Published on 27 December, 2012
केन्द्राrय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे कहते हैं कि अब गैंगरेप के खिलाफ जनता क्यों आंदोलन कर रही है, पदर्शन कर रही है। इन लोगों की ज्यादातर मांगें मानी जा चुकी हैं। जरूरी कार्रवाई की जा रही है। कानून में संशोधन के लिए ठोस कदम उठाए जा रहे हैं। अब लोग कौन सा न्याय चाहते हैं? हम माननीय गृहमंत्री से पूछना चाहते हैं कि आपने कौन सा न्याय कर दिया? सारा देश बलात्कारियों को मौत की सजा की मांग कर रहा है क्या आपने एक बार भी यह साफ कहा है कि छात्रा से बलात्कार और अमानवीय व्यवहार करने वालों को फांसी देने का पबंध किया जा रहा है? नहीं! आप तो असल मुद्दे को दबाने, जनता की आवाज को कुचलने का पयास कर रहे हैं। यह अत्यन्त दुख की बात है कि आपके मंत्रालय की मिसहैडलिंग की वजह से एक बहादुर पुलिस जवान की मौत हो गई। सामूहिक बलात्कार कांड के खिलाफ इंडिया गेट पर रविवार को हिंसक पदर्शन के दौरान बुरी तरह घायल दिल्ली पुलिस के 47 वर्षीय कांस्टेबल सुभाष चन्द्र तंवर की मृत्यु हो गई। इस सरकार की सारी स्थिति की मिसहैडलिंग का एक और बहुत बड़ा सबूत दिल्ली पुलिस बनाम दिल्ली सरकार विवाद है। छात्रा से गैंगरेप मामले को लेकर दिल्ली पुलिस और शीला सरकार के बीच ठन गई है। शीला ने आरोप लगाया है कि पीड़ित लड़की का बयान दर्ज करने गई एसडीएम पर दिल्ली पुलिस अफसरों ने दबाव बनाया। जबकि दिल्ली के पुलिस कमिश्नर का कहना है कि आरोप लगाने वाली एसडीएम पहले भी ऐसी दिक्कतें खड़ी कर चुकी हैं। दरअसल मामला गैंगरेप पीड़ित लड़की का बयान दर्ज करने वाली एसडीएम ऊषा चतुर्वेदी से जुड़ा हुआ है। एसडीएम ने आरोप लगाया कि पीड़िता का बयान दर्ज करने के दौरान दिल्ली पुलिस ने दबाव बना कर अपनी सुविधा के अनुसार बयान दर्ज करने पर मुझसे बुरा व्यवहार किया। वीडियोग्राफी कराने को लेकर भी काफी वक्त खराब हुआ, क्योंकि पुलिस ऐसा करने से रोक रही थी। दिल्ली पुलिस, दिल्ली सरकार और गृह मंत्रालय के बीच कौन सही कह रहा है इसमें छात्रा को न्याय दिलाने में कोई मदद नहीं मिलेगी। मुख्य मुद्दा तो आज भी वही है जो रविवार को था। दोषियों को दंड कब और क्या मिलेगा? अत्यन्त दुख का विषय है कि सरकार सभी आंदोलनों के साथ ऐसे ही व्यवहार करती आ रही है मानो वो विपक्षी दलों के स्वार्थ से पेरित और कुछ किराए के लोगों द्वारा किया गया आंदोलन हो। रविवार से लेकर अब तक सरकार ने इंडिया गेट व अन्य स्थानों पर युवकों से जिस तरह का व्यवहार किया वैसा आमतौर पर किराए के आंदोलनकारियों के साथ किया जाता है। चाहिए तो यह था कि सरकार को उत्तेजित छात्रों से संवाद स्थापित करना चाहिए था और उन्हें शांत करने का पयास करना चाहिए था। पर यह सरकार इतनी कन्फ्यूज चल रही है कि इसे ये समझ नहीं आ रहा कि यह आंदोलनकारियों से कैसे राफ्ता बनाए? हमारा तो यह मानना है कि सरकार ने आंदोलन के चरित्र को समझने में ही भूल की है। अभी भी आंदोलन में आधे से ज्यादा लोग ऐसे हैं जो किसी भी संगठन द्वारा लाए गए किराए के लोग नहीं हैं। सरकार ऐसा समझ रही है कि ये पूरा आंदोलन दिल्ली में हुए एक गैंगरेप के बारे में है। जबकि यह एक ज्वालामुखी है जो इस मामले से फटा है। कई सालों में लोगों के मन में बलात्कार को लेकर आकोश है। इस देश में महिलाएं चाहे वो गरीब हों या अमीर खुद को असुरक्षित समझती हैं। दिल्ली की घटना देश के रोष का पतीक बन गई है। सरकार इस समस्या को सात-आठ पुलिसकर्मियों को निलंबित करके सुलझा लेना चाहती है। सवाल यहां महत्वपूर्ण यह है कि क्या दिल्ली पुलिस ही देश में जो हो रहा है उसकी जिम्मेवार है? क्या केन्द्र सरकार, दिल्ली सरकार, राज्य सरकारें, नौकरशाह, ज्यूडिशरी जिम्मेदार नहीं? आम जनता की सुरक्षा के लिए गठित दिल्ली पुलिस का एक बड़ा हिस्सा राजनेताओं और असरदार लोगों की सुरक्षा में क्यों तैनात रहता है। खासकर उन लोगों की सुरक्षा में क्यों