Tuesday 7 April 2020

प्रवासी कामगारों के लिए रोजमर्रा की जरूरतें जुटाना मुश्किल

भारत में सबसे अधिक रोजगार देने वाले सूक्ष्म, लघु और मझौले (एमएसएमई) उद्योग कोरोना की मार से खुद संकट में घिर गए हैं। लॉकडाउन के चलते यह अभी बंद हैं, लेकिन लॉकडाउन आगे बढ़ता है तो करीब 1.7 करोड़ छोटे उद्योग हमेशा के लिए बंद हो सकते हैं। क्योंकि इनके पास पूंजी का आभाव है। ग्लोबल अलायंस फॉर मास इंटरप्रिन्योरशिप (जीएएमई) के चेयरमैन रवि वेंकटेशन का कहना है कि अगर देश में लॉकडाउन चार से आठ हफ्ते बढ़ता है तो कुल एमएसएमई की 25 फीसदी यानि करीब 1.7 करोड़ एमएसएमई बंद हो जाएंगी। देश में 6.9 करोड़ एमएसएमई है। इंफोसिस के चेयरमैन और बैंक ऑफ बड़ौदा के चेयरमैन रहे वेंकटेशन ने ऑल इंडिया मैन्यूफैक्चर्स एसोसिएशन के आंकड़ों के हवाले से कहा कि अगर कोरोना संकट चार से आठ माह तक बढ़ता है तो देश की 19 से 43 फीसदी एमएसएमई हमेशा के लिए भारत के नक्शे से गायब हो जाएगी। वेंकटेशन का कहना है कि एमएसएमई के हर क्षेत्र में छंटनी हो सकती है। पांच करोड़ लोगों को नौकरी देने वाले होटल उद्योग में करीब 1.2 करोड़ नौकरी जा सकती है। वहीं 4.6 करोड़ लोगों को रोजगार देने वाले खुदरा क्षेत्र से 1.1 करोड़ लोगों की नौकरी जा सकती है। विशेषज्ञों का कहना है कि सबसे बड़ी चुनौती एमएसएमई से अप्रत्यक्ष रूप से या अस्थायी रूप से जुड़े लोगों के लिए है। दिहाड़ी मजदूरों को सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ सकता है। कोरोना को फैलने से रोकने के लिए सरकार ने जब देश बंदी घोषित किया तो घरेलू सहायिका के तौर पर काम करने वाली ममता ने बिहार स्थित अपने गांव नहीं जाने का फैसला किया था लेकिन अब उसे इस पर अफसोस हो रहा है। पेशे से माली भीम सिंह भी परेशान हैं, वह पाबंदी के कारण अपना वेतन नहीं ले पा रहा है और उसके लिए अपना घर चलाना मुश्किल हो रहा है। यह दर्द उन प्रवासी कामगारों का है जो अपनी जीविका के लिए राष्ट्रीय राजधानी में ही रुक गए थे। लॉकडाउन लागू है और उनकी शिकायत है कि उन्हें उन हाई-प्रोफाइल सोसाइटी से दूर किया जा रहा है जहां वह काम करते थे। सरकार द्वारा 24 मार्च को घोषित किए गए बंद से ही बेहद कम खाना खाकर किसी तरह गुजारा कर रही ममता (57) को लगा था कि वह जल्द ही फिर से नोएडा की सोसाइटी में घरेलू सहायिका के तौर पर काम करने लगेगी और यही सोचकर वह बिहार के दरभंगा जिले स्थित अपने पैतृक गांव नहीं गईं। ममता ने कहाöमैं एक अप्रैल का इंतजार कर रही थी और सोच रही थी कि कम से कम अपनी तनख्वाह तो ले लूंगी, लेकिन यह भी न हो सका। मुझे वापस भेज दिया गया। पश्चिम बंगाल के दुर्गापुर की रहने वाली मेघा को भी अब दिल्ली से नहीं जाने का अफसोस हो रहा है। उसने पछतावा जताते हुए कहाöमेरे गांव में कम से कम पैसा उधार देने के लिए हमारे रिश्तेदार के यहां, हमारे मोहल्ले में किसी के पास पैसा नहीं है, तो हमें उधार कौन देगा? बंद की घोषणा होते ही देशभर में बड़ी संख्या में प्रवासी कामगार बड़े शहरों से अपने पैतृक स्थानों की ओर रवाना हो गए थे। सरकार को अब यह सुनिश्चित करना होगा कि लोग जहां हैं वहीं उनके पास राशन और रकम पहुंचे। उन्हें कहीं जाकर यह लेने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। दरअसल यह सारी चीजें लॉकडाउन करने से पहले सोची जानी चाहिए थीं।

No comments:

Post a Comment