Wednesday 17 April 2013

भाजपा को नीतीश से आर-पार की लड़ाई लड़नी होगी



 Published on 17 April, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
 भारतीय जनता पार्टी और जनता दल(यू) का 17 साल पुराना रिश्ता लगता है कि अब टूटने के कगार पर है। जिस तरीके से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने रविवार को नई दिल्ली में अपनी पार्टी की दो दिवसीय कार्यकारिणी की बैठक में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी पर निशाना साधा उससे तो यही लगता है कि नीतीश जहां तक बढ़ गए हैं, वहां से उनका लौटना और भाजपा का आंख मूंदना सम्भव नहीं है। जद-यू की दो दिनों की बैठक में केवल नरेन्द्र मोदी ही नीतीश के निशाने पर थे। नीतीश ने अपने भाषण में मोदी को निशाना बनाकर उन्हें जमकर खरी-खोटी सुनाईं। उनके भाषण से ऐसा लग रहा था कि जद-यू की बैठक मोदी के विरोध के लिए बुलाई गई है। नीतीश कुमार एक तरफ भाजपा के साथ गठबंधन बनाकर अपनी सरकार चला रहे हैं तो दूसरी तरफ जब वह नरेन्द्र मोदी पर इतना तीखा हमला करते हैं तो एक तरह से बीजेपी पर ही हमला कर रहे हैं। जिस अंदाज में नीतीश ने मोदी पर हमला बोला उससे ऐसा लगा मानो कांग्रेस के नेता मोदी पर हमला कर रहे हैं। नीतीश ने जद-यू को कांग्रेस की बी टीम बनाकर रख दिया है। आज वह कांग्रेस के खेमे में जाने को बेताब हैं और बहाना नरेन्द्र मोदी को बना रहे हैं। हमें लगता है कि नीतीश ने एक तरह से अपने पांव में ही कुल्हाड़ी मारी है। अगर भाजपा बिहार की जद-यू सरकार से हटती है जिसकी अब बहुत सम्भावना है तो दोनों को नुकसान होगा और सिर्प कांग्रेस को फायदा। पर कांग्रेस के लिए भी नीतीश से खुला गठबंधन आसान नहीं होगा। वर्षों से कांग्रेस के सबसे बड़े विश्वास पात्रों में लालू पसाद यादव रहे हैं। बेशक आज वह बिहार की राजनीति में इतना महत्व न रखते हों पर यह भी नहीं कहा जा सकता कि वह बिल्कुल ही अपासंगिक हो गए हैं। उनका और राम बिलास पासवान का कांग्रेस क्या करेगी? नीतीश कुमार और लालू का एक खेमे में होना असम्भव लगता है पर राजनीति में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। भाजपा पवक्ता मीनाक्षी लेखी ने सोमवार को नीतीश पर जवाबी हमला बोलते हुए कहा कि भाजपा को नीतीश के सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं है। लेखी ने तो नीतीश पर और तीखा हमला बोला और गुजरात के 2002 के दंगों के लिए सीधे उन्हें ही जिम्मेदार ठहरा दिया। लेखी ने दो टूक कहा कि भाजपा में सभी धर्मनिरपेक्ष हैं। 2002 में नीतीश जी भी हमारी सरकार में शामिल थे और साबरमति एक्सपेस कांड के दौरान वही रेलमंत्री थे। ऐसे में हमारे मुख्यमंत्री के बारे में कही गईं उनकी बातों को हम खारिज करते हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए धर्मनिरपेक्ष छवि के पधानमंत्री पद के उम्मीदवार की मांग कर भाजपा से सीधा पंगा लेना महंगा साबित हो सकता है। अगर जद-यू के शीर्ष नेताओं की मानें तो खुद जद-यू ही भाजपा के साथ गठबंधन तोड़ने की बात पर दो भागों में बंट गई है। पार्टी नेताओं के अनुसार नीतीश ने कुछ नौकरशाही और हवा-हवाई नेताओं व कांग्रेसी नेताओं के पभाव में आकर जो धर्मनिरपेक्ष छवि के नाम पर बयानबाजी शुरू की है, उससे पार्टी के अगड़ी जातियों के समर्थक तो नाराज हैं ही साथ ही नीतीश ने सोशल इंजीनियरिंग के जरिए लालू के पिछड़े वर्ग के मतदाताओं में जो सेंध लगाई थी वह भी उनसे छिटक सकते हैं। नीतीश को यह नहीं भूलना चाहिए कि आज भी अल्पसंख्यकों में लालू यादव की लोकपियता काफी हद तक बरकरार है। फिर अल्पसंख्यकों को अब गारंटी से कोई नहीं ले सकता। वह उस पार्टी का समर्थन करेंगे जो उन्हें सबसे फायदेमंद लगेगी। जो उनके हितों को आगे बढ़ाएगी, यह कांग्रेस हो सकती है। नीतीश यह क्यों मान कर चल रहे हैं कि मोदी को कोसने से अल्पसंख्यक उन्हीं के साथ आएंगे? नीतीश को जहां मोदी विरोध में भाजपा की खटास महसूस हो रही है वहीं उनकी अपनी पार्टी का विरोध भी झेलना पड़ रहा है। भाजपा के करीबी माने जाने वाले राज्यसभा के एक वरिष्ठ नेता के अनुसार नीतीश ने धर्मनिरपेक्षता का राग अलाप कर पार्टी के सामने वही स्थिति उत्पन्न कर दी है जो कभी 1977 में पार्टी के सामने जनता पार्टी ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और जनसंघ की दोहरी सदस्यता को लेकर उठाया था, उस वक्त भी इसी मुद्दे पर पार्टी ने अंतत सरकार से अलग होने का फैसला लिया था। नीतीश भी उसी भाषण का पयोग कर रहे हैं। स्वतंत्र राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो लोकसभा चुनाव में यदि नीतीश भाजपा से अलग होकर मैदान में उतरने का कोई फैसला करते हैं तो इसका सीधा लाभ भाजपा और राजद को तो हो सकता है पर नीतीश के हाथ कुछ ज्यादा लगे इसमें संदेह है। अब फैसला भाजपा को करना है। क्या वह नीतीश की बिहार सरकार में बने रहकर नीतीश को ही मजबूती देती रहेगी या फिर अलग होकर अपनी पार्टी को खड़ा करेगी?

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