Wednesday, 9 January 2013

दिल्ली पुलिस अपनी जवाबदेही से नहीं बच सकती


 Published on 9 January, 2013
 अनिल नरेन्द्र
यह बहुत दुख की बात है कि जो दिल्ली पुलिस जनता के साथ होने का दावा करती है आज सबसे बड़े गुनाहगार के रूप में उभर रही है। हकीकत यह है कि आज पुलिस वर्दी का किसी को खौफ नहीं रहा। इसका एक कारण है पुलिस विभाग में बढ़ता भ्रष्टाचार। लगता तो अब यह है कि पुलिस वाले यह भूल चुके हैं कि उनकी ड्यूटी क्या है? किस मकसद से उन्होंने पुलिस की नौकरी ज्वाइन की थी? अगर मकसद जनता को लूटकर अपना घर भरना है तो ठीक है पर मैं आज भी मानता हूं कि सभी पुलिस वाले ऐसे नहीं। वह ईमानदारी ने जन सेवा करना चाहते हैं पर सिस्टम में इतनी खराबी आ चुकी है कि डिपार्टमेंट में उनका दम घुटने लगा है। अधिकतर पुलिसकर्मी ज्वाइन करने पर ली गई शपथ को भी भूल चुके हैं, वह यह भी भूल गए कि वह जनता की सेवा के लिए लगाए गए हैं न कि जनता को हैरान-परेशान करके लूटने के लिए। वसंत विहार सामूहिक दुष्कर्म मामले में एकमात्र चश्मदीद गवाह व शिकायतकर्ता (युवती के दोस्त) ने कुछ ऐसे प्रश्न खड़े कर दिए हैं जिससे पुलिस विभाग के काम करने के तौर-तरीकों का पता चलता है। पुलिस विभाग ने बौखलाहट में युवती के मित्र के आरोपों का जवाब तो दिया पर वह यह देखना जरूरी नहीं समझे कि इस मुद्दे पर उन्होंने घटना के तुरन्त बाद क्या बयान दिया था। पुलिस भले दी सफाई देकर अपनी लापरवाही नहीं मान रही हो किन्तु पीड़ित युवती के दोस्त द्वारा न्यूज चैनल में दिए गए साक्षात्कार से अब यह बात तो साफ हो गई है कि पूरे प्रकरण में पुलिस से कई जगह भारी चूक हुई जिसका खामियाजा अंतत उस अभागी लड़की को भुगतना पड़ा। हालांकि दिल्ली पुलिस के अधिकारी अपनी सफाई के जरिए खुद को चुस्त-दुरुस्त और पाक-साफ बताने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन वे यह बता सकने की स्थिति में नहीं कि आखिर पीड़िता का दोस्त झूठ क्यों बोलेगा? वे विरोधाभासी जवाब दे रहे हैं। एक अफसर कुछ कहता है, दूसरा उसके विपरीत बात करता है। वे इस सवाल का संतोषजनक जवाब नहीं दे पा रहे कि पीड़िता और उसके दोस्त को पुलिस वाहन में ले जाने की तत्परता क्यों नहीं दिखाई गई? घायल युवक को पास के किसी निजी अस्पताल में भर्ती क्यों नहीं कराया गया ताकि पीड़िता की जान बचाने की कोशिश में गम्भीरता नजर आती? एक बार अस्पताल पहुंच ही गए थे तो तत्काल राहत उपलब्ध क्यों नहीं हो सकी? क्या अस्पताल में सब कुछ डाक्टरों के ही रहमो-करम पर छोड़ा गया? और भी कई सवाल हैं जिनका पुलिस के पास जवाब नजर नहीं आ रहा है। दुख की बात यह भी है कि अपनी गलती को स्वीकार करने की बजाय वह युवक पर झूठ बोलने का आरोप लगा रहे हैं। पुलिस का पक्ष इसलिए और कमजोर नजर आने लगा है, क्योंकि न तो आम जनता उसकी सफाई पर भरोसा कर पा रही है और न ही विभिन्न राजनीतिक दल। मुश्किल यह है कि दिल्ली पुलिस से जवाबदेही लेने वाला कोई नहीं। गृह मंत्रालय दिल्ली पुलिस को छोड़ने के लिए न तो तैयार है और न ही इस बात की जरूरत समझता है कि इस पूरे प्रकरण पर गहन जांच-पड़ताल हो। दिल्ली सरकार लाचारी बताकर अपना पल्ला झाड़ लेती है कि पुलिस हमारे आधीन नहीं है। आज न तो वर्दी का खौफ बचा है न ही जनता को पुलिस पर विश्वास। रही-सही कसर पुलिस के खौफ की और अदालतों में चक्कर लगाने से जनता का इनडिफरैंस। ऐसा नहीं कि लोग सड़कों पर घायलों की मदद नहीं करना चाहते पर वह पुलिस  थानों और अदालतों के चक्करों से डर जाते हैं। जब हम कानून में संशोधन की बात कर ही रहे हैं तो मेरी राय में नए कानून भी ऐसा संशोधन जरूर होना चाहिए कि सड़क पर घायलों को तुरन्त अस्पताल पहुंचाने पर  ले जाने वाली पब्लिक इन चक्करों से बच सके। उनकी गवाही पुलिस उसी समय ले ले और बाद में बार-बार अदालतों के चक्कर काटने से बच सके। बहुत सालों की बात है मैं अपनी बेटी जो मुश्किल से उस समय 6-7 साल की थी भोगल से घर लौट रहा था। साही हॉस्पिटल के सामने एक कार का एक्सीडेंट हो गया था और एक व्यक्ति और उसकी बेटी घायल अवस्था में पड़े थे। लोग आ-जा रहे थे। तमाशा तो देख रहे थे पर घायलों को कार से बाहर निकालकर अस्पताल नहीं ले जा रहे थे। मुझसे यह नहीं देखा गया। मैंने और मेरी बेटी ने पिता-पुत्री को कार से निकाला और अपनी कार में बिठाया। उन्हें चोटें लगीं थीं पर वह बहुत बुरी तरह से घायल नहीं थे और बातचीत कर रहे थे। मैंने उनसे पूछा कि कहां चलें, उन्होंने कहा कि हमें रेलवे अस्पताल (कनॉट प्लेस) ले चलो। हम उन्हें रेलवे अस्पताल ले गए और वहां डाक्टरों ने तुरन्त मामला सम्भाल लिया। मैं उस बात को भूल भी गया था कि अचानक मुझे एक फोन आया कि मैं वही व्यक्ति हूं जिसे आपने रेलवे हॉस्पिटल पहुंचाया था। मैं रेलवे में डीआईजी रेलवे पुलिस हूं। मैं आपका और आपकी बेटी का तहेदिल से शुक्रिया करना चाहता हूं। मुझे तो यह भी याद नहीं कि मैंने उन्हें अपना फोन नम्बर दिया भी था। खैर! कहने का मतलब यह है कि आप सभी का पहला फर्ज यह बनता है कि अगर सड़क पर आप किसी घायल को देखें तो बिना ज्यादा सोचे-समझे सबसे पहले उसे अस्पताल पहुंचाएं। सब काम पुलिस पर न छोड़ें।

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