Published on 2 January, 2013
अनिल नरेन्द्र
दामिनी की कुर्बानी धीरे-धीरे रंग लाने लगी है। माहौल बदलने लगा है। समाज में, पुलिस प्रशासन में थोड़ा परिवर्तन आना शुरू हो गया है। इस बदले माहौल को दहशत कहें या हवा का खौफ। बसंत विहार गैंगरेप की सनसनीखेज वारदात के बाद महरौली थाने में दो छात्राओं ने तीन लड़कों के खिलाफ छेड़छाड़ और जान से मारने की धमकी का आरोप लगाते हुए केस दर्ज कराया। गैंगरेप की घटना से विवादों में घिरी दिल्ली पुलिस ने फौरन छेड़छाड़ के आरोपियों के खिलाफ एक्शन लेते हुए धरपकड़ के लिए दबिश दी। नतीजा यह हुआ कि तीन आरोपियों में से एक ने फांसी लगाकर जान दे दी और दूसरे ने डर के मारे जहर खा लिया। जान देने वाले ने सुसाइड नोट में लिखा कि अब मेरी वजह से किसी को भी कोई दिक्कत नहीं होगी, मैं मौत को गले लगा रहा हूं। जहर खाने वाले आरोपी को गम्भीर हालत में अस्पताल में भर्ती कराया गया जहां उसकी हालत स्थिर बताई जा रही है। हालांकि इतना घिनौना कांड हुआ है और सारा देश उबाल में है पर दुख से कहना पड़ता है कि समाज में माहौल नहीं बदला। पिछले आठ घंटों में कहीं स्कूल की वैन में बच्ची के साथ छेड़खानी की वारदातें हुईं तो कहीं शराब के नशे में गैंगरेप की कोशिश भी की गई। विरोध करने पर आरोपियों द्वारा महिलाओं और बच्चियों को पीटा भी गया। कुल नौ थानों में हुई वारदातों में पुलिस ने 14 लोगों को गिरफ्तार किया है। पकड़े गए मजनुओं में इंजीनियरिंग का एक छात्र भी शामिल है। अगर यह सरकार, पुलिस प्रशासन व समाज यह समझता है कि जनाक्रोश दो-चार दिन में मौसम की तरह ठंडा हो जाएगा तो वह सब गलतफहमी में हैं। 32 साल पहले भी ऐसा कुछ हुआ था, जब रंगा-बिल्ला नाम के दो अपराधियों ने एक सैन्य अधिकारी के बच्चों को अगवा कर दुष्कर्म के बाद मार डाला था। उस समय रंगा-बिल्ला को फांसी की सजा पर रोक के विरोध में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को स्कूली बच्चों की 30 हजार चिट्ठियां मिली थीं। कोर्ट ने जनभावनाओं का सम्मान कर फांसी पर लगी रोक हटाई थी। इतिहास ने खुद को दोहराया है, लेकिन सरकार भूल गई। वह जनाक्रोश को लाठीचार्ज और आंसू गैस, वॉटर कैनन व अवरोधक लगाकर रोक रही है। कमीशन और कमेटियां बनाकर शांत करने की कोशिश कर रही है। अगर यही कोशिश जनता को विशेषकर महिलाओं को देने के लिए की गई होती तो यह जघन्य घटना रुक सकती थी। हर गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रपति बहादुर बच्चों को संजय चोपड़ा और गीता चोपड़ा पुरस्कार देते हैं। यही दो बहादुर बच्चे हैं जिन्होंने अपराधियों से लड़ते हुए जान दे दी। क्या उनकी बहादुरी सिर्प सम्मान या पुरस्कार या आर्थिक मदद तक सिमट गई है, वैसे ही इस अनामिका बहादुर युवती का बलिदान भी बेकार चला जाएगा। देश की महिलाओं और बच्चों पर असुरक्षा की तलवर बदस्तूर लटकी ही रहेगी। अगर 32 साल पहले 30 हजार स्कूली बच्चों ने सुप्रीम कोर्ट पर इतना दबाव बना दिया था तो आज तो लाखों की संख्या में पब्लिक इस बढ़ती दरिन्दगी के खिलाफ आवाज बुलंद कर रही है। अनामिका की कुर्बानी बेकार नहीं जाएगी। हम सब मिलकर ऐसा नहीं होने देंगे।
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