Thursday 18 April 2013

सीबीआई न तो कभी स्वतंत्र थी और न ही होगी



 Published on 18 April, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
 चलिए आज हम बात करते हैं सीबीआई की, उस पर दबाव की और उसकी कारगुजारी की। सीबीआई ने अपनी शालीन शुरुआत 1941 में विशेष पुलिस संस्था के रूप में की लेकिन यह पूर्ण अस्तित्व में 1 अपैल, 1963 को आई। आज यह देश की सबसे अग्रणी अनुसंधान एजेंसी है। सीबीआई सभी पकार के केसों को टेक ओवर करती है। मामले केवल भ्रष्टाचार तक सीमित नहीं हैं बल्कि आर्थिक, संगठित और परम्परागत अपराध को भी देखती है। अपराध के रावणनुमा कई मुखौटे होते हैं। इसलिए सीबीआई ने उचित दक्षता हासिल करने के अलावा अपने साथ औजारों को सम्मिलित किया, आज की तारीख में सीबीआई के लगभग 8200 केस अदालतों में लंबित हैं जिनमें 222 केस 20 साल से और 1571 केस 10-12 साल से विचाराधीन हैं। अगर हम राजनेताओं के पमुख केसों की बात करें तो वर्तमान में मायावती, मुलायम सिंह यादव, जगनमोहन रेड्डी, कनिमोझी व एमके स्टालिन पमुख हैं। राजा भैया और वीवीआईपी हेलीकाप्टर खरीद का ताजा केस है जिन्हें सीबीआई देख रही है। सीबीआई की कार्यशैली पर सबसे ज्यादा सवाल पिछले दो-तीन दशकों से उठे हैं। माननीय सुपीम कोर्ट ने विनीत नारायण मामले में जिस तरह सीबीआई पर सवाल उठाए थे और उसको लेकर दिशानिर्देश जारी किए थे उससे लगा था कि अब सब ठीक हो जाएगा। लेकिन फिर हालात जस के तस बन गए हैं। सीबीआई पर आम आरोप है कि वह सरकार के दबाव में काम करती है। यह लगभग नेताओं के मामले में तो साफ दिखता है। लालू पसाद यादव, मुलायम सिंह, जगनमोहन रेड्डी और मायावती सहित कई नेताओं की जांच के तरीके सीबीआई की कार्यशैली पर पश्नचिन्ह लगाते हैं। एक भी मामले में सीबीआई ने कोर्ट के समक्ष ऐसा कोई तर्प या सबूत नहीं रखा जिसके आधार पर इन लोगों को सलाखों के पीछे डाला जा सके। सीबीआई की अकसर तुलना हम अमेरिका की जांच एजेंसी एफबीआई से करते हैं। इसके अलावा दुनिया के किसी भी देश के पास इस तरह की जांच एजेंसी की कोई व्यवस्था नहीं है। ब्रिटेन में भी स्काटलैंड यार्ड है लेकिन यह भी स्थानीय पुलिस की तरह है। एफबीआई निदेशक की नियुक्ति अमेरिका के राष्ट्रपति करते हैं। निदेशक दस साल के लिए नियुक्त होता है और वहां की न्याय पालिका के पति जवाबदेह होता है। उसकी नियुक्ति के लिए एक स्कीनिंग कमेटी होती है जो संभावित निदेशक की चयन पकिया पूरी करती है। यह तरीका बेहद पारदर्शी और उत्कृष्ट होता है। जन लोकपाल के पक्ष में आवाज उठाने वालों की मांग है कि सीबीआई को इसके दायरे में लाया जाए लेकिन केन्द्र सरकार सहित कई यूपीए के घटक दल इसके खिलाफ हैं। उनका तर्प है कि सीबीआई एक स्वतंत्र एजेंसी है और यह एफबीआई की तरह स्वतंत्र रूप से ही कार्य करती है। वहीं जनलोकपाल के हिमायती और भाजपा का तर्प है कि सीबीआई कहने को स्वतंत्र है पर उसकी जवाबदेही भारत सरकार के अधीन न होकर लोकपाल के अधीन होनी चाहिए। गत दो वर्ष पूर्व सीबीआई पर नियंत्रण को लेकर ही अन्ना गुट व यूपीए में तकरार हुई थी। लेकिन केन्द्र सरकार ने अपने लोकपाल बिल में सीबीआई को स्वतंत्र रखा और उसे लोकसभा में पास करवा लिया लेकिन दुर्भाग्यवश यह बिल राज्यसभा में गिर गया। तभी से यह मामला अधर में लटका हुआ है। कटु सत्य तो यह है कि सीबीआई की मौजूदा पणाली में विरोधाभास है। एक ओर तो इसे सत्तारूढ़ सरकार का पिट्ठू कहा जाता है और उपहासपूर्ण लहजे में इसे कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टीगेशन तक कह दिया जाता है। दिलचस्प बात यह भी है कि हर विवादास्पद और उच्चस्तरीय आपराधिक मामलों में जनता की ओर से ही नहीं बल्कि उसे सरकार का पिट्ठू कहने वाले नेताओं की भी पुरजोर मांग होती है कि केस सीबीआई के सुपुर्द कर दिया जाए। सीबीआई के 50 वर्ष यानी किसी भी एक जीवन का आधा पड़ाव, लेकिन आज भी उसकी स्वायत्तता पर सवाल हैं? सीबीआई के रिकार्ड को खंगाला जाए तो एक भी सफेदपोश नेता की जांच को उसने अंतिम चरण तक नहीं पहुंचाया है। सभी जांचें लंबित अवस्था में हैं जबकि मुकदमों को दर्ज किए वर्षों बीत चुके हैं। द्रमुक नेता स्टालिन और अझागीरी के यहां पड़े छापे ने तो साफ कर दिया है कि सीबीआई का इस्तेमाल कब और कैसे किया जाता है। सपा सुपीमो हों या बसपा सुपीमो दोनों की गर्दन सीबीआई के फंदे में फंसी है और वे भी स्वीकारते हैं कि अगर केन्द्र धुरी से अलग हुए तो सीबीआई उनका कितना नुकसान कर सकती है। सीबीआई की कार्यशैली पर बड़ा सवाल उसकी तैयार होने वाली वार्षिक रिपोर्ट पर ही उठता है। इसमें दावा किया गया है कि हर वर्ष उनके यहां दर्ज मामलों को उन्होंने अपने अंजाम तक पहुंचाया और दोषी लोगों को सलाखों के पीछे डाला। लेकिन यही दावा जब सफेदपोशों के खिलाफ दर्ज मामले का आता है तो सीबीआई की वार्षिक रिपोर्ट की ग्रोथ का ग्राफ शून्य में चला जाता है। 2011 में सीबीआई ने 67 पतिशत केस और 2012 में 70 पतिशत केस में चार्जशीट दाखिल कर लोगों को सलाखों के पीछे डाला। लेकिन पिछले 20 सालों में उनका ग्राफ कभी भी 70 के पार नहीं पहुंचा, क्योंकि ये 30 पतिशत दर्ज मामले सफेदपोश नेताओं से जुड़े हैं, जिनको पूरा करने की मंशा शायद इसकी नहीं है। यही 30 पतिशत दर्ज मामले सीबीआई की कार्यशैली पर सवालिया निशान लगा देते हैं। सीबीआई के पूर्व पमुख जोगिन्दर सिंह कहते हैं कि सीबीआई न तो कभी स्वतंत्र विंग थी और न होगी। क्योंकि देश में कोई भी सरकार नहीं चाहती कि सीबीआई विंग स्वतंत्र रूप से काम करे।

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