Thursday, 31 January 2013

शाहरुख की छोटी-सी टिप्पणी पर इतना बड़ा बवाल


  Published on 31 January, 2013
 अनिल नरेन्द्र
बॉलीवुड के सुपर स्टार शाहरुख खान की सुरक्षा पर नापाक नसीहत भारत और पाकिस्तान के बीच तकरार का नया सबब बन गई है। आखिर यह मामला है क्या? 21 जनवरी न्यूयार्प टाइम्स के सहयोग से प्रकाशित पत्रिका आउटलुक टर्निंग प्वाइंट्स का अंक बाजार में आया था। पत्रिका को दिए इंटरव्यू में शाहरुख खान ने अपने मन की कई बातों का खुलासा किया। इसमें उन्होंने यह भी कहा है कि भारत में कुछ ही नेता हर मुसलमान को देशद्रोही नजरिए से देखते हैं। इस पीड़ा से एक मुस्लिम होने के नाते वे कई बार खुद गुजरे हैं। ऐसे में उन्हें देश प्रेम जताने के लिए कुछ न कुछ बोलना पड़ता है। जबकि उनके पिता एक स्वतंत्रता सेनानी रहे हैं। उनकी पत्नी गौरी एक हिन्दू हैं। उनके जीवन में कभी भी धर्म के सवाल पर तनाव नहीं हुआ। लेकिन कुछ  लोग मुसलमानों को गलत नजरिए से देखते हैं। ऐसे में उनके जैसा शख्स भी कई बार अपने को असुरक्षित पाता है। इंटरव्यू देते समय शाहरुख खान को शायद ही अन्दाजा रहा हो कि इस पर इतना बड़ा बवाल खड़ा हो जाएगा। इस इंटरव्यू के छपते ही मुंबई हमले के मास्टर माइंड और आतंकी संगठन जमात-उद-दावा के सरगना हाफिज सईद ने शाहरुख खान की आप बीती का हवाला देते हुए उन्हें पाकिस्तान में  बसने का न्यौता दे डाला और उनकी पूरी सुरक्षा की गारंटी ली। हाफिज सईद से न तो किसी ने पूछा कि वह भारत के अंदरुनी मामलों में टांग अड़ाएं और न ही शाहरुख को आप जैसों की हमदर्दी या मदद की दरकार है। पर टांग जबरन अड़ाने की पाकिस्तान की आदत-सी बन गई है। सईद के बयान के दो दिन बाद ही पाक के गृहमंत्री रहमान मलिक भला पीछे कैसे रहते वह भी बिन बुलाए मेहमान की तरह मैदान में कूद पड़े। रहमान मलिक ने इस्लामाबाद के एक टीवी चैनल पर कह दिया कि भारत के लोग और वहां की सरकार सुपर स्टार शाहरुख को और ज्यादा सुरक्षा दे। क्योंकि यह अभिनेता भारत के साथ उनके मुल्क में भी बहुत लोकप्रिय है। रहमान मलिक ने कहा कि मैं भारत सरकार से आग्रह करता हूं कि कृपया वह शाहरुख को सुरक्षा प्रदान करे। रहमान मलिक के इस बयान पर भारत सरकार और तमाम राजनीतिक दलों ने तीखी प्रक्रिया व्यक्त की है। मलिक के सुझाव को खारिज करते हुए केंद्रीय गृह सचिव आरके सिंह ने कहा कि हम अपने नागरिकों की सुरक्षा करने में सक्षम हैं। सूचना प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी ने भारत सरकार के सभी नागरिकों की एक समान देखभाल का तर्प देते हुए कहा कि मलिक को अपने देश में अल्पसंख्यकों की स्थिति सुधारनी चाहिए। कांग्रेस ने कहा कि अपने देश में अल्पसंख्यकों की चिन्ता करें रहमान मालिक। तो भाजपा ने ओसामा बिन लादेन को शरण देने वाले देश के गृहमंत्री के बयान को हास्यास्पद बताया। 24 घंटे की चुप्पी के बाद खुद शाहरुख खान ने रिएक्ट करते हुए मंगलवार को कहा कि इस मामले में टिप्पणी करने से पहले लोग लेख को ठीक से पूरा पढ़ें और समझें। उन्होंने कभी नहीं कहा कि उन्हें भारत में डर लगता है। वह यहां पूरी तरह सुरक्षित हैं। मुझे अपनी देशभक्ति साबित करने की जरूरत नहीं है। शाहरुख ने कहा कि हिन्दू बनेगा, न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है, इंसान बनेगा। मुझे करोड़ों भारतीय लोगों का प्यार मिला है और भारतीय होने पर मुझे गर्व है। उन्होंने मीडिया पर टिप्पणी करते हुए कहा कि मैंने जो कहा है मीडिया वही लोगों को दिखाए। कुछ लोगों ने फायदे के लिए मुझ पर निशाना साधा है। मुझे दुख होता है कि आज मुझसे अपनी देशभक्ति साबित करने को कहा जा रहा है। शाहरुख ने बिना किसी का नाम लिए यह स्पष्ट किया कि कोई उन्हें बेवजह सलाह न दे। उन्होंने पाक मंत्री रहमान मलिक को भी सलाह दी कि बाहरी लोग इस मामले में अपनी टिप्पणी न करें। जैसा मैंने कहा कि शाहरुख खान ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि इतनी छोटी-सी बात का इतना बड़ा बवाल बन जाएगा।

सारे गिले-शिकवे दूर हो गए फिर भारत-पाक भाई-भाई?