लगाई गई है जो खुद दागदार हैं और जिसके खुद के किमिनल बैकग्राउंड हैं? आज भी फोरेंसिक लैब में कई पदों की कमी है जिस पर अपराध अनुसंधान में देरी होती है। फास्ट ट्रैक कोर्ट का मसला भी वर्षों से चर्चा में था लेकिन इस पर कभी भी मजबूत फैसला पहले क्यों नहीं किया गया? अदालतों में भी जजों की नियुक्ति केसों के उचित अनुपात में नहीं होती। इस सब का असर कानून व्यवस्था पर पड़ रहा है। इन कमियों के लिए पुलिस आयुक्त नहीं सरकार में बैठे हुए राजनेता और अधिकारी जिम्मेदार हैं। क्या सरकार तब हिलेगी जब वह बेचारी अभागी लड़की को मृत घेषित किया जाएगा? उसको इतना मारा-पीटा गया है कि वह बेचारी बच भी गई तो उसकी जिंदगी नरकी हो जाएगी। पिछले 30 वर्षों में बलात्कार और हत्या के जघन्य मामलों में केवल तीन लोगों को फांसी पर लटकाया गया है। फांसी की सजा का पावधान देने भर से ही समस्या का समाधान नहीं होता। कड़ी सजा के साथ जरूरी है कि ऐसे मामलों में दृढ़ इच्छा शक्ति दिखाने की। जब तक सत्ता पतिष्ठान में बैठे जनता के आकाओं द्वारा इच्छाशक्ति नहीं दिखाई जाएगी फांसी की सजा क्या कर लेगी? सड़कों पर उमड़ रहा युवाओं का यह रोष सत्ता पतिष्ठान की इस लेट लीपापोती का ही परिणाम है। क्षमादान देने में रिकार्ड कायम करने वाली भारत की पूर्व राष्ट्रपति पतिभा देवी सिंह पाटिल तो दया याचिकाओं पर अपनी दरियादिली दिखाते समय यह भूल गईं कि जिन लोगों को वह फांसी की सजा से माफ कर रही हैं उनमें सात ऐसे दरिंदे हैं जिन्होंने नाबालिग बच्चियों के साथ न केवल रेप किया बल्कि उनकी बेरहमी से हत्या भी की। इन सभी दया याचिकाओं पर राष्ट्रपति के पास सिफारिश शिंदे साहब आपके गृह मंत्रालय की तरफ से हुई थी। ये सात वो दरिंदे हैं जिन के घृणित कृत्य की सजा फांसी भी कम मानी जाएगी। दुष्कर्मियों को सजा देने पर पूरा देश एकमत है। महाअभियान के जरिए एक अखबार ने राय जानी तो 11 राज्यों के मुख्यमंत्री यहां के पक्ष-विपक्ष के नेता, 143 सांसद, विधायक फांसी के पक्ष में हैं। यही नहीं लोकसभा अध्यक्ष दोनों सदनों में विपक्ष के नेता और कई केंद्रीय मंत्री भी रजामंदी जता रहे हैं। तो आखिर फांसी के पावधान पर केन्द्र सरकार विशेष सत्र बुलाने से क्यों दूर हट रही है? अगर सरकर जजों की बात करती है तो बाम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बैंच ने बहुठाणा निवासी विट्ठल चोपड़ा की याचिका यह कहते खारिज कर दी कि इस तरह की घटनाएं (रेप-हत्या) बढ़ रही हैं। जस्टिस पताप हरदास और अरुण चौधरी की बैंच ने कहा कि महिलाओं के खिलाफ गंभीर अपराधियों के लिए सजा-ए-मौत दी जानी चाहिए। रही बात दुनिया के रिएक्शन की। पहली बात तो हमें इसकी परवाह नहीं करनी चाहिए और दूसरी बात दुनिया के कई देशों में फांसी दी जा रही है। अरब देशों में तो इस तरह के जघन्य अपराध के लिए फांसी से भी कठोर दंड दिया जाता है। ईरान में अगर ऐसा मामला आता है तो वहां सामान्य मामलों में कोड़े मारने की सजा और जघन्यतम मामलों में मौत की सजा दी जाती है। कुछ ऐसी ही स्थिति इराक में भी है। इराक में शरिया कानून के आधार पर चौराहे पर पत्थर मारकर मौत की सजा का पावधान रहा है। फिलीपीन्स में भी बलात्कार की सजा मौत है। सउदी अरब में सबसे कड़ा कानून है वहां कोड़े मारने से लेकर सार्वजनिक रूप से फांसी तक की सजा का पावधान है और फांसी भी ऐसे दी जाती है कि अगर सामान्य आदमी पहली बार उस दृश्य को देखे तो बेहोश हो जाए। श्रीलंका और पाकिस्तान में भी रेप के जघन्यतम मामलों में मौत की सजा का पावधान है। चीन में तो बलात्कारियों को डंडे मारने की सजा व गला घोंटकर मारा जाता है। अमेरिका में भी बलात्कार की सजा में इलैक्ट्रिक शॉक दिया जाता है और हमारे शिंदे साहब पूछते हैं कि जनता अब क्या चाहती है? यही नहीं शिंदे साहब ने तो आंदोलनकारी छात्रों को माओवादी तक कह दिया?
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