Thursday, 13 December 2012

...और अब सरकारी नौकरियों में पोन्नति का पेंच फंस गया है


 Published on 13 December, 2012
 अनिल नरेन्द्र
सरकारी नौकरियों में पोन्नति में भी एससी-एसटी को आरक्षण का मुद्दा सरकार के लिए गले की फांस बन गया है। जहां बहुजन समाज पार्टी ने तो दो-तीन दिनों के भीतर इसके लिए संविधान (संशोधन) विधेयक संसद में पारित न कराने पर सरकार के खिलाफ किसी भी हद तक जाने की धमकी दे डाली है वहीं समाजवादी पार्टी ने इस विधेयक को किसी भी कीमत पर पारित न होने देने की बात कही है। समाजवादी पार्टी के कारण पोन्नति में आरक्षण संबंधी विधेयक को सरकार राज्यसभा में पेश नहीं कर पाई। कार्मिक राज्यमंत्री नारायण सामी ने इस पर चर्चा शुरू कराने की कोशिश की लेकिन सपा के जोरदार विरोध के कारण कार्यवाही स्थगित करनी पड़ी। सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति-जनजाति वर्गों को पोन्नति पर संसद में हंगामा अनपेक्षित नहीं, इसके पूरे-पूरे आसार थे। यह भी स्पष्ट था कि जहां बहुजन समाज पार्टी इस विधेयक को हर हाल में पारित करना चाहेगी वहीं समाजवादी पार्टी ऐसा न होने देने के लिए पूरा जोर लगा देगी। अंतत ऐसा ही हुआ और इसके चलते संसद हंगामे का शिकार हुई लेकिन यह कोई ऐसा मसला नहीं है कि जिस पर जोर-जबरदस्ती की राजनीति की जाए अथवा शुद्ध वोट बैंक की राजनीति के हिसाब से फैसला लिया जाए। यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि हो ऐसा ही रहा है। हमें यह तो समझ आता है कि सपा-बसपा अपने-अपने वोट बैंक को अहमियत दें, लेकिन वे इसकी अनदेखी नहीं कर सकतीं कि यह एक संवेदनशील मुद्दा है और संविधान संशोधन से जुड़ा हुआ है। इतना ही नहीं यह संविधान संशोधन पोन्नति में आरक्षण पर सुपीम कोर्ट के पतिकूल फैसले के बाद किया जा रहा है। इसी से जुड़ा एक अन्य मसला सुपीम कोर्ट में आया है। सेना में धर्म, जाति और क्षेत्र के आधार पर होने वाली भर्तियों को सुपीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। जस्टिस केएस राधा कृष्णन और जस्टिस दीपक मिश्रा की बैंच ने डा. आईएस यादव की जनहित याचिका को सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया है। कोर्ट ने सालीसिटर जनरल रेहिंग्टन नरीमन से पूछा है कि क्या सेना में धर्म-जाति और क्षेत्र के आधार पर नियुक्ति उचित है? डा. यादव का कहना है कि वायुसेना और नौसेना के विपरीत सेना में धर्म, जाति व क्षेत्र के आधार पर भेदभाव होता है जो नहीं होना चाहिए। याचिका में कहा गया है कि संवैधानिक पावधान जाति, धर्म या क्षेत्र के आधार पर किसी के साथ भेदभाव की अनुमति नहीं देते। सेना में 15 लाख लोग काम करते हैं इनमें से 25 पतिशत हर साल रिटायर होते हैं। मातृभूमि की सेवा करने का अधिकार किसी खास वर्ग के लिए नहीं है। राजनीतिक दलों के लिए यह आवश्यक है कि नौकरियों में पोन्नति जैसे संवेदनशील मुद्दे के समाधान का कोई ऐसा फार्मूला निकालें जिससे न तो अनुसूचित जाति-जनजाति वर्गों के हितों की अनदेखी हो और न ही अन्य वर्गों के सरकारी कर्मचारियों में यह भावना आए कि उनके अधिकारों में अनावश्यक कटौती की जा रही है। सैद्धांतिक दृष्टि से इसका औचित्य नहीं कि नौकरी के आरक्षण का लाभ पाने वाले पदोन्नति में भी आरक्षण की सुविधा हासिल करें लेकिन यदि सामाजिक माहौल, भेदभाव या अन्य किसी कारणों से अनुसूचित जाति-जनजाति वर्गों के सरकारी कर्मचारी उच्च पदों पर पहुंच नहीं पा रहे हैं तो फिर शासन का यह दायित्व बनता है कि वह पोन्नति की मौजूदा व्यवस्था में सुधार करें। यह सुधार कुछ इस तरह का होना चाहिए जिससे कुशलता और दक्षता की अनदेखी न हो पाए। एक सवाल यह भी उठता है कि जिस परिवार को एक बार आरक्षण का लाभ मिल चुका हो उसे पीढ़ी दर पढ़ी यह मिलते रहना चाहिए? वैसे अगर हम उत्तर पदेश में देखें तो यह पद्धति तो एक तरह से घुमा-फिराके लागू ही है। जब समाजवादी पार्टी सत्ता में आती है तो एक वर्ग विशेष को पाथमिकता मिलती है और जब बहुजन समाज पार्टी आती है तो वह दूसरे वर्ग विशेष को आगे बढ़ाती है। हां, सेंट्रल सर्विसेज में यह नहीं हो रहा।

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