Thursday 13 December 2012

क्या लॉबिंग के नाम पर घूस या दलाली दी गई है?


 Published on 13 December, 2012
 अनिल नरेन्द्र
 खुदरा व्यापार निवेश के अपने फैसले पर संसदीय बहुमत का जुगाड़ करने के लिए यूपीए सरकार ने कैसी-कैसी तरकीबें अपनाईं और कुछ दलों ने मतदान के समय किस तरह से पैंतरे बदले, इसकी चर्चा थमी नहीं थी कि एक और विवाद ने तूल पकड़ लिया है। खबर है कि अमेरिका की दिग्गज कंपनी वालमार्ट ने खुदरा व्यापार में निवेश की इजाजत की खातिर लाबिंग के मद में पिछले चार वर्षों में दो सौ पचास लाख डालर यानी करीब सवा सौ करोड़ रुपए खर्च किए। गौरतलब है कि यह किसी का आरोप नहीं बल्कि यह तथ्य खुद वालमार्ट की एक रिपोर्ट बताती है जो उसने अमेरिकी सीनेट को सौंपी है। 500 अरब डॉलर से अधिक के भारतीय खुदरा बाजार पर नजर गड़ाने वाली वालमार्ट ने अपने पक्ष में गोलबंदी करने के लिए सवा सौ करोड़ रुपए पूंक दिए। वह चाहती थी कि किसी भी तरह भारत का बाजार उसके लिए खोल दिया जाए। बेशक यह अपने व्यावसायिक हितों को साधने के लिए खर्च की गई रकम है और अमेरिका में इस तरह की लाबिंग को वैधता पाप्त है। मगर भारत में वालमार्ट की बेताबी और तौर-तरीके संदिग्ध लगते हैं। लाबिंग और कमीशन एजेंसियां भारत में पूरी तरह पतिबंधित हैं। यहां इनका मतलब सीधे घूसखोरी से है जो भ्रष्टाचार विरोधी कानून के तहत एक अपराध है। पूर्व कानून मंत्री तथा वरिष्ठ वकील शांति भूषण के अनुसार वालमार्ट ने एफडीआई पर लाबिंग की है तो यह मामला स्पष्ट रूप से रिश्वत का है। कंपनी ने उसी व्यक्ति को पैसा दिया होगा जो देश में एफडीआई को अनुमति दिलाने की शक्ति व क्षमता रखता है। भूषण कहते हैं कि कुछ वर्ष पहले रक्षा खरीद मामले में एजेंटों को अनुमति देने का पस्ताव था। इसमें एजेंट किसी कंपनी या देश की ओर से सिर्प अपने उत्पादों को बेहतर बताने के लिए सरकार से बात करते थे, जिसके लिए फीस तय होती। यह उसी तरह से है जैसे एक वकील मुवक्किलों का पक्ष कोर्ट में रखने के लिए फीस लेता है, जो पूरी तरह से वैध है लेकिन बोफोर्स सौदे में धांधली के मद्देनजर इस पस्ताव को नामंजूर कर दिया गया। इसके अलावा कॉरपोरेट लाबिस्ट नीरा राडिया ने भी टू-जी स्पेक्ट्रम लाइसेंस दिलाने के लिए कथित तौर पर लाबिंग की थी। यही नहीं वालमार्ट ने भारत में एफडीआई पर चल रहीं बहसों को पभावित करने के लिए भी रकम खर्ची है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि क्या मल्टीब्रांड खुदरा में एफडीआई का दरवाजा खोलने के लिए यूपीए सरकार पर किसी तरह का दबाव था? आखिर वे कौन लोग हैं, जिन्हें वालमार्ट ने पभावित किया और धन दिया? उनमें कितने भारतीय व्यक्ति हैं? पिछले वर्ष एफडीआई का फैसला टालने के बाद से यूपीए सरकार को जिस तरह से अंतर्राष्ट्रीय मीडिया और खास एजेंसियों की आलोचनाएं झेलनी पड़ी थीं, क्या वह उस पर दबाव बनाने का हथकंडा था? चूंकि भारत में लाबिंग गैर कानूनी है और करोड़ों रुपए कंपनी ने इस मक्सद से खर्च किए हैं कि यहां उसकी बेहतर पैरोकारी हो सके, इसलिए सवाल उठने लाजमी हैं। सरकार पर दबाव होगा कि वह पारदर्शिता के साथ यह बात कहे कि उसकी नीतिगत पाथमिकता का न तो किसी कंपनी विशेष से कोई लेना-देना है और न ही उसकी किसी गतिविधि से। सरकार का जवाब इस दृष्टि से भी साफ होना चाहिए कि वह इस बाबत देश को आश्वस्त करे कि अगर एफडीआई का दरवाजा तमाम आपत्तियों के बावजूद खोला जा रहा है तो इसमें किसी निहित स्वार्थ का कोई हाथ नहीं है। दरअसल साफ तो यह भी होना चाहिए कि अगर कोई भुगतान हुआ है तो वह किसे और किस मंशा से?

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