Published on 25 December, 2012
अनिल नरेन्द्र
यह निहायत दुख का विषय है कि दिल्ली में नई पीढ़ी के साहस को जिस तरह लाठीचार्ज और आंसू गैस मारकर तोड़ने की कोशिश की गई उसकी जितनी भी भर्त्सना की जाए कम है। इस कार्रवाई ने सारे देश को दहला दिया है। गैंगरेप के खिलाफ युवाओं के उबले गुस्से को लाठीचार्ज, आंसू गैस और पानी की बौछार भी शांत नहीं कर पाई। सुबह से रात तक इंडिया गेट पर प्रदर्शनों का दौर जारी रहा। पहली बार विजय चौक पर इतने लोगों की भीड़ जुटी है जिसकी मांग सिर्प न्याय और सुरक्षा है। इनमें से कोई न तो किसी दल का है न ही किसी जात का और न ही एक जगह का। यह दमन सिर्प उन युवाओं को कुचलने का नहीं था। महिलाओं की गरिमा के पक्ष में उठ रही हर आवाज को दबाने का भी था। सारा राष्ट्र जब केंद्र सरकार से ऐसे जघन्य अपराधियों को मृत्युदंड देने संबंधी कानूनी संशोधन का इंतजार कर रहा था, तब न्यायिक आयोग बनाने जैसा अन्याय रात को सामने आया। कसाब को फांसी देने का श्रेय लेने वाले गृहमंत्री इतने दबाव के बाद भी कुछ न दे सके। `मृत्युदंड' शब्द कहने तक से बचते रहे। वास्तव में यह मनमोहन सरकार खुद भयभीत है। कोई कठोर फैसला ले सके, यह साहस इसमें नहीं है। इसीलिए किसी महिला को भरोसा नहीं कि कमजोर नेतृत्व उसकी रक्षा कर सकता है। महिला की गरिमा को इस तरह खंडित किया जाना जैसा रविवार को छात्रा के साथ किया गया हमारी नजरों में तो रेयरेस्ट ऑफ क्राइम है। इस पाश्विक अपराध को भी यह सरकार अलग-अलग श्रेणियों में डालना चाह रही है। हत्या पर तो पहले से ही मृत्युदंड है। यूं भी सरकार थोड़े ही किसी को फांसी सुना सकती है। यह तो कोर्ट पर निर्भर है। आपको तो सिर्प कानून में इसका प्रावधान करना है। प्रावधान लाने में आनाकानी क्यों? क्या सरकार को ऐसे अपराधियों की ज्यादा चिन्ता है? वह तो बहस तक से भी घबरा रही है। संसदीय समिति की बैठक भी एक हफ्ते बाद होगी। अदालतों के हाथ बंधे हुए हैं। अदालत वह सजा नहीं दे सकती जिसका कानून में प्रावधान नहीं है। गैंगरेप के लिए कानून में 10 साल और अधिकतम उम्र कैद की सजा का प्रावधान है। जज तक मानते हैं कि जिन मामलों में पीड़ित का जीवन मौत के बदतर बन गया हो, जैसा कि इस मामले में है, दोषियों को मौत की सजा मिलनी चाहिए। इसके लिए कानून में जरूरी संशोधन होने चाहिए। 1994 में दुष्कर्म व हत्या में धनंजय चटर्जी की फांसी पर मुहर लगाते समय सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि महिलाओं के प्रति बढ़ते हिंसक अपराध पर सजा के बारे में बड़ी विषमता है। ज्यादातर को सजा नहीं होती। महाराष्ट्र के एक टीचर शिवाजी को दुष्कर्म और हत्या के जुर्म में मौत की सजा सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने फिर कहा कि अपराधी को उचित दंड देकर समाज की न्याय की पुकार का जवाब जाना चाहिए। कानून का उद्देश्य समाज की रक्षा और अपराधी को भयभीत कर अपराध से रोकना है। हमारी राय में राष्ट्रपति भी थोड़ा चूक गए। युवाओं से खुलकर मिल ही लेते, पीपुल्स प्रेसीडेंट बन जाते। अब्दुल कलाम से भी आगे। बड़ा अवसर तो कांग्रेस अध्यक्ष के भी पास था। सोनिया गांधी चाहतीं तो ऐतिहासिक फैसला ले, भारत भूमि को गौरवान्वित कर सकती थीं। गांधी परिवार के सदस्य क्या यह भूल गए कि जब दिल्ली के पहाड़गंज में भयंकर आग लगने पर राजीव गांधी स्वयं मौके पर पहुंच गए थे और लोगों की सहायता में जुट गए थे। अन्य गड़बड़ियों पर उन्होंने एक विदेश सचिव व एक मुख्यमंत्री को बर्खास्त कर दिया था। हमें तो ऐसा लगता है कि अब राजनीतिक सत्ता के बजाय नौकरशाहों का शासन है। पिछले पांच दिनों से लाखों युवा सड़कों पर उतरे हुए हैं। समय रहते उन्हें शांत करने के बजाय उन पर लाठीचार्ज, आंसू गैस और पानी की बौछारें मारी जा रही हैं। इस बलात्कार कांड के अपराधियों की गिरफ्तारी और पांच पुलिसकर्मियों के निलम्बन मात्र से दिल्ली पुलिस, दिल्ली सरकार, प्रशासन, गृह मंत्रालय काबिल और दोषमुक्त नहीं हो सकते। सामान्य जनता की कुर्बानी लेने की जगह राजनीतिक दल अव्यवस्था और कानून में तत्काल बदलाव के लिए ठोस पहल क्यों नहीं कर रहे? राजधानी में बिगड़ी स्थितियां क्या सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्था के लिए कलंक नहीं है? स्वतंत्र भारत के इतिहास में इतना विवश नेतृत्व पहले कभी नहीं देखा गया।
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