Published on 6 April,
2013
अनिल नरेन्द्र
सत्ता के दो केन्द्र मसले पर
कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह अपने कदम वापस खींचने को तैयार नहीं हैं। दिग्विजय
सिंह ने दोहराया कि वह मैंने जो कुछ भी कहा है मैं उस पर कायम हूं और मैंने वह ऑन रिकॉर्ड
कहा है। इस विवाद को जन्म देते हुए मंगलवार को कांग्रेस महासचिव और मीडिया इंचार्ज
जनार्दन द्विवेदी ने संवाददाताओं से कहा कि कांग्रेस अध्यक्ष और पधानमंत्री के बीच
बेहतर समन्वय है। दोनों के बीच जो रिश्ता है वह पहले कभी नहीं देखा गया है। शायद भविष्य
के लिए भी आदर्श है। इस बयान के बाद यह कयास लगाए जाने लगे कि पार्टी यूपीए तीन की
स्थिति में यह पयोग दोहरा सकती है। दिग्विजय सिंह और जनार्दन द्विवेदी के पावर के दो
केन्द्र फेल या कामयाब की बहस ने राजनीतिक विवाद को जन्म दे दिया है। राजनीतिक विश्लेषकों
का मानना है कि जनरेशन चेंज के दौर से गुजर रही पार्टी खुद को बदलाव पकिया के लिए अभी
पूरी तरह तैयार नहीं कर पाई है। इसका पतिकूल असर न सिर्प पार्टी पर पड़ सकता है बल्कि
कहीं न कहीं यह पधानमंत्री मनमोहन सिंह की साख पर भी असर डाल सकता है। दरअसल कांग्रेस
संकमण काल से गुजर रही है। राहुल के जोश और पुराने नेताओं के होश के बीच सामंजस्य बिठाने
और इनके स्तर को एक करने में दिक्कतें साफ नजर आ रही हैं। जहां राहुल अपने हिसाब से
पार्टी को नए विजन के साथ आगे ले जाना चाहते हैं वहीं दूसरी ओर दूसरा वर्ग बदलाव की
रफ्तार को लेकर चिंतित है। यहां विडम्बना यह है कि अगर दिग्विजय सिंह राहुल गांधी के
विश्वास पात्र हैं वहीं जनार्दन द्विवेदी सोनिया गांधी के विश्वास पात्र हैं। आखिर
माजरा है क्या? इन बयानों के पीछे क्या कारण हो सकते हैं? पहला अगर लोकसभा चुनाव के
बाद कांग्रेस को उम्मीद से कम सीटें मिलती हैं तो शायद राहुल पधानमंत्री न बनना पसंद
करें और ऐसे में मनमोहन सिंह या ऐसे दूसरे पावर केन्द्र की जरूरत पड़ेगी जो सरकार की
बागडोर संभाले। एक कारण यह हो सकता है कि राहुल गठबंधन की राजनीति से उतने सहज नहीं
रहे हैं। वह पधानमंत्री तभी बनेंगे जब उन्हें लगे कि वह अपने तरीके से फैसले ले सकेंगे।
ऐसे में 205 से ज्यादा सीटें आने पर ही राहुल पीएम बनने की सोचेंगे। कांग्रेस 2014
के लोकसभा चुनाव को राहुल बनाम नरेन्द्र मोदी नहीं बनाना चाहती। ऐसे में मोदी बनाम
मनमोहन का भी विकल्प खुला रखना चाहती है। मेरा मानना है कि सोनिया गांधी बतौर कांग्रेस
अध्यक्ष फेल नहीं हुईं। इनकी ही वजह से यूपीए पिछले नौ साल से सत्ता में है। अगर सोनिया
न होतीं तो कांग्रेस इतने लम्बे अरसे तक सत्ता में नहीं रहती। फेल अगर कोई है तो वह
पधानमंत्री मनमोहन सिंह हैं। उनकी आर्थिक नीतियों और उनकी सरकार की अत्यन्त खराब परफारमेंस
कांग्रेस को डुबा रही है। इस दृष्टि से दिग्विजय सिंह सही कह रहे हैं कि सत्ता के दो
केन्द्र (मनमोहन-सोनिया) असफल हैं। पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र के लिहाज से देखें तो
यह अच्छी व्यवस्था है कि संगठन और सरकार की कमान अलग-अलग हाथों में हो। राजग शासन में
भी यही व्यवस्था थी। अटल जी पधानमंत्री थे और आडवाणी जी उपपधानमंत्री। अटल जी अपने
गठबंधन सहयोगियों से बेहतर तालमेल का काम भी देखते थे। इस काम के लिए उन्होंने श्री
जार्ज फर्नांडीस को लगा रखा था। आडवाणी जी पार्टी के संगठन और सरकार की कारगुजारी पर
पूरा ध्यान देते थे, तभी जाकर यह सफल हुए। ऐसा नेहरू, शास्त्राr और इंदिरा के पधानमंत्री
काल में भी हुआ था जब कांग्रेस की कमान यूएन वेवर, कामराज, निजलिंगप्पा, नीलम संजीव
रेडी से लेकर शंकर दयाल शर्मा सहित अनेक लोगों के हाथों में रही। अलबत्ता नरसिंह राव
और राजीव गांधी कांग्रेस के दो पधानमंत्री थे जो अपने पूरे कार्यकाल में पार्टी के
अध्यक्ष भी रहे। सच तो यह है कि सोनिया-मनमोहन की जोड़ी पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र
से नहीं बल्कि राजनीतिक परिस्थितियों से उपजी व्यवस्था है जिसमें मनमोहन सिंह बुरी
तरह फेल रहे। सवाल सत्ता के एकाधिक केन्द्र का नहीं सामूहिक जिम्मेदारी का भी है, जिसका
मौजूदा व्यवस्था में अभाव दिखता है। इसके साथ कांग्रेस को जल्द यह भी फैसला करना होगा
कि क्या लोकसभा चुनाव 2014 इसी जोड़ी के नेतृत्व में लड़ना चाहती है? वास्तव में यह
स्थिति कांग्रेस की दुविधा को ही दिखा रही है जिसे आज नहीं तो कल यह भी तय करना होगा
कि नंबर दो की हैसियत से घोषित राहुल गांधी की भूमिका चुनावों में किस तरह की होगी?
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