Published on 5 January, 2013
अनिल नरेन्द्र
एनसीपूरे उत्तर भारत में लोग सर्दी के सितम से जूझ रहे हैं। राजधानी दिल्ली में जहां 44 साल का रिकार्ड ध्वस्त करते हुए अधिकतम तापमान सामान्य से 11 डिग्री कम और कम 9.8 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया, वहीं न्यूनतम तापमान 4.8 डिग्री दर्ज किया गया। मौसम विभाग ने बताया है कि 1970 के बाद से दिल्ली में इतना ठंडा दिन कभी नहीं रहा। 2011 में जनवरी में अधिकतम तापमान 11 डिग्री था। पाकिस्तान व अफगानिस्तान की तरफ से आने वाली ठंडी हवा, पहाड़ी इलाकों में बर्पबारी, घने कोहरे में गुम होती सूर्य की किरणों के कारण तापमान में कमी दर्ज की गई। अगले कुछ दिनों में हालात ऐसे ही रहने के आसार हैं। अब तक 100 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। सबसे ज्यादा मौतें उत्तर प्रदेश में हुई हैं। पंजाब और हरियाणा के मैदानी इलाकों में तापमान सामान्य से 2 डिग्री कम दर्ज किया गया है। मौसम के जानकारों का कहना है कि आने वाले दिनों में दिल्ली सहित उत्तर भारत में पारा और गिरेगा। जाहिर है ऐसे में आम आदमी की ठिठुरन और बढ़ जाएगी। साथ ही उन लोगों की संख्या भी बढ़ेगी जो गरीबी के चलते ठंड से लड़ते हुए उससे हार जाएंगे। मौसम का यह मिजाज भविष्य में भी यूं ही बना रहेगा यानि ठंड ऐसे ही पड़ती रहेगी, यह तो लगभग तय है ही लेकिन जबरदस्त सर्दी के कारण लोगों की जान जाती रहे यह उनकी मजबूरी को दर्शाता ही है, व्यवस्था पर भी एक बड़ा प्रश्नचिन्ह लगाता है। भीषण सर्द लहर के साथ ही एक बार फिर सरकार तथा प्रशासन की बेरुखी और बदइंतजामी उजागर हुई है। पिछले वर्ष ऐसे ही मौसम में सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के बरामदे के बाहर ठिठुरते लोगों की तस्वीरें देखकर दिल्ली सहित तमाम राज्य सरकारों को यह सुनिश्चित करने के निर्देश दिए थे कि किसी भी व्यक्ति की मौत ठंड से नहीं होनी चाहिए पर लगता है कि उसके इस निर्देश की अनदेखी कर दी गई है। अकेले उत्तर भारत में शीतलहर के कारण अब तक 100 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है और लाखों लोग या तो तंग झोंपड़ियों में या फिर किसी सहारे की ओट लेकर ठिठुरते हुए रातें गुजारने को मजबूर हैं। पता नहीं ऐसा क्यों होता है कि ये लोग अकसर विकास की योजनाओं में पीछे छूट जाते हैं। उनके लिए कोई मास्टर प्लान नहीं बनता, नतीजतन उन्हें मौसम की मार झेलनी पड़ती है। इनमें से अधिकांश लोग छोटा-मोटा रोजगार करते हैं, जिससे इतनी आय नहीं होती कि वे अपने लिए एक सही छत का इंतजाम करें। महंगाई इतनी बढ़ गई है कि इन्हें अपने बाल-बच्चों का पेट भरना भी मुश्किल लग रहा है और ऐसा साल दर साल होता है। ये गरीब हैं जो जैसे-तैसे पेट भरने के लिए दिनभर कड़ी मेहनत करने के बाद सड़क किनारे, फुटपाथों, टूटी-फूटी झुग्गियों अथवा खुले मैदानों, खेत-खलिहानों में रात काटने के लिए मजबूर होते हैं। ये गरीब हैं लिहाजा न तो इनकी कोई आवाज है और न ही कोई इनकी आवाज बनता है। ऐसे गरीब लोगों के लिए क्या दिल्ली और क्या यूपी। ये गुमनाम लोग हैं और गुमनामी के अंधेरे में ही दम तोड़ देते हैं। यहां सवाल यह उठता है कि क्या इन लोगों को मौत से बचाया नहीं जा सकता? पर न तो सरकार, न प्रशासन को इन गुमनाम लोगों की चिन्ता है और न ही फिक्र।आर समेत
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