 Published on 31 January, 2013
 अनिल नरेन्द्र
बात कड़वी है पर है कटु सत्य। यूपीए की इस सरकार में न तो इच्छाशक्ति नजर आती है और न ही यह किसी भी मुद्दे पर मजबूती से खड़ी हो सकती है। आज इस शासन का न तो देश के अन्दर किसी को कोई भय है और न ही देश के बाहर। पड़ोसी पाकिस्तान इस सत्य को समझ गया है। वह जानता है कि भारत एक सॉफ्ट स्टेट बन चुका है और हम जो चाहें, जब चाहें कर लें कोई पूछने वाला नहीं, कोई जवाबतलबी करने वाला नहीं। आज तक न लांस नायक हेमराज का कटा सिर ही हमें मिला, न चमेल सिंह की जेल में पीट-पीट कर हत्या का संतोषजनक जवाब मिला और न कभी मिलेगा।  पाकिस्तान हर बात से इंकार कर देता है और हम दो-तीन दिन शोर मचाते हैं और फिर शांत होकर भाईचारे की बातें करना शुरू कर देते हैं। ताजा खबर है कि भारत-पाकिस्तान में सब मतभेद दूर हो गए हैं और फिर से अमन की आशा वापस ट्रैक पर आ गई है। जम्मू-कश्मीर को भारत और पाकिस्तान के बीच विभाजित करने वाली नियंत्रण रेखा के आर-पार आवागमन सोमवार को फिर से बहाल हो गया। वहीं व्यापार मंगलवार से शुरू हो गया। सबसे पहले 80 यात्रियों को लेकर भारत के उस पुंछ इलाके से जहां लांस नायक हेमराज का सिर काटा गया था ठीक वहीं से तीन बसें पाकिस्तान के रावल कोट के लिए रवाना हुईं। तनाव बढ़ने से करीब 100 लोग बस सेवा बन्द होने से फंस गए थे। आठ जनवरी से यह रास्ता बन्द था। पाकिस्तान की कथनी और करनी का एक और ताजा उदाहरण सामने आया है। वर्ष 1999 में पाकिस्तान के तत्कालीन सैन्य शासक परवेज मुशर्रफ की ओर से कारगिल में मुजाहिद्दीनों के वेश में पाकिस्तानी सैनिकों की मूर्खतापूर्ण व दुस्साहसिक हरकत और उसे छुपाने का पर्दाफाश उस समय के आईएसआई की एनालिसिस विंग के प्रमुख शाहिद अजीज ने कुछ नए तथ्यों के साथ एक लेख में किया है। पाकिस्तानी अखबार `द नेशन' में `पुटिंग अवर चिल्ड्रन इन लाइन ऑफ फायर' शीर्षक से छह जनवरी को छपे अजीज के लेख ने पाकिस्तान में हलचल पैदा कर दी है। पाक सेना के पूर्व लेफ्टिनेंट जनरल अजीज ने कहा है कि कारगिल युद्ध में पाकिस्तान की तरफ से मुजाहिद्दीन नहीं बल्कि पाक सेना के जवान लड़े थे। अब तक पाकिस्तान यह कहता रहा है कि कारगिल में हमला करने वाले आतंकवादी थे। लेख में शाहिद अजीज ने कहा है कि कारगिल में हमला झूठे अनुमानों पर आधारित एक बेकार योजना थी। बाद में जनरल मुशर्रफ ने इस पूरे मामले को दबा दिया और पाकिस्तानी जवानों को चारे की तरह इस्तेमाल किया गया। अजीज ने लिखा कि कारगिल की लड़ाई में कोई मुजाहिद्दीन नहीं था। सिर्प वायरलेस पर मुजाहिद्दीन के नाम को लेकर झूठे संदेश भेजे जा रहे थे। इससे किसी को बेवकूफ नहीं  बनाया जा सका। हमारे सैनिकों को हथियार और गोला-बारूद के साथ खंदकों में बिठाया गया था। पाकिस्तानी जवानों को कहा गया था कि भारत हमले का जवाब नहीं देगा, लेकिन भारत ने जब जवाबी हमला किया तो न सिर्प पाक जवान अलग-थलग पड़ गए बल्कि उनकी चौकियों से भी सम्पर्प कट गया। उस समय एनडीए का शासन था जिसने सेना को खुली छूट दे दी थी कि आप जवाबी कार्रवाई करें। इस सरकार में इतना दम नहीं है?

