऐसी दर्जनों कहानियां हैं। श्रीमती सोनिया गांधी ने यह अच्छी योजना सुझाई थी और इसकी आडवाणी जी ने संयुक्त राष्ट्र सभा में भी तारीफ की थी पर दुर्भाग्य है कि सभी स्तर पर हुई धांधली और भ्रष्टाचार के कारण जो उम्मीदें इससे थीं चौपट हो गईं। उम्मीद तो यह थी कि प्रत्येक परिवार को हर साल न्यूनतम 100 दिन का रोजगार मिलेगा। मनरेगा की धारा 16(3) के अनुसार ग्राम पंचायतों को वार्षिक योजना बनानी थी। एक लाख 26 हजार 961 करोड़ की कार्य योजना मंजूर की गई। राज्यों को इस योजना के क्रियान्वयन संबंधी नियम बनाने थे। भ्रष्टाचार रोकने के लिए जॉब कार्ड पर लाभार्थी का फोटो लगाना अनिवार्य था। कोई जॉब कार्ड बनने का मतलब रोजगार की गारंटी। इस रोजगार योजना के क्रियान्वयन पर निगरानी रखने के लिए ग्रामीण विकास मंत्रालय कानूनन  बाध्य है। इसके लिए मनरेगा में केंद्रीय रोजगार गारंटी परिषद की स्थापना का प्रावधान  किया गया था। कैग की रिपोर्ट के अनुसार यह परिषद निगरानी के काम में असफल रही है। इसके गठन को छह साल हो चुके हैं लेकिन इसके सदस्य अब तक महज 13 फील्ड दौरे ही कर पाए हैं। इस योजना के तहत करवाए जा रहे काम की निगरानी के लिए नेशनल क्वालिटी मॉनिटर की प्रणाली विकसित की जानी थी लेकिन केंद्र अभी तक इसे अमली जामा नहीं पहना सका। फंडों की मंजूरी और उन्हें जारी करने के मामले में खुद मंत्रालय ने मनमानी की। कैग ने इस मामले में 1960.45 करोड़ रुपए की गड़बड़ी पकड़ी है। सोनिया गांधी की इस प्रिय योजना की तुलना इन्दिरा गांधी के गरीबी हटाओ योजना के साथ की गई और इसे गेमचेंजर करार तक दिया गया। इस महत्वाकांक्षी योजना में चरम पर भ्रष्टाचार को देख यह प्रतीत होता है कि यह सब कुछ सियासी साजिश के तहत हो रहा है। प्रतीत तो यह होता है कि न केंद्र सरकार और न राज्य सरकार इसको सही मायने में सफल होता देखना चाहती है। अन्य सरकारी योजनाओं की तरह मनरेगा भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ती दिख रही है। लूट-खसोट की अब यह योजना बनकर रह गई है और गरीब किसान जिसके लाभ के लिए इसे बनाया गया, वह वहीं का वहीं रह गया।


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