Published on 6 December, 2012
सोमवार को कई राजनीतिक दलों ने पधानमंत्री मनमोहन सिंह से मुलाकात कर एक ज्ञापन दिया। ज्ञापन में कहा गया कि वर्षों तक शारीरिक और मानसिक पताड़ना झेलने के बाद कुछ निर्दोष पीड़ितों को आजादी मिल पाई। इन बेगुनाहों के साथ ही उनके परिजनों द्वारा वर्षों तक झेली गई बदनामी का भुगतान कैसे किया जाएगा? पधानमंत्री ने आतंक के आरोप साबित नहीं होने के बाद भी जेल में बंद बेगुनाह मुस्लिमों का मसला जल्द सुलझाने का भरोसा दिलाया है। हाल ही में उत्तर पदेश में अखिलेश यादव की सरकार ने आतंक आरोपियों के खिलाफ मुकदमा वापस लेने की मुहिम भी चलाई। पर हाईकोर्ट की फटकार के बाद उन्हें सोचने पर मजबूत होना पड़ा। पतिनिधिमंडल का कहना है कि कहीं भी कोई आतंकी विस्फोट होता है तो पुलिस निर्दोष मुसलमानों को थाने में खानापूर्ति करने के लिए फंसा देते हैं। इसमें सच्चाई भी है। पुलिस ठीक से छानबीन तो करती नहीं बस खानापूर्ति करने के लिए गिरफ्तारियां दिखा देती है। पर अदालतों में ऐसा नहीं होता। अगर कोई निर्दोष है तो उसे अदालत बाइज्जत रिहा भी करती है। हमारे सामने दिल्ली हाईकोर्ट का ताजा फैसला उदाहरण है। दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस एस. रविन्द्र और जस्टिस जीपी मित्तल की पीठ ने लाजपत नगर धमाके में दो आरोपियों को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया। बल्कि एक की फांसी को उम्रकैद में बदल दिया। पुलिस के मुस्तैद न रहने से हाईकोर्ट इस कदर नाराज था कि उसने जांच के दौरान हुई खामियों को एक-एक कर बाकायदा गिनाया। साथ ही अपनी जिम्मेदारी न निभाने पर दिल्ली पुलिस को खरी-खरी सुनाई। लाजपत नगर के सैंट्रल मार्केट में 21 मई, 1996 को हुए धमाके में 13 लोग मारे गए थे। निचली अदालत ने अपैल 2008 में इस धमाके के तीन आरापियों मिर्जा निसार हुसैन, मो. अली और निशाद को फांसी की सजा सुनाई थी जबकि जावेद को उम्रकैद की सजा दी। हाईकोर्ट में जजों ने जांच में कमियां गिनाते हुए कहा कि दिल्ली पुलिस ने न्यूनतम मानदंड का भी पालन नहीं किया। दुर्भाग्य की बात है कि बम ब्लास्ट जैसे मामले की जांच को बहुत हल्के में लिया गया। हाईकोर्ट के फैसले से यह पश्न भी उठता है कि अगर पुलिस ने केस में कोताही बरती तो निचली अदालत ने कौन सी छानबीन कर सजा सुनाई? अगर हाईकोर्ट को जांच में खामियां नजर आईं तो निचली अदालत को क्यों नहीं नजर आई? हम इस बात से सहमत हैं कि वर्षों जेल में रहने के बाद अगर कोई आरोपी निर्दोष साबित होता है तो उसका खोया टाइम का हर्जाना कौन भरेगा? या तो यह हो कि ऐसे केसों में जितने वर्ष आरोपी ने जेल में जबरन काटे उसका उसे पति वर्ष के हिसाब से हर्जाना दिया जाए। सबसे बेहतर हल तो हमारी राय में यह है कि दूसरे मुल्कों की तरह आतंकवाद संबंधी केसों का निपटारा एक साल के अंदर किया जाना चाहिए। जब पाकिस्तान जैसे देश में यह सम्भव है तो भारत में क्यों नहीं। अगर एक निश्चित अवधि में केस का निपटारा हो जाए तो बहुत सी जुड़ी समस्याएं समाप्त हो जाएंगी। आरोपी कसूरवार है या नहीं यह केवल अदालत ही तय कर सकती है। न तो पुलिस और न ही कोई सरकार।
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