Wednesday, 30 January 2013

26/11 मामले में डेविड हेडली को कम सजा पर बहस


 Published on 30 January, 2013
 अनिल नरेन्द्र
मुंबई पर 2008 में हुए हमले की साजिश में शामिल रहे डेविड कोलमैन हेडली को अमेरिका की एक अदालत ने 35 साल कैद की सजा सुनाई है। अमेरिकी जांच एजेंसी फेडरल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टीगेशन (एफबीआई) ने पाकिस्तानी मूल के 52 वर्षीय अमेरिकी नागरिक हेडली को मुंबई हमले की साजिश रचने और उसे अंजाम देने में उसकी संलिप्तता के आरोपों में अक्तूबर 2009 में गिरफ्तार किया था। 52 वर्षीय हेडली ने अमेरिकी जांच एजेंसी से एक समझौता किया था जिसके चलते वह मौत की सजा से बच निकलने में कामयाब रहा। इस सजा में पेरौल का कोई प्रावधान नहीं है और दोषी को अपनी सजा की कम से कम 85 फीसदी सजा पूरी करनी होगी। शिकागो के जज ने खचाखच भरी अदालत कक्ष में सजा सुनाते हुए कहा कि हेडली एक आतंकवादी है, उसने अपराध को अंजाम दिया, अपराध में सहयोग किया और इस सहयोग के बाद में इनाम भी पाया। अमेरिकी डिस्ट्रिक्ट जज हेरी लेनेनवेबर ने कहा इससे कोई फर्प नहीं पड़ता कि मैं क्या करता हूं। इससे आतंकवादी रुकेंगे नहीं। 35 साल की सजा सही नहीं है पर मैं 35 साल की सजा दिए जाने के सरकार के प्रस्ताव को स्वीकार करता हूं और 35 साल की सजा सुनाता हूं। जज ने कहा कि मौत की सजा सुनाना अधिक आसान होता, आप इसी के हकदार हैं। हेडली को मौत की सजा न सुनाए जाने पर विवाद छिड़ गया है। तमाम लोग उसके जुर्म की संगीनी देखते हुए इस सजा को अपर्याप्त मान रहे हैं। यहां तक कि फैसला सुनाने वाले जज लेनेनवेबर ने भी यही कहा। माना जा रहा है कि चूंकि हेडली ने एफबीआई के साथ सहयोग किया इसलिए अभियोजन पक्ष ने अदालत से उसकी मौत की सजा की मांग नहीं की। लेकिन हेडली को आजीवन कारावास भी न देना लोगों के गले नहीं उतर रहा है। सजा का ऐलान होते वक्त अदालत में मौजूद पीड़ितों व उनके परिजनों ने भी कहा कि उनकी जुटाई सूचनाओं के आधार पर मुंबई में जिस तरह बर्बर कत्लेआम किया गया उसे देखते हुए हेडली को जीने का कोई अधिकार नहीं है। गौरतलब है कि 26 नवम्बर 2008 को मुंबई पर हुए आतंकी हमले में 166 लोग मारे गए थे जिनमें छह अमेरिकी नागरिक भी शामिल थे। हेडली ने अक्तूबर 2009 में शिकागो में गिरफ्तार होने के बाद यह कबूल किया था कि उसने 2006-08 के बीच मुंबई की कई बार यात्रा की, हमले के ठिकानों की टोह ली व जानकारियां जुटा कर उन्हें लश्कर-ए-तैयबा तक पहुंचाया। पिछले हफ्ते आतंकवाद के प्रसार में हेडली के सहयोगी रहे तहव्वुर हुसैन राणा को भी अदालत ने 14 साल की सजा सुनाई थी। भारत हेडली के प्रत्यार्पण करने की मांग कर रहा है। कठिनाई इसमें यह आ रही है कि अमेरिकी कानून के अनुसार किसी अपराध के लिए एक बार सजा होने के बाद आरोपी का दूसरे देश में प्रत्यर्पण नहीं हो सकता। हालांकि जानकारों के अनुसार हेडली ने पुष्कर और दिल्ली आदि जगहों की भी रेकी की थी और अमेरिकी अदालत ने इसके लिए उसे सजा नहीं दी, इसलिए भारत प्रत्यर्पण की मांग जारी रख सकता है। अमेरिका ने हेडली को भारत भेजने की मांग को खारिज कर दिया है। अमेरिकी विदेश विभाग की प्रवक्ता विक्टोरिया नूलैंड ने कहा है कि हेडली के खिलाफ अमेरिका में सुनवाई हुई है। उसे यहीं दोषी ठहराया गया है और वह सजा भी अमेरिका में ही भुगतेगा। हमारे अनुसार न्याय हो चुका है और यह आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में अमेरिका और भारत सहयोग का एक बहुत ही सकारात्मक उदाहरण है। उन्होंने कहा कि अमेरिकी व भारतीय अधिकारियों के बीच बेहतरीन सहयोग व तालमेल के कारण ही डेविड हेडली के खिलाफ जांच व अभियोग आगे बढ़ पाए हैं। मुंबई में 26/11 मामले में विशेष अधिवक्ता उज्जवल निकम की प्रतिक्रिया थी कि हेडली को इस मामले में सरकारी गवाह बना देना चाहिए ताकि गुनाहगारों को सजा मिल सके। निकम ने बताया कि यह अहम है कि हेडली की सजा को लेकर किए गए समझौते में स्वीकार किया था कि वह 26/11 आतंकी हमले में अमेरिका की ओर से गवाही देगा। अब पाकिस्तान को हेडली को 26/11 मामले में अभियुक्त बनाना चाहिए। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान को उसे सरकारी गवाह बनाना चाहिए और वीडियो लिंक के जरिए उसका बयान दर्ज करना चाहिए। पाकिस्तान हमेशा कहता आया है कि लश्कर-ए-तैयबा के प्रमुख हाफिज सईद के खिलाफ उसके पास सबूत नहीं हैं परन्तु अजमल कसाब ने अपने बयान में सईद का नाम  लिया था। हेडली ने 26/11 की साजिश में अहम भूमिका निभाई और कबूल भी की है। हेडली का साक्ष्य बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि दुनियाभर में भय पैदा करने के इरादे से मुंबई में नरसंहार की योजना लश्कर-ए-तैयबा की साजिश को पूरा करने के लिए हेडली ने उसके प्रमुख नेताओं से बात की होगी। बहरहाल बेहतर होगा कि हेडली के प्रत्यर्पण की मांग के साथ-साथ हम अमेरिका की न्यायिक प्रक्रिया की तत्परता पर भी गौर करें। चुस्त अभियोजन और समयबद्ध अदालती सुनवाई के अभाव में हेडली जैसों के प्रत्यर्पण से क्या हासिल होगा?

