Sunday, 16 December 2012

मायावती के सियासी दाव से सभी दल चित्त हुए


 Published on 16 December, 2012
अनिल नरेन्द्र
 बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती का गत बुधवार के मुकाबले बृहस्पतिवार को राज्यसभा में तेवर जहां बेहद नरम रहे वहीं पदोन्नति में अनुसूचित जाति/जनजाति को आरक्षण देने के लिए संविधान में संशोधन का प्रस्ताव पेश होने के बाद इसका भरपूर राजनीतिक लाभ लेने में कामयाब रहीं। उत्तर प्रदेश में बहन जी ने जब 2007 में मुख्यमंत्री की गद्दी हासिल की थी, तो राजनीतिक विश्लेषकों ने उन्हें एक मंझा हुआ सोशल इंजीनियर करार दिया था। कहा गया था कि नीले रंग की राजनीति अब बहुरंगी हो चली है। क्योंकि इसने भारतीय समाज के सर्वे-समावेशी चरित्र के मुताबिक अपने को बदलना शुरू कर दिया है। अब जबकि बसपा पदोन्नति में आरक्षण के सवाल को इतना तूल दे रही है कि इस कारण संसदीय राजनीति की पारम्परिक और मान्य परम्पराओं से भिड़ने से भी वह खुद को रोक नहीं पा रही हैं तो यह बात एक बार फिर से जाहिर हो रही है कि बसपा भारतीय समाज और राजनीति में अपनी गुंजाइश की शुरुआती दरकारों को भूली नहीं है। कितनी दिलचस्प बात है कि बसपा लोकसभा में रिटेल में एफडीआई के मुद्दे पर वोटिंग से ऐन पहले वाकआउट कर गई और राज्यसभा में सरकार की मदद के लिए अपनी सहूलियत का तर्प गढ़ते हुए प्रस्ताव के विरोध में खड़ी हुई तो उसे जरा-सा भी इस बात का खतरा नहीं लगा कि जनता क्या कहेगी। क्योंकि जिस हाथी पर बैठकर बहन जी राजनीति करती हैं उसका संतुलन एक-दो कदम दाएं-बाएं पड़ने से नहीं बिगड़ता। उत्तर प्रदेश में बसपा के उभार से अब तक बहन जी हमेशा आक्रामक राजनीति की प्रतीक रही हैं। जैसी उम्मीद थी प्रस्ताव पेश होते ही समाजवादी पार्टी ने हो-हल्ला-हंगामा और विरोध करना शुरू कर दिया। राज्यसभा में जब प्रस्ताव पेश किया गया   तो 80 के दशक के उत्तरार्द्ध में मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू किए जाने के दौरान देशभर में पैदा  हुए हालात की याद ताजा हो गई। राज्य के 18 लाख कर्मचारियों ने भी शुक्रवार से हड़ताल पर जाने की घोषणा कर दी है और समाजवादी पार्टी इस प्रावधान का विरोध करने में जुट गई है। सपा भी जो कर रही है उसके पीछे राजनीति है। सपा की कोशिश है कि इसके जरिए अगड़ों, पिछड़ों, व्यापारियों तथा अल्पसंख्यक समाज को अपने साथ मजबूती से जोड़े  रखें। यूपीए सरकार को जब एफडीआई के मुद्दे पर बसपा का समर्थन चाहिए था तो बहन जी इस पर राजी हो गईं। कहा यह गया कि बहन जी से कोई डील हो गई है। लोगों का इशारा सीबीआई केसों की ओर था। इसके लिए उन्हें एक अस्वाभाविक राजनीतिक भंगिमा भी रचनी पड़ी।  बसपा ने यह काम सहर्ष क्यों किया, यह तब तो समझ में नहीं आया पर अब आ रहा है जब प्रमोशन में रिजर्वेशन के सवाल को वह अपने राजनीतिक संघर्ष के एक नए मुद्दे के रूप में देख रही हैं। सरकार की मजबूरी है कि वह बहन जी के अड़ियल रुख से परेशान होकर भी अपनी लाचारी का रोना सार्वजनिक रूप से नहीं रो सकती। बहन जी ने ऐसा दाव चला है कि सिवाय समाजवादी पार्टी के और सभी दल उनका समर्थन करने पर मजबूर हो गए हैं। भाजपा भी सशर्त समर्थन करने को तैयार हो गई है। लगता तो यह है कि मायावती अपने इरादे में कामयाब होंगी और संविधान में संशोधन कराने में सफल रहेंगी।


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