Wednesday 30 January 2013

तमाशा ही बन गए हैं यह पद्म पुरस्कार


 Published on 30 January, 2013
अनिल नरेन्द्र
प्रतिवर्ष गणतंत्र दिवस के मौके पर दिए जाने वाले पद्म पुरस्कारों का विवादों से पुराना रिश्ता है। अलग-अलग क्षेत्रों में विशिष्ट योगदान देने वालों को प्रोत्साहन देने और उनके परिश्रम व प्रतिभा को मान्यता देने के इस उपक्रम में निष्पक्ष चुनाव होने से कहीं ज्यादा चापलूसी की व भेदभाव की बू आने लगी है। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि किसी को पुरस्कार न मिलने की हताशा है, तो किसी को पुरस्कार उसकी उपलब्धि के मुकाबले कम लगता है। कुछ ऐसे भी हैं, जो अपनी ताजातरीन उपलब्धियों को पद्म सम्मानों में न बदलते देख दुखी होते हैं। एक ऐसे देश में यह सब बहुत त्रासद है, जहां उनकी उपलब्धियां बगैर पहचान और सम्मान के विस्मृति में गुम हो जाती हैं। सभी जानते हैं कि पद्म पुरस्कारों की सूची में ऐसे लोगों के नाम शामिल होते हैं जो सत्ता के काफी करीब होते हैं। आपको ऐसे नाम मिल जाएंगे जो शायद ही इस पुरस्कार के योग्य हों। सत्ता और सत्य एक-दूसरे के धुर विरोधी हैं, इसलिए सत्ता को सत्य लिखना और  बोलना अच्छा नहीं लगता। आपने क्या अच्छा काम या काम किए हैं यह इतना महत्वपूर्ण नहीं होता, महत्वपूर्ण यह होता है कि आप सत्तापक्ष के कितने करीब हो, आप सत्तापक्ष के नेताओं की कितनी हाजिरी बजाते हो। अगर आप सत्तापक्ष के चापलूस नहीं तो आपको कभी भी पद्म पुरस्कार नहीं मिल सकता। चूंकि विगत में कई बार परम्परा से हटकर ये पुरस्कार सत्ता के नजदीकी रखने वालों को भी दिए गए हैं, शायद इसलिए अब चयन पर अंगुली उठाना आसान हो गया है, जो इन सम्मानों का एक तरह से अपमान है पर यह विडम्बना ही कहेंगे कि आलोचनाओं के बावजूद चयन का ढर्रा नहीं बदलता। ये पुरस्कार कई बार किस तरह सिर्प खानापूर्ति होते हैं, इसका ज्वलंत उदाहरण राजेश खन्ना हैं। हिन्दी सिनेमा के इस पहले सुपर स्टार को मरणोपरांत पद्मभूषण दिया गया है। क्या वह जीवित रहते हुए इस सम्मान के हकदार नहीं थे या बुढ़ापा और मौत ही किसी कलाकार को पुरस्कार के लायक बनाती है? दक्षिण की चर्चित गायिका जानकी ने इस बार खुद  को मिले पद्मभूषण के सम्मान को स्वीकार करने से इंकार कर दिया है। जानकी की शिकायत है कि उन्हें यह पुरस्कार बहुत देरी से दिया गया है। जानकी के लम्बे गायन कैरियर को देखते हुए उनकी यह आपत्ति वाजिब भी लगती है, हालांकि उन्होंने पद्म पुरस्कारों के संदर्भ में उत्तर भारतीयों को तरजीह देने का जो आरोप लगाया है, वह एक भावुक शिकायत ज्यादा लगती है। यदि चयन समिति का रुख उत्तर भारतीयों को लेकर उदार होता तो दो बार के ओलंपिक पदक विजेता सुशील कुमार को उन्हीं की तरह नाराज नहीं होना पड़ता। सुशील की शिकायत है कि लगातार दो ओलंपिक पदक जीतने वाले इकलौते भारतीय होने के बावजूद उन्हें पद्मभूषण नहीं दिया गया। गौरतलब है कि सुशील ने 2008 के बीजिंग ओलंपिक में कांस्य पदक जीता और 2012 के लंदन ओलंपिक में रजत पदक जीता था। कहा जा रहा है कि उन्हें इस बार पुरस्कार देने में वे नियम आड़े आ गए जो एक व्यक्ति को मिलने वाले दो पुरस्कारों के बीच एक निश्चित अंतराल की मांग करते हैं। लेकिन इसे कमजोर बहाना कहा जाएगा। क्योंकि विशेष मामलों में इस नियम में बदलाव का प्रावधान मौजूद है। सवाल उठता है कि बार-बार विवादों के बावजूद पद्म पुरस्कार देने का तरीका क्यों नहीं बदलता? अगर तरीका नहीं बदल सकते तो बेहतर हो कि इन्हें बन्द ही कर दें। 

No comments:

Post a Comment