Published on 16 January, 2013
अनिल नरेन्द्र
दुनिया के सबसे बड़े धार्मिक आयोजनों में से एक महाकुम्भ
का महा स्नान का शंखनाद हो चुका है। सोमवार को सूर्योदय के साथ ही शाही स्नान का सिलसिला
शुरू हो गया। पूरे 147 वर्षों के बाद बने दुर्लभ ग्रहीय संयोग पर इलाहाबाद संगम में
स्नान के लिए दुनियाभर से श्रद्धालुओं और साधु-संतों के साथ रेला उमड़ा है। एक अनुमान
के मुताबिक रविवार देर रात तक मेला क्षेत्र में 25 लाख से अधिक श्रद्धालु पहुंचे हैं।
मेला प्रशासन पहले शाही स्नान मकर संक्रांति पर
लगभग सवा करोड़ श्रद्धालुओं के संगम स्नान की सम्भावना जता रहे हैं। सोमवार
को भगवान भास्कर की पहली किरण के साथ ही श्रद्धालुओं का जन सैलाब गंगा, यमुना और सरस्वती
के संगम पर उमड़ पड़ा। इलाहाबाद में सदी के दूसरे महाकुम्भ में शाही स्नान अपनी अलग
ही छटा बिखेर रहा है। सबसे पहले महानिर्वाणी अखाड़े के संतों ने शाही स्नान किया। इसके
तत्काल बाद निरंजी अखाड़े के संतों ने स्नान किया। उनके लौटने के साथ ही आनन्द अखाड़ा
और अटल अखाड़ा के संत स्नान के लिए पहुंचे। सरकारी अनुमान के अनुसार सोमवार एक करोड़ 10 लाख श्रद्धालु संगम में पवित्र डुबकी लगाकर मोक्ष
की कामना करेंगे। देवताओं से अमृत का घड़ा छीनने की असुरों की कोशिशों से कभी जिस कुम्भ
की शुरुआत हुई थी आज भी उसी तरह आयोजन हमारी समृद्ध आध्यात्मिक परम्परा का ही एक और
अद्भुत उदाहरण बन गया है। कुम्भ हमारे जीवन को परिपूर्ण करने का प्रतीक है। पवित्र
नदियों में स्नान वैसे ही हमेशा ही हमें आलौकिक आनन्द से भरता है लेकिन कुम्भ के दौरान
स्नान का अपना ही अलग महत्व है क्योंकि ऐसी मान्यता है कि ऐसे अवसरों पर जल में अमृत
का दुर्लभ संयोग होता है। कुम्भ में स्नान का यह महत्व ही सदियों-शताब्दियों से लोगों
में अपनी ओर आकर्षित करता आया है। जब आवागमन के साधन इतने सुलभ नहीं थे, जब कुम्भ मेलों
में ठहरने की व्यवस्था आज जैसी नहीं थी और जब ठगों की गिद्ध निगाहों से बचना बहुत कठिन
था, तब भी यह आस्था लाखों लोगों को कुम्भ की ओर खींच लाती थी। इलाहाबाद में शुरू हुए
महाकुम्भ में उमड़े जनज्वार के पीछे भी यह आस्था ही है। यह आस्था हिमालय के किसी जटाजूटधारी
संत को यहां ले आई है, तो बेल्जियम की किसी युवती को भी संगम किनारे हाथ जोड़े आंखें
बन्द किए देखा जा सकता है। भारतीय धर्म और आध्यात्म की विविधता ऐसे ही अवसरों पर अपनी
संमूर्णता में सामने आती है। यह पारम्परिक विविधता साधु-संतों की वेशभूषा में भी दिखती
है और उनकी उपासना पद्धति तथा लोकाचारों में भी। यह संगम सिर्प गंगा, यमुना और अदृश्य
सरस्वती का ही नहीं है, साधु-संतों, महामंडलेश्वरों के साथ कारपोरेट दिग्गजों और नामचीन
अंतर्राष्ट्रीय शख्सियतों का भी है। जिस उत्साह के बीच इस महाकुम्भ की शुरुआत हुई है
उसे देखते हुए यह उम्मीद करनी चाहिए कि आगामी मार्च तक यह भक्ति, समर्पण और महामिलन
का ऐसा ही उत्सव बना रहेगा। उम्मीद यह भी रहेगी कि यह महाकुम्भ किसी विवाद का गवाह
नहीं बनेगी, अव्यवस्था की कोई शिकायत नहीं आएगी, भीड़ में अबोध बच्चे और असहाय बुजुर्ग
नहीं खोएंगे और आम श्रद्धालु भी यहां से तृप्ति के साथ लौटेंगे। उत्तर प्रदेश सरकार
को इस महाकुम्भ को सार्थक बनाने के लिए विशेष चौकसी बरतनी होगी।
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