Friday, 25 January 2013

आखिरकार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को आडवाणी के सामने झुकना ही पड़ा


 Published on 25 January, 2013
 अनिल नरेन्द्र
भारतीय जनता पार्टी का अध्यक्ष कौन होगा अंतत फैसला हो ही गया। जो फैसला हुआ उसकी तो किसी को उम्मीद ही नहीं थी। नितिन गडकरी को दूसरा कार्यकाल मिलना तय था। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने तो एक तरह से अनौपचारिक रूप से घोषणा भी कर दी थी पर संघ और गडकरी कैम्प ने भाजपा के सर्वोच्च नेता लाल कृष्ण आडवाणी को अंडर एस्टिमेट किया। आडवाणी जी ने ऐसा चक्कर चलाया कि संघ और गडकरी दोनों चक्कर खा गए। मंगलवार को रात तक नितिन गडकरी को दूसरा कार्यकाल मिलना तय था पर पहले महेश जेठमलानी ने घोषणा कर दी कि वह गडकरी को निर्विरोध अध्यक्ष नहीं बनने देंगे। शाम होते-होते यह खबर आ गई कि भाजपा के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा ने नामांकन पत्र मंगाया है। इसका मतलब यह था कि वह भी चुनाव लड़ने के मूड में हैं। गडकरी कैम्प के नक्शे तो मंगलवार रात को ही ढीले पड़ गए थे। रही-सही कसर बुधवार सुबह तब पूरी हो गई जब खबर आई कि गडकरी की कम्पनी पूर्ति में मुंबई-पुणे के 9 ठिकानों पर आयकर विभाग ने छापे मारे हैं। इन छापों ने संघ को  भी मजबूर कर दिया और नए अध्यक्ष की तलाश शुरू हुई। श्री  लाल कृष्ण आडवाणी पहले दिन से ही गडकरी को दूसरा कार्यकाल देने के खिलाफ थे और वह अंत तक अपने स्टैंड पर डटे रहे। कई नाम चले वेंकैया नायडू, डॉ. मुरली मनोहर जोशी, सुषमा स्वराज पर किसी पर आम सहमति नहीं बन सकी और रात आठ बजे तय हुआ कि गडकरी इस्तीफा दे दें। नौ बजे श्री राजनाथ सिंह  पर सहमति बनी और सवा नौ बजे गडकरी ने इस्तीफे की घोषणा कर दी और इस तरह राजनाथ सिंह भाजपा के नए अध्यक्ष चुन  लिए गए। खास बात इस घटनाक्रम में यह रही कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को लाल कृष्ण आडवाणी के सामने अंतत झुकना ही पड़ा। अंतिम समय में नितिन गडकरी की दोबारा ताजपोशी रुकवा कर आडवाणी ने साबित कर दिया है कि वे आज भी भाजपा के सबसे ताकतवर नेता हैं। दरअसल पूर्ति समूह पर तमाम आरोप लगने के बाद भी संघ अपने चहेते गडकरी की दोबारा तोजपोशी के लिए अड़ा था, लेकिन आडवाणी की दलील थी कि गडकरी पर संदेह की अंगुली उठ जाने के बाद उन्हें दोबारा पार्टी की कमान नहीं सौंपी जा सकती। वह भी तब जब भाजपा यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार के मामले उठाती रही है। संघ गडकरी की खातिर किसी भी हद तक जाने को तैयार था। मुझे याद है कि जब अरविन्द केजरीवाल ने पहली बार पूर्ति समूह में आर्थिक घोटाले का मामला उठाया था तो संघ ने इसे काउंटर करने के लिए गुरुमूर्ति से जांच करवाकर गडकरी को क्लीन चिट दिलवा दी थी। मगर आडवाणी टस से मस नहीं हुए और अंतत आडवाणी की ही विजय हुई। अपने कार्यकाल में नितिन गडकरी कोई भी ऐसी छाप नहीं छोड़ सके जिससे कहा जाए कि संघ ने इनकी नियुक्ति सही की थी। इनको राजनीतिक अनुभव भी राष्ट्रीय स्तर का नहीं था। महाराष्ट्र सरकार में यह मंत्री थे पर इससे आगे नहीं बढ़े। हां, एक उद्योगपति थे और पैसा उगाना जानते थे और शायद यही संघ चाहता भी था। नितिन गडकरी के कार्यकाल में कर्नाटक में पार्टी टूटी। येदियुरप्पा ने मिसहैंडलिंग की वजह से पार्टी छोड़ी और राजनाथ सिंह के लिए पहली चुनौती बनकर उभरा है कर्नाटक में भाजपा सरकार को बचाना। झारखंड में पैसों के बल पर जोड़तोड़ कर गडकरी ने सरकार तो बनवा दी पर उसका क्या हश्र हुआ सभी के सामने है। नितिन गडकरी के नेतृत्व में भाजपा ने हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में अपनी सरकारें गंवाईं। इतना अनुकूल माहौल होने के  बावजूद गडकरी जनता में यह विश्वास पैदा नहीं कर सके कि भाजपा कांग्रेस का विकल्प बन सकती है। राजनाथ सिंह ने कांटों का ताज पहन लिया है। चार साल तक भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष की कमान और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके राजनाथ सिंह की पहचान जमीन से जुड़े हुए एक कड़े तेवर वाले, ईमानदार छवि वाले राजनेता के रूप में है। राजनीति में उन्हें हिन्दुत्ववादी विचारधारा के प्रति समर्पित नेता के तौर पर देखा जाता है। उत्तर प्रदेश के चंदौली जिले के चकिया तहसील में एक किसान परिवार में जन्मे राजनाथ सिंह ने अपना कैरियर विज्ञान के टीचर के रूप में शुरू किया। राजनाथ सिंह का राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से पुराना जुड़ाव रहा है। वे 1975 में महज 24 साल की उम्र में जनसंघ के जिला अध्यक्ष बने। बाद में जनसंघ के भाजपा में परिवर्तित होने पर पार्टी के युवा नेता के रूप में उनका कद तेजी से बढ़ा। 2005 से 2009 तक वे भाजपा  के राष्ट्रीय अध्यक्ष का कार्यकाल सम्भाल चुके हैं। हालांकि उनकी अगुवाई में 2006 में पांच राज्यों में हुए चुनावों में पार्टी ने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया था पर 2007 में भाजपा ने उत्तराखंड और पंजाब में अच्छा प्रदर्शन किया। साथ ही 2008 में उनके अध्यक्ष के कार्यकाल में ही भाजपा ने दक्षिण भारत के राज्य कर्नाटक में पहली बार सरकार बनाई। राजनाथ सिंह के कार्यकाल में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में भी भाजपा की शानदार वापसी हुई। राजनाथ सिंह की ताजपोशी होने से राष्ट्रीय राजनीति में उत्तर प्रदेश की अहमियत फिर एक बार साफ हो गई है। लोकसभा चुनाव के ऐन पहले यूपी के इस वरिष्ठ, अनुभवी नेता को पार्टी की कमान सौंपे जाने से सूबे के भाजपाई फूले नहीं समा रहे हैं। राजनीतिक नब्ज की थाह रखने वालों का तो यहां तक अनुमान है कि अगर चुनावों में भाजपा का प्रदर्शन अच्छा रहता है तो राजनाथ सिंह भी प्रधानमंत्री पद के एक दावेदार बन सकते हैं। यह भी लग रहा है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश एक बार फिर केंद्र बनेगा। एक ओर भाजपा और राजनाथ सिंह की सरपरस्ती में एनडीए होगा और दूसरी ओर कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी की अगुवाई में यूपीए। भाजपा की काफी दिनों से यह कोशिश चल रही थी कि लोकसभा चुनाव का मुकाबला यूपी में सपा-बसपा के ध्रुवीकरण को तोड़कर राष्ट्रीय पार्टियों के बीच ही हो। माना जा रहा है कि राजनाथ सिंह और कल्याण सिंह की वापसी के साथ यूपी में भाजपा को नया जीवन मिलेगा। पार्टी को उम्मीद है कि पार्टी में निराशा का भाव खत्म होगा और कार्यकर्ता पूरे उत्साह से लोकसभा चुनाव की तैयारियों में जुटेंगे पर इससे पहले राजनाथ सिंह को कर्नाटक और लोकसभा चुनाव से पहले 9 राज्यों के विधानसभा चुनावों से निपटना होगा।

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