Tuesday, 15 January 2013

गडकरी की अदूरदर्शिता व अवसरवादी नीति की वजह से झारखंड में यह दुर्दशा



   Published on 15 January, 2013  
अनिल नरेन्द्र
भाजपा और झारखंड मुक्ति मोर्चा का मेल पूरी तरह सत्ता के लिए हुआ था और इस बिना असूलों और नीतियों के समझौते का यही हश्र होना था। झामुमो और भाजपा के बीच पिछले कई दिनों से तकरार चल रही थी। झामुमो नेता और मुंडा सरकार में उपमुख्यमंत्री रहे हेमंत सोरेन ने समर्थन वापस लेने की कई वजहें गिनाई हैं। मगर असल में एकमात्र या सबसे बड़ा मुद्दा सत्ता के बंटवारे का रहा। सोरेन का कहना है कि गठबंधन इस आधार पर बना था कि दोनों पार्टियां बारी-बारी से सरकार का नेतृत्व करेंगी। अर्जुन मुंडा सितम्बर 2010 में झामुमो के समर्थन से राज्य के मुख्यमंत्री बने थे अब सोरेन की बारी है पर भाजपा इसके लिए राजी नहीं थी। उसने सिरे से ही इस बात को नकार दिया कि दोनों दलों के बीच 28-28 महीने का कोई समझौता भी हुआ था। जब देश का मौजूदा राजनीतिक माहौल भाजपा के अनुकूल माना जा रहा हो तब दो राज्यों में उसकी सरकार गिर जाए या गिरने की कगार पर हो तो यह उसके दुर्दिन का ही सूचक कहा जाएगा। मुंडा सरकार तो गिर चुकी है और कर्नाटक में जगदीश शैट्टार सरकार के अस्थिरता में डूबने-उतराने से यदि कुछ स्पष्ट है तो वहां की राष्ट्रीय पार्टी के रूप में इस दल का भविष्य शुभ नहीं लगता। यह ध्यान रहे कि अभी चन्द दिन पहले ही भाजपा हिमाचल प्रदेश में सत्ता गंवा चुकी है। भाजपा के नए-नए बने राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने लाल कृष्ण आडवाणी समेत पार्टी के दिग्गज नेताओं को भरोसे में  लिए बगैर `अवसरवादी, अविश्वसनीय और सत्तालोलुप' झामुमो से गठजोड़ कर सरकार बनाना तय कर लिया था। आडवाणी इस सरकार की अकाल मौत निश्चित जानते हुए शपथ ग्रहण समारोह में भी शामिल नहीं हुए थे। ताजा घटनाक्रमों ने आडवाणी को भाजपा का हितैषी, दूरदृष्टा नेता तो गडकरी को अदूरदर्शी और अनुभवहीन धन का लालची ठहरा दिया है। जिन्होंने महज अपना प्रोफाइल बढ़ाने की हड़बड़ी में तत्कालीन समीकरणों की उपेक्षा की। यह घटना गडकरी के अगले कार्यकाल विस्तार पर एक प्रतिकूल टिप्पणी होनी चाहिए थी पर ताजा खबरों के अनुसार नितिन गडकरी को दूसरा कार्यकाल मिलना तय-सा है। ऊपर वाला ही बचाए इस भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को। दूसरी ओर कांग्रेस पूंक-पूंक कर झारखंड में आगे बढ़ रही है। कांग्रेस झारखंड में नई वैकल्पिक सरकार देने के लिए झामुमो से फिर घिसकर सौदेबाजी कर रही है। नई सरकार में उसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मिल सके इसके लिए उसने सबसे पहले मुख्यमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी ठोंक दी है। ताकि यदि उसे यह मांग छोड़नी भी पड़े तो कम से कम उसे अच्छे मनपसंद मंत्रालय सरकार के गठन के बाद मिलें। कांग्रेस के झारखंड प्रभारी महासचिव शकील अहमद का कहना है कि चूंकि कांग्रेस के पास खुद के 13, राजद के 5 और आसू के 6 विधायक हैं या समर्थन हासिल है जो शिबू सोरेन की झामुमो (18) के मुकाबले छह ज्यादा हैं इसलिए इस पद पर उनका दावा बनता है। उनका यह भी कहना है कि यदि झामुमो ने कांग्रेस का प्रस्ताव नहीं माना और अपना मुख्यमंत्री होने की जिद नहीं छोड़ी तो राज्य मध्यावधि चुनावों की ओर जा सकता है क्योंकि राजग और आसू को शिबू सोरेन या हेमंत सोरेन में से किसी का मुख्यमंत्री बनना मंजूर नहीं होगा और यदि समय से पहले चुनाव हुए तो यह झामुमो के हित में नहीं होगा और इसका लाभ भारतीय जनता पार्टी उठा लेगी। असल में कांग्रेस जानती है कि उसकी सदस्यता कुल  विधायक (81) में से 20 फीसदी (13) के करीब है जो दलीय लिहाज से भी चौथे नम्बर की पार्टी है ऐसे में उसकी दावेदारी सीएम पद के लिए नहीं बनती है। ऐसे कड़े रुख के पीछे मात्र एक उद्देश्य यह दिखता है कि दबाव बनाकर अगर नई सरकार बनी तो उसके हाथ  में मलाईदार मंत्रालय आ जाएं। वैसे हमें नहीं लगता कि झारखंड के मौजूदा आंकड़ों के आधार पर कोई भी जोड़तोड़ के जबरन बनी सरकार चल पाए। सम्भावना इस बात की है कि राज्य में विधानसभा स्थगित कर राष्ट्रपति शासन लगाया जाए।



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