Published on 14 December, 2012
भारतीय पेस परिषद के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू आए दिन ऐसे बयान देते रहते हैं जो न केवल विवादास्पद ही होते हैं, नई बहस छेड़ देते हैं और आदमी को रिएक्ट करने पर मजबूर कर देते हैं। न्यायिक सेवा में लंबे अनुभव ने उन्हें देश और समाज को गहराई से देखने की तार्पिक दृष्टि तो दी ही है, खुद उनकी शख्सियत और दिलचस्पी भी ऐसी है कि वह समय-समय पर समाज से जुड़ी चिंताओं पर अपनी बेबाक राय रखते रहते हैं और उन्हें कहने से नहीं कतराते। हाल ही में उन्होंने कहा है कि 90 पतिशत भारतीय मूर्ख होते हैं जो धर्म के नाम पर आसानी से बहकावे में आ जाते हैं। जस्टिस काटजू ने एक सेमिनार के दौरान कहा, मैं कहता हूं कि 90 फीसदी भारतीय बेवकूफ हैं। उनके सिर पर दिमाग नहीं होता। उन्हें आसानी से बेवकूफ बनाया जा सकता है। जस्टिस काटजू ने कहा कि मात्र दो हजार रुपए देकर दिल्ली में साम्पदायिक दंगे भड़काए जा सकते हैं। उन्होंने कहा कि दंगे भड़काने के लिए किसी धार्मिक स्थान पर मात्र शरारत करने की जरूरत होती है और उसके बाद लोग लड़ना शुरू कर देते हैं। उन्होंने कहा ः उसके बाद पागल लोग आपस में लड़ना शुरू कर देते हैं। उन्हें इस बात का अहसास नहीं होता कि इसके पीछे दुस्साहसी तत्व हैं। उनके अनुसार 1857 से पहले देश में साम्पदायिकता नहीं थी लेकिन अब स्थिति अलग है और 80 पतिशत हिंदू और मुसलमान साम्पदायिक हैं। काटजू ने कहा कि ये दुष्पचार था कि हिंदी हिंदुओं की भाषा है और उर्दू मुसलमानों की भाषा है। हमारे पूर्वजों ने भी उर्दू पढ़ी है लेकिन आपको बेवकूफ बनाना कितना आसान है। जस्टिस काटजू ने कहा कि वो ये कटु बातें इसलिए कह रहे हैं ताकि भारतीयों को पूरे खेल का पता चले और वो बेवकूफी न करें। भारतीयों की मूर्खता वाले उनके बयान पर तो उन्हें कानूनी नोटिस तक भेजा जा चुका है। इसी तरह विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने भारत-पाक एकीकरण की हिमायत वाले उनके बयान को लेकर चेताया है कि ऐसी बेवजह की बातों से लोगों की भावनाएं भड़क सकती हैं। दरअसल यहां मुद्दा इतना भर नहीं कि काटजू की बातें तार्पिक हैं या नहीं? एक बात तो साफ है कि भले ही असंयमित तरीके से उन्होंने अपनी बात कही हो पर कहीं न कहीं वे इस तीखे सवाल के जवाब के नजदीक पहुंचते मालूम पड़ते हैं, जिसने हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक साझी विरासत को बांट कर रख दिया है। यह बंटवारा आज भी जारी है। खुर्शीद साहब सही कहते हैं कि इतिहास को पलटा नहीं जा सकता लेकिन यह भी उतना ही सच है कि दुनिया के कई देशों और संस्कृतियों ने अतीत की अपनी भूलों से सबक सीखकर भविष्य में उन्हें सुधारा है। काटजू द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत के खिलाफ जाते हुए जिस तरह भारत-पाक एकीकरण की बात करते हैं वह आज की तारीख में अव्यावहारिक जरूर लगती है। इस कारण डा. राममनोहर लोहिया की दृष्टि ज्यादा तार्पिक मालूम पड़ती है। वे भारत-पाक एकीकरण या विलय की बजाय दोनों देशों का महासंघ बनाने के हिमायती थे। `बांटो और राज करो' और आगे चलकर `बांटो और हटो' की फिरंगी नीति से अगर वाकई कोई सबक सीखना चाहता है तो साम्पदायिक झुलस से अपनी चेतना को हटाकर रखना होगा। जस्टिस काटजू का भाव कुछ भी रहा हो पर शब्दों का चयन सही नहीं माना जा सकता।
No comments:
Post a Comment