तमाशा ही बन गए हैं यह पद्म पुरस्कार


 Published on 30 January, 2013
अनिल नरेन्द्र
प्रतिवर्ष गणतंत्र दिवस के मौके पर दिए जाने वाले पद्म पुरस्कारों का विवादों से पुराना रिश्ता है। अलग-अलग क्षेत्रों में विशिष्ट योगदान देने वालों को प्रोत्साहन देने और उनके परिश्रम व प्रतिभा को मान्यता देने के इस उपक्रम में निष्पक्ष चुनाव होने से कहीं ज्यादा चापलूसी की व भेदभाव की बू आने लगी है। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि किसी को पुरस्कार न मिलने की हताशा है, तो किसी को पुरस्कार उसकी उपलब्धि के मुकाबले कम लगता है। कुछ ऐसे भी हैं, जो अपनी ताजातरीन उपलब्धियों को पद्म सम्मानों में न बदलते देख दुखी होते हैं। एक ऐसे देश में यह सब बहुत त्रासद है, जहां उनकी उपलब्धियां बगैर पहचान और सम्मान के विस्मृति में गुम हो जाती हैं। सभी जानते हैं कि पद्म पुरस्कारों की सूची में ऐसे लोगों के नाम शामिल होते हैं जो सत्ता के काफी करीब होते हैं। आपको ऐसे नाम मिल जाएंगे जो शायद ही इस पुरस्कार के योग्य हों। सत्ता और सत्य एक-दूसरे के धुर विरोधी हैं, इसलिए सत्ता को सत्य लिखना और  बोलना अच्छा नहीं लगता। आपने क्या अच्छा काम या काम किए हैं यह इतना महत्वपूर्ण नहीं होता, महत्वपूर्ण यह होता है कि आप सत्तापक्ष के कितने करीब हो, आप सत्तापक्ष के नेताओं की कितनी हाजिरी बजाते हो। अगर आप सत्तापक्ष के चापलूस नहीं तो आपको कभी भी पद्म पुरस्कार नहीं मिल सकता। चूंकि विगत में कई बार परम्परा से हटकर ये पुरस्कार सत्ता के नजदीकी रखने वालों को भी दिए गए हैं, शायद इसलिए अब चयन पर अंगुली उठाना आसान हो गया है, जो इन सम्मानों का एक तरह से अपमान है पर यह विडम्बना ही कहेंगे कि आलोचनाओं के बावजूद चयन का ढर्रा नहीं बदलता। ये पुरस्कार कई बार किस तरह सिर्प खानापूर्ति होते हैं, इसका ज्वलंत उदाहरण राजेश खन्ना हैं। हिन्दी सिनेमा के इस पहले सुपर स्टार को मरणोपरांत पद्मभूषण दिया गया है। क्या वह जीवित रहते हुए इस सम्मान के हकदार नहीं थे या बुढ़ापा और मौत ही किसी कलाकार को पुरस्कार के लायक बनाती है? दक्षिण की चर्चित गायिका जानकी ने इस बार खुद  को मिले पद्मभूषण के सम्मान को स्वीकार करने से इंकार कर दिया है। जानकी की शिकायत है कि उन्हें यह पुरस्कार बहुत देरी से दिया गया है। जानकी के लम्बे गायन कैरियर को देखते हुए उनकी यह आपत्ति वाजिब भी लगती है, हालांकि उन्होंने पद्म पुरस्कारों के संदर्भ में उत्तर भारतीयों को तरजीह देने का जो आरोप लगाया है, वह एक भावुक शिकायत ज्यादा लगती है। यदि चयन समिति का रुख उत्तर भारतीयों को लेकर उदार होता तो दो बार के ओलंपिक पदक विजेता सुशील कुमार को उन्हीं की तरह नाराज नहीं होना पड़ता। सुशील की शिकायत है कि लगातार दो ओलंपिक पदक जीतने वाले इकलौते भारतीय होने के बावजूद उन्हें पद्मभूषण नहीं दिया गया। गौरतलब है कि सुशील ने 2008 के बीजिंग ओलंपिक में कांस्य पदक जीता और 2012 के लंदन ओलंपिक में रजत पदक जीता था। कहा जा रहा है कि उन्हें इस बार पुरस्कार देने में वे नियम आड़े आ गए जो एक व्यक्ति को मिलने वाले दो पुरस्कारों के बीच एक निश्चित अंतराल की मांग करते हैं। लेकिन इसे कमजोर बहाना कहा जाएगा। क्योंकि विशेष मामलों में इस नियम में बदलाव का प्रावधान मौजूद है। सवाल उठता है कि बार-बार विवादों के बावजूद पद्म पुरस्कार देने का तरीका क्यों नहीं बदलता? अगर तरीका नहीं बदल सकते तो बेहतर हो कि इन्हें बन्द ही कर दें। 

Tuesday, 29 January 2013

बौखलाए नितिन गडकरी अब धमकियों पर उतरे


 Published on 29 January, 2013
 अनिल नरेन्द्र
भारतीय जनता पार्टी के पूर्व अध्यक्ष नितिन गडकरी आज कल बहुत गुस्से में हैं। लगता है कि उन्हें दोबारा कार्यकाल न मिलने से वह बौखला गए हैं। वैसे भी गडकरी कभी भी अपनी वाणी पर संयम के लिए नहीं जाने जाते। उनकी अमर्यादित टिप्पणियां तो बहुत होगी, कई बार उन्हें इसके लिए माफी भी मांगनी पड़ी है। दोबारा अध्यक्ष बनते-बनते रह गए गडकरी अब खुलेआम धमकियों पर उतर आए हैं। अध्यक्ष पद से मुक्त किए गए नितिन गडकरी गुरुवार को अपने घर नागपुर पहुंचे। स्टेज मैनेजमेंट इतना अच्छा था मानो वह कोई बड़ा किला फतेह करके आए हों। पार्टी कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए गडकरी अपनी चिर-परिचित भाषा में बोलने लगे। उन्होंने आयकर विभाग के अधिकारियों को सबक सिखाने की धमकी दे डाली। उन्होंने कहा हमारी सरकार आने दो, मैं किसी को नहीं छोड़ूंगा। तब देखूंगा कि इन अधिकारियों को बचाने के लिए न तो चिदम्बरम आएंगे और न ही सोनिया। गडकरी ने आगे कहा मैं मर्द हूं, जब भाजपा अध्यक्ष था, तो कई मर्यादाओं का पालन करना होता था लेकिन अब मैं आजाद हूं। मेरे खिलाफ जांच कर रही आईटी विभाग की टीम में करीब आधे अधिकारी मुझसे और मेरी पार्टी से सद्भावना रखते हैं। वे मुझे अन्दर की खबर देते रहते हैं। मेरे खिलाफ जो अधिकारी साजिश रच रहे हैं मैं उनके नाम जानता हूं। कांग्रेस की नाव डूब रही है। जब हमारी पार्टी सत्ता में आएगी तब मेरे खिलाफ लगे अधिकारियों को बचाने न चिदम्बरम आएंगे और न सोनिया गांधी। उन्होंने कहा कि कांग्रेस में एक मालकिन है बाकी सब नौकर हैं। मुलायम और मायावती को भी सीबीआई का डर दिखाकर ब्लैकमेल किया जा रहा है। यह पहला मौका नहीं है जब गडकरी ने आयकर विभाग को ऐसी धमकी भरा संदेश दिया है। पिछले साल भी उन्होंने इसी तरह की चेतावनी दी थी, जब आयकर विभाग ने उनकी कम्पनी पूर्ति समूह में निवेश के स्रोत की जांच शुरू की थी। इस बार उनकी प्रतिक्रिया कहीं ज्यादा बौखलाहट भरी है। शायद इसलिए कि आयकर विभाग के छापों ने भाजपा के तमाम नेताओं को पुनर्विचार के लिए विवश कर दिया और उन्हें आखिरी क्षणों में बाइपास करके राजनाथ सिंह को अध्यक्ष पद सौंप दिया। सवाल यह है कि अगर गडकरी मानते हैं कि वे पाक साफ हैं तो उन्हें डरने की कोई जरूरत नहीं होनी चाहिए और न ही इस प्रकार की धमकियां देनी चाहिए। अगले चुनाव के बाद केंद्र में राजग सरकार बने या नहीं इतना तो तय लगता है कि गडकरी सत्ता का कैसे दुरुपयोग का इरादा रखते हैं। क्या सुशासन की भाजपा की यही परिभाषा होगी? अपने खिलाफ लगे आरोपों को निराधार ठहराया या जांच शुरू होने से पहले राजनीति या सियासी बदले की भावना से प्रेरित बताना राजनीतिज्ञों की फितरत रही है। लेकिन सत्ता में आने पर अफसरों को देख लेने की जो बात गडकरी ने कही वैसा दूसरा उदाहरण मिलना मुश्किल है। पूर्ति समूह के गोरखधंधे के बारे में अरविन्द केजरीवाल के खुलासे के कुछ समय बाद एक अंग्रेजी अखबार ने इस बाबत कुछ और जानकारियां जुटाईं और प्रकाशित की। गडकरी इन तथ्यों की कोई काट अभी तक पेश नहीं कर पाए हैं। लेकिन वह आयकर विभाग और मीडिया का मनोबल तोड़ने की कोशिश जरूर कर रहे हैं। गडकरी और भाजपा दोनों के लिए बेहतर होगा अगर नितिन गडकरी अपनी बौखलाहट पर काबू पाएं।

पाकिस्तानियों ने भारतीय कैदी को पीट-पीटकर मार डाला


 Published on 29 January, 2013
 अनिल नरेन्द्र
 दो भारतीय सैनिकों के शवों के साथ पाक सैनिकों की बर्बरता का मामला शांत नहीं हुआ था कि वहां की जेल में भारतीयों के साथ कूरता की एक और घटना सामने आई है। आरोप है कि कोट लखपत जेल के अफसरों ने नल पर कपड़े धोने जैसी मामूली बात पर न सिर्प जम्मू-कश्मीर के अखनूर निवासी कैदी चमेल सिंह की हत्या कर दी बल्कि घटना के हफ्तेभर बाद भी चमेल सिंह का शव भारत भेजने की कोई व्यवस्था नहीं की। पाक जेल अफसरों की कूरता को उजागर करने वाले लाहौर के वकील तहसीन खान के मुताबिक पाकिस्तान के अफसर चाहते हैं कि शव इतनी देर में भारत भेजा जाए जिससे चोट और खून के निशान मिट जाएं। भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने भी चमेल सिंह की मौत की पुष्टि की है। लाहौर में अल्पसंख्यकों के हक के लिए जीजस रेस्क्यू नाम की एनजीओ चलाने वाले वकील तहसीन खान ने बताया कि 15 जनवरी को वह भी लाहौर की कोट लखपत सेंट्रल जेल में बन्द थे। उस दिन सुबह आठ बजे गलती से सीमा पार कर जाने से पांच साल की सजा भुगत रहे जम्मू के अखनूर सेक्टर में परगवाल निवासी चमेल सिंह पुत्र रसाल सिंह बैरक के बाहर लगे नल पर गंदे कपड़े धोने लगा। तभी हेड वार्डन मो. नवाज और मो. सदीक ने उसे गंदगी न फैलाने को कहा। इस पर चमेल (उम्र करीब 45) ने कहा कि उसे कपड़े धोने की जगह बता दें। उस समय वहां जेल का असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट भी आ गया। उसके सामने ही दोनों वार्डन ने चमेल के सिर और आंख पर वार करना शुरू कर दिया। अचानक चमेल की मार से आंख और माथे से खून निकलता देख जेल के असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट वहां से चले गए। वकील ने बताया कि वह और दूसरे कैदी जब चमेल के पास पहुंचे तो उसकी मौत हो चुकी थी। पाकिस्तान की जैसी आदत है उसने चमेल की मौत की एक और ही कहानी सुना दी। कोट लखपत जेल के अतिरिक्त अधीक्षक इश्तियाक अहमद का कहना है कि 15 जनवरी को नाश्ता करते वक्त चमेल के सीने में दर्द हुआ था। उन्हें फौरन एक सरकारी अस्पताल ले जाया गया। हम उन्हें जिन्ना अस्पताल में ले गए लेकिन वहां डाक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। डाक्टरों के मुताबिक चमेल को दिल का दौरा पड़ा था। बहरहाल तमाम आरोपों और मीडिया रिपोर्ट की वजह से जेल अधिकारियों ने न्यायिक जांच का आदेश दिया है। ज्यूडिशल मैजिस्ट्रेट अफजल अब्बास ने उन 14 भारतीय कैदियों के बयान दर्ज किए जो चमेल की बैरक में  ही  बन्द थे। जिन्ना अस्पताल में फोरेंसिक डिपार्टमेंट के सैयद मुद्दसर हुसैन ने कहा कि चमेल की लाश का अभी पोस्टमार्टम नहीं हुआ है। कोट लखपत जेल के रिकार्ड के मुताबिक चमेल को 2010 में सियालकोट बार्डर के पास पकड़ा गया था। उन्हें पिछले साल जून में ही लाहौर के कोट लखपत जेल में शिफ्ट किया गया था। सबसे दुखद पहलू यह है कि चमेल सिंह की 2015 में सजा पूरी होने वाली थी। कोट लखपत जेल में इस समय 33 भारतीय कैदी बन्द हैं। एक बार फिर पाकिस्तान बेनकाब हुआ है। न उन्हें भारतीय सैनिकों के साथ मानवीय व्यवहार करना आता है और न ही उनकी जेलों में बन्द भारतीयों की सुरक्षा की कोई फिक्र है।





Saturday, 26 January 2013

चोरों ने कमाल कर दिया, पंटून पुल के टुकड़े ही उड़ा लिए


 Published on 26 January, 2013
 अनिल नरेन्द्र
चोरों ने तो दिल्ली में कमाल ही कर दिया। गीता कालोनी फ्लाइओवर बनने के बाद लोहे के पंटून पुल का प्रयोग बंद हो गया था। दिल्ली सरकार ने इसे उत्तर प्रदेश को देने का मन बनाया था लेकिन इसकी बिक्री नहीं हुई थी। चोरों ने इस लोहे के पुल को ही उड़ा लिया है। दिल्ली में ऐसे 42 बंकर थे और इनकी लम्बाई करीब 20 फुट है। इनमें पक्का लोहा इस्तेमाल किया गया है। जांच की जा रही है कि मामले में रिपोर्ट दर्ज कराने में भी देरी की है। यह माना जा रहा है कि जिस तरीके से काम हुआ उससे लगता है कि इस मामले में विभाग के अधिकारियों की भी मिलीभगत है। यमुना नदी का पंटून पुल चुराने वालों को अन्दर की खबर रही होगी। पुल चुराने के लिए मुख्य अभियंता कार्यालय के फर्जी कागजात का प्रयोग किया गया था। इन कागजातों में किसी भी सरकारी फाइल के लिए जरूरी सभी प्रक्रिया को पूरा किया गया था, इसमें फाइल को भेजने के लिए प्रयोग किए जाने वाले नम्बर का प्रयोग किया गया है। इस प्रकरण में अब शक की सुई लोक निर्माण विभाग (पीडब्ल्यूडी) की तरफ है। पंटून पुल मामले की जांच में जुटी पुलिस का कहना है कि यह फर्जीवाड़े का खेल किसी कबाड़ी का नहीं है बल्कि चार से पांच लोगों की मिलीभगत से इसे अंजाम दिया गया है। कबाड़ी से मिली जानकारी के आधार पर पुलिस उससे जुड़े लोगों की तलाश में दिल्ली-एनसीआर में छापेमारी कर रही है। गिरफ्तार आरोपी प्रवीण ने यह भी खुलासा किया है कि उसे एक शख्स ने कागजात का हवाला देते हुए यह कहा था कि उसने यह खरीद लिया है। इसके बाद उसने प्रवीण से सौदा किया था। प्रवीण से मिली जानकारी के आधार पर पुलिस उस शख्स की तलाश कर रही है। सवाल यह भी उठता है कि इस चोरी में स्थानीय पुलिसकर्मियों की क्या भूमिका है? क्या पुल की काली कमाई में माल की बंदरबांट का हिस्सा स्थानीय पुलिस को भी जाना था? सूत्रों के मुताबिक पंटून पुल को ठिकाने लगाने का काम पिछले एक माह से चल रहा था। बताया जा रहा है कि जिस दिन कबाड़ी की जेसीबी मशीनें और कटर यमुना किनारे पहुंचे थे उसी दिन गीता कालोनी पुलिस को इसकी भनक लग गई थी। थाने के बीट वाले और पेट्रोलिंग स्टाफ ने इन मशीनों के मालिक यानी कबाड़ी से मिलाने की बात वहीं मौजूदा मजदूरों और उसके ठेकेदार से की थी और इस दिन काम बंद भी करवा दिया था। कहा जा रहा है कि अगले दिन बीट वालों ने कबाड़ी प्रवीण से यमुना किनारे मुलाकात की और कबाड़ी ने पुल खरीदे जाने के फर्जी कागजात बीट वालों को दिखाने के बाद पुलिस वालों को पटा लिया। मतलब साफ है। इसके बाद गीता कालोनी थाने के बीट वालों ने काम जारी रखने की इजाजत दी। पुलिस और कबाड़ी के इस खेल में थाना पुलिस के अलावा पीसीआर और पेट्रोलिंग स्टाफ भी शामिल था। यही कारण है कि पुलिस ने पुल काटने के लिए पीडब्ल्यूडी के फर्जी वर्प आर्डर के बारे में किसी तरह की छानबीन नहीं की। जैसा मैंने कहा चोरों ने तो कमाल कर दिया। ऐसी चोरी की शायद ही किसी ने कल्पना की हो।

जस्टिस वर्मा कमेटी की सिफारिशों को लागू करना ही दामिनी को सच्ची श्रद्धांजलि होगी


 Published on 26 January, 2013
 अनिल नरेन्द्र
पूरे देश को नींद से जगाने वाली, उद्वेलित आंदोलित करने वाली 16 दिसम्बर की उस गैंगरेप घटना को भविष्य में कैसे रोका जाए, वर्तमान कानूनों में क्या-क्या कमियां हैं और इनसे जुड़े मुद्दों पर सुझाव देने के लिए जस्टिस वर्मा कमेटी ने अपनी रिपोर्ट दे दी है। जस्टिस वर्मा के आगे टास्क यह था कि वह बलात्कार जैसे मामलों में कानूनी सुधार पर नागरिकों और तमाम सरकारी-गैर सरकारी संस्थाओं-विभागों के सुझावों पर अपनी सिफारिश सरकार को सौंपे। कमेटी ने 630 पन्नों की रिपोर्ट दी है और कमेटी के पास 80 हजार से ज्यादा सुझाव आए। कमेटी को यह काम दो महीने में करना था। आमतौर पर ऐसे कार्यों के निष्पादन में समय सीमा बढ़ाने की भी परम्परा है पर जस्टिस वर्मा ने यह काम महज 29 दिनों में कर दिखाया। वह इसके लिए बधाई के पात्र हैं। जस्टिस वर्मा समिति ने महिलाओं के प्रति अपराध रोकने के लिए अपनी जो तमाम सिफारिशें दी हैं वे केवल यही नहीं बतातीं कि कितना कुछ करने की जरूरत है बल्कि यह जाहिर करती हैं कि कितना कुछ दशकों से लम्बित है। यह स्पष्ट है कि इस समिति की सिफारिशों को पूरा करने के लिए पुलिस, कानून, चुनाव और न्यायिक प्रक्रिया में सुधार करना होगा। यही नहीं अपराध के राजनीतिकरण से लेकर पुलिस और न्यायिक सुधारों तक जिस तरह कमेटी ने महिला सुरक्षा के लिए जरूरी दरकारों की एक बड़ी तस्वीर खींची है, वह मौजूदा स्थिति का एक सम्यक मूल्यांकन है। मसलन कमेटी को लगता है कि कानून बनाने वाले संसद और विधानसभा के सदस्यों पर किसी तरह का दाग न हो। इसके लिए कमेटी चुनाव सुधार की भी मांग करती है। मोटे तौर पर कमेटी ने जवाबदेह चारों तंत्र के लिए सुझाव दिए हैं। पुलिस ः नेताओं के हाथों का खिलौना न बने। दुष्कर्म के केस दर्ज करने में नाकामी या देरी करने वालों पर कार्रवाई हो। कानून का पालन करने वाली एजेंसियां नेताओं के हाथों का खिलौना न बनें। पुलिस के ढांचे और काम करने के तरीके पर सुधार हो। सरकार ः जल्द से जल्द कानून में संशोधन करे। बच्चों की तस्करी के मामले में डाटा बेस बनाए। जन प्रतिनिधित्व कानून में  बदलाव किया जाए। सशस्त्र सेना विशेष अधिकार अधिनियम की समीक्षा हो। अदालत ः तेज सुनवाई और जल्द फैसले के लिए जजों की संख्या बढ़े। लेकिन सुनिश्चित किया जाए कि गुणवत्ता से समझौता न हो। महिला अपराधों के लिए अलग से फास्ट ट्रैक कोर्ट बने। जन प्रतिनिधि ः चुनाव लड़ने से पहले हलफनामे की जांच करे। हाई कोर्ट के रजिस्ट्रार के प्रमाण पत्र के बाद ही नेताओं को चुनाव लड़ने दिया जाए। कमेटी के सुझावों पर संसद में  बहस हो, सुझावों को लागू कराया जाए। 16 दिसम्बर को सामूहिक घटना के बाद केंद्रीय गृह सचिव आरके सिंह द्वारा दिल्ली पुलिस आयुक्त नीरज कुमार की तारीफ करना भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश जेएस वर्मा को रास नहीं आया। उन्होंने कहा कि जब माफी मांगे जाने की उम्मीद थी उस समय सीपी की पीठ  थपथपाना सुनकर काफी हैरत हुई। दामिनी की कुर्बानी व्यर्थ नहीं जाएगी, यह संकल्प हमारी युवा पीढ़ी ने लिया है और वह आज तक उस पर डटे हुए हैं। वर्मा कमेटी ने भी माना है कि दुष्कर्म के कानून में सुधार का श्रेय युवाओं को जाता है। युवाओं की सजगता के कारण ही सरकार को पहल करनी पड़ी। युवा देश की उम्मीद हैं, उन्हेंने पुरानी पीढ़ी को सिखाया है। युवाओं को उकसाने की कोशिश हुई लेकिन फिर भी वह शांत रहे। 16 दिसम्बर के इस अत्यंत बर्बर कांड के बाद देशभर में उपजे रोष के साथ ही आरोपियों को फांसी की सजा की मांग करने वालों को वर्मा कमेटी द्वारा इसका विरोध करने से निराशा हुई होगी। कमेटी ने आरोपी को मौत की सजा की सिफारिश नहीं की है। इसी के साथ यह सवाल भी चर्चा में आ गया है कि ऐसी सिफारिश क्यों नहीं की गई? कुछ लोग दुराचारियों के रासायनिक बंध्याकरण के पक्ष में थे। वर्मा कमेटी ने बलात्कार के लिए 20 साल तक के कारावास की सिफारिश की है। कमेटी का सुझाव है कि फांसी लगने से तो खेल खत्म हो जाता है अगर गैंगरेप के लिए ताउम्र कारावास की सजा हो तो वह बेहतर विकल्प होगा। कानूनी और वुमेन आर्गेनाइजेशंस से जुड़े जानकारों का भी मानना है कि इसके पीछे चार बड़े कारण लगते हैं। इसी के साथ जानकार यह भी मानते हैं कि सारी दुनिया में फांसी की सजा पर बहस छिड़ी हुई है। कई देशों ने तो इस पर पाबंदी भी लगा दी है। जो चार बड़ी दिक्कतें सामने आती हैं वे हैं ः एक तो यह कि फांसी की सजा डर तो पैदा करती है। लेकिन वहशी लोगों को रेप के बाद महिला का मर्डर करने के लिए भी उकसा सकती है। सबूत मिटाने के लिए मर्डर कर सकते हैं। दूसरी गौरतलब चीज यह है कि फांसी का प्रावधान अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ती हलचल के विपरीत है। एक और बड़ी वजह है मिसयूज का डर। रेप के गलत आरोप लगाकर कानून का मिसयूज करने की कोशिश हो सकती है। नाबालिग लड़कियों के कथित प्रेम विवाह के मामलों में अपहरण और रेप का केस दर्ज होता है। ऐसे मामलों में भी इतनी बड़ी सजा दूसरे सवाल भी पैदा कर सकती है, रेप-कम-मर्डर के रेयरेस्ट ऑफ रेयर रेप मामलों में तो मौत की सजा अब भी दी जा सकती है। एक बड़ा मुद्दा यह भी है कि इतनी बड़ी संख्या में मामले राष्ट्रपति के पास दया याचिका के रूप में जाएंगे, तो कौन उन्हें देखे-सम्भालेगा? कौन कितनी जल्द फैसला कर पाएगा? लिहाजा अब सरकार को वे सभी कदम उठाने होंगे जिनसे महानगरों के साथ दूरदराज के इलाकों की महिलाओं की सुरक्षा भी सुनिश्चित की जा सके। इसके लिए सरकार को सभी दलों के साथ मिलकर आम सहमति बनानी चाहिए ताकि संसद में कानून में जरूरी संशोधन किए जा सकें। जस्टिस वर्मा कमेटी की सिफारिशों को लागू करना ही दामिनी को असल श्रद्धांजलि होगी।

Friday, 25 January 2013

आखिरकार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को आडवाणी के सामने झुकना ही पड़ा


 Published on 25 January, 2013
 अनिल नरेन्द्र
भारतीय जनता पार्टी का अध्यक्ष कौन होगा अंतत फैसला हो ही गया। जो फैसला हुआ उसकी तो किसी को उम्मीद ही नहीं थी। नितिन गडकरी को दूसरा कार्यकाल मिलना तय था। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने तो एक तरह से अनौपचारिक रूप से घोषणा भी कर दी थी पर संघ और गडकरी कैम्प ने भाजपा के सर्वोच्च नेता लाल कृष्ण आडवाणी को अंडर एस्टिमेट किया। आडवाणी जी ने ऐसा चक्कर चलाया कि संघ और गडकरी दोनों चक्कर खा गए। मंगलवार को रात तक नितिन गडकरी को दूसरा कार्यकाल मिलना तय था पर पहले महेश जेठमलानी ने घोषणा कर दी कि वह गडकरी को निर्विरोध अध्यक्ष नहीं बनने देंगे। शाम होते-होते यह खबर आ गई कि भाजपा के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा ने नामांकन पत्र मंगाया है। इसका मतलब यह था कि वह भी चुनाव लड़ने के मूड में हैं। गडकरी कैम्प के नक्शे तो मंगलवार रात को ही ढीले पड़ गए थे। रही-सही कसर बुधवार सुबह तब पूरी हो गई जब खबर आई कि गडकरी की कम्पनी पूर्ति में मुंबई-पुणे के 9 ठिकानों पर आयकर विभाग ने छापे मारे हैं। इन छापों ने संघ को  भी मजबूर कर दिया और नए अध्यक्ष की तलाश शुरू हुई। श्री  लाल कृष्ण आडवाणी पहले दिन से ही गडकरी को दूसरा कार्यकाल देने के खिलाफ थे और वह अंत तक अपने स्टैंड पर डटे रहे। कई नाम चले वेंकैया नायडू, डॉ. मुरली मनोहर जोशी, सुषमा स्वराज पर किसी पर आम सहमति नहीं बन सकी और रात आठ बजे तय हुआ कि गडकरी इस्तीफा दे दें। नौ बजे श्री राजनाथ सिंह  पर सहमति बनी और सवा नौ बजे गडकरी ने इस्तीफे की घोषणा कर दी और इस तरह राजनाथ सिंह भाजपा के नए अध्यक्ष चुन  लिए गए। खास बात इस घटनाक्रम में यह रही कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को लाल कृष्ण आडवाणी के सामने अंतत झुकना ही पड़ा। अंतिम समय में नितिन गडकरी की दोबारा ताजपोशी रुकवा कर आडवाणी ने साबित कर दिया है कि वे आज भी भाजपा के सबसे ताकतवर नेता हैं। दरअसल पूर्ति समूह पर तमाम आरोप लगने के बाद भी संघ अपने चहेते गडकरी की दोबारा तोजपोशी के लिए अड़ा था, लेकिन आडवाणी की दलील थी कि गडकरी पर संदेह की अंगुली उठ जाने के बाद उन्हें दोबारा पार्टी की कमान नहीं सौंपी जा सकती। वह भी तब जब भाजपा यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार के मामले उठाती रही है। संघ गडकरी की खातिर किसी भी हद तक जाने को तैयार था। मुझे याद है कि जब अरविन्द केजरीवाल ने पहली बार पूर्ति समूह में आर्थिक घोटाले का मामला उठाया था तो संघ ने इसे काउंटर करने के लिए गुरुमूर्ति से जांच करवाकर गडकरी को क्लीन चिट दिलवा दी थी। मगर आडवाणी टस से मस नहीं हुए और अंतत आडवाणी की ही विजय हुई। अपