Published on 1 January, 2013
अनिल नरेन्द्र
आज जब आप यह पढ़ रहे होंगे तो नया वर्ष
आरम्भ हो चुका होगा। चलिए इस नए वर्ष 2013 की शुरुआत में हम सब मिलकर एक संकल्प लें। दिल्ली गैंगरेप की
वह अभागी 23 वर्षीया छात्रा नाम चाहे उसका हम दामिनी लें, निर्भया लें या अनामिका कहें,
की निर्मम हत्या व्यर्थ नहीं जाएगी और उसकी कुर्बानी से हम सब मिलकर समाज की मानसिकता,
सरकार, प्रशासन, न्यायालय सभी में बदलाव लाने का प्रयास करेंगे ताकि ऐसी घिनौनी हरकत
कोई दरिन्दा फिर से न करने की हिम्मत करे। चलिए मेरे साथ सभी यह संकल्प लें। आज सारा
देश गमगीन है। इंडिया गेट से लेकर गेट वे ऑफ इंडिया के अनाम नायकों ने अर्बन इंडिया
का पार्टी मूड बदल दिया है। क्रिसमस से लेकर नए साल तक अब कोई उत्साह नहीं है। दिल्ली
में जहां पार्टी वालों की संख्या आधी रह गई है वहीं मुंबई के तीन बड़े पांच सितारा
होटलों ने अपने नए साल की पार्टी रद्द कर दी। सारे देश में एक तरफ शोक की लहर तो दूसरी
तरफ आक्रोश और पीड़ा है। सोशल साइटों से लेकर गली-गली और मौहल्ले-मौहल्ले में श्रद्धांजलि
दी जा रही है। लेकिन क्या श्रद्धांजलि से समाज जगेगा और आगे से ऐसी घटनाएं रुकेंगी?
क्या आंसुओं के इस सैलाब से समाज इस तरह के दरिन्दों का सामाजिक बहिष्कार करने का कदम
उठाएगा। कम से कम अतीत के अनुभवों से तो इस पर यकीन करना आसान नहीं है। सरकार यह उम्मीद
लगाए बैठी है कि जनता का गुस्सा, धरना, प्रदर्शन दो-चार दिन का गुस्सा है और फिर स्थिति
सामान्य हो जाएगी। यही हमें नहीं होने देना है। दुष्कर्म पीड़िता युवती के जिस्म में
ऐसे जख्म थे उससे कहीं अधिक गहरे जख्म वह हमारी सामाजिक और कानूनी व्यवस्था पर छोड़कर
गई है। जिन्हें भरने में पता नहीं कितना समय लगेगा। देश की बिटिया ने तो दम तोड़ दिया
लेकिन दमदार कानून बनाने के लिए वह सबको जगा गई। आंदोलनों के इतिहास में देश में यह
पहला मौका था जब बिना किसी नेतृत्व, धड़े और आह्वान के लोग सड़कों पर उतरे। 17 दिसम्बर
से एक अनजान अनाम लड़की के लिए शुरू हुआ आंदोलन अंजाम तक पहुंचाना अब हम सबकी जिम्मेदारी
है। 10 दिनों तक दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में गुमसुम पड़ी युवती को न्याय दिलाने
के लिए लोग पुलिस की लाठियां, आंसू गैस के गोले और ठंड में पानी की बौछारों के आगे
भी बेबस नहीं दिखे। पहली बार आंदोलनकारी बिना झिझक राष्ट्रपति का दरवाजा खटखटाने से
भी नहीं हिचके। देश की सामरिक ताकत की झांकी दिखाने वाले इंडिया गेट पर शायद पहली बार
इतनी संख्या में युवाओं ने शक्ति दिखाई। इस तरह जब किसी लड़की की मौत होती है तो सिर्प
लड़की नहीं मरती। हमारे आपके घरों में रहने वाली हर लड़की के भीतर का एक हिस्सा मरता
है। क्योंकि कोई भी लड़की या स्त्राr सिर्प एक शरीर नहीं होती, वह मां, बहन, बेटी,
पत्नी और एक नागरिक भी होती है। इस तरह जब कोई बलात्कार होता है तो वह सिर्प एक व्यक्ति
का पैशाचिक कृत्य नहीं होता। हम सब मिलकर ऐसी परिस्थितियां पैदा करते हैं। एक घूसखोर
पुलिसकर्मी जो यह नहीं जानना चाहता कि कोई बस काले शीशे लगाकर गलत रूट पर क्यों चल
रही है या गलत जगह पर क्यों खड़ी है, एक बेइमान अधिकारी जो इस बात की जांच नहीं करता
कि कोर्ट से जमानत लेकर निकले अपराधी किस्म के तत्व बस स्टॉफ के रूप में कैसे रखे गए
हैं। एक लचर कानूनी व्यवस्था जो यह देखना जरूरी नहीं समझती कि बिना सरकारी एजेंसियों
को सूचित किए और बिना मंजूरी लिए कोई ट्रांसपोर्टर अपना ऑफिस कैसे बदल सकता है। एक
सरकारी विभाग की लीपापोती, एक नेता का बयान, एक मध्यकालीन सोच वाले मर्द का दिमाग,
एक राष्ट्रपति जो पांच जानवरों की फांसी की सजा कम कर देता है ये सब मिलकर बलात्कार
की जमीन तैयार करते हैं। क्योंकि औरतों के साथ ऐसा सिर्प दिल्ली में नहीं, देश के कोने-कोने
में भी हो रहा है। जनता का गुस्सा जायज है। इस कांड से उभरे जनाक्रोश का मूल स्वर यही
है कि हमें सुरक्षित जिन्दगी जीने का हक मिले, ऐसे भ्रष्ट सिस्टम को बदला जाए जो अपराधों
के लिए नर्सरी का काम कर रहा है। विरोध प्रदर्शनों से सरकार पर दबाव बनाया जा सकता
है, लेकिन उससे भी कहीं ज्यादा जिम्मेदारी समाज की है। समाज को जागने का वक्त आ गया
है। चुप्पी तोड़ने का वक्त आ गया है। देश गुस्से में है, लेकिन उसकी आत्मा को गुस्से
से शांति नहीं मिलने वाली है। उसे ज्यादा जरूरत इस बात की है कि देश का युवा प्रण ले
कि ऐसी घटनाएं दोबारा नहीं होंगी। 16 दिसम्बर की रात को हुए इस हादसे के बाद भी रेप
और युवतियों से छेड़छाड़ की घटनाएं रुकी नहीं हैं। इस हादसे के बाद से ही पिछले 16
दिनों में गैंगरेप और रेप की लगभग दो दर्जन से ज्यादा घटनाएं देश के विभिन्न हिस्सों
में घटने का सीधा मतलब यह है कि सत्ता प्रतिष्ठान ही नहीं समाज भी अभी तक जागा नहीं।
इससे भी ज्यादा सकते में आने वाला यह तथ्य है कि देश की राजधानी में जब लगातार गुस्से
से भरे लोग हैं वहशी दरिन्दे एनसीआर में ही लगातार इस तरह की वहशियाना हरकतों को ताबड़तोड़
अंजाम दे रहे हैं। अब नींद से उठने का समय आ गया है। कार्यस्थल से लेकर परिवार तक हर
स्तर पर शुरुआत में ही इन घटनाओं के प्रतिरोध से यह सिलसिला रुक सकेगा। देश का जो जज्बा
पिछले 14 दिनों से दिखाई पड़ रहा है, उसे जगाए रखना ही इस लड़की के लिए सच्ची श्रद्धांजलि
होगी, वही देश की अन्य बहू-बेटियों की सामाजिक सुरक्षा की गारंटी। दामिनी एक बहादुर
लड़की थी जिसका जज्बा देख सफदरजंग के डाक्टर तक हैरान थे। वह जीना चाहती थी। वह अपने
दो छोटे भाइयों, माता-पिता का अकेला सहारा थी। आज उत्तर प्रदेश के बलिया स्थित उसके
पुश्तैनी गांव मेड़वरा कलां में मातम छाया हुआ है। लोगों के घरों में चूल्हें नहीं
जले। उत्तर प्रदेश और बिहार की सीमा से सटे मेड़वरा कलां गांव में बलात्कार पीड़ित
लड़की के एक रिश्तेदार ने बताया कि पीड़ित मुफलिसी में जी रहे अपने परिवार के लिए उम्मीद
की किरण थी। बेहद गरीब परिवार में जन्मी उनकी भतीजी बहुत जहीन और संघर्षशील थी। उसकी
योग्यता और लगन को देखते हुए उसके पिता ने उसे अभी तालीम दिलाने के लिए अपना पुश्तैनी
खेत भी बेच दिया था। उसके पिता को यकीन था कि एक दिन उनकी बेटी परिवार को न सिर्प गरीबी
से निकालेगी बल्कि उसे तरक्की की राह पर ले जाएगी लेकिन वक्त के जालिम हाथों ने सभी
उम्मीदों को चकनाचूर कर दिया। मेरी पोती बेहद बहादुर थी और उसने आखिर तक हार नहीं मानी।
बिटिया की पढ़ाई पूरी हो गई थी और उसे 35 हजार रुपए तनख्वाह भी मिलने लगी थी, लेकिन
बिटिया हमसे दूर जा चुकी है। बस, हम यही चाहते हैं कि सरकार कुछ ऐसा करे कि हमारी पोती
जैसी घटना किसी और लड़की के साथ न हो। यह कहना है युवती के दादा का। चलिए हम सब मिलकर
संकल्प लें कि हम दामिनी कांड को इस बार तब तक लोगों को भूलने नहीं देंगे जब तक शासन व समाज ऐसे
कांडों की पुनरावृत्ति रोकने का ठोस उपाय नहीं करता। सबको जगाकर खुद सो गई बिटिया।
सभी पाठकों को नव वर्ष की शुभकामनाएं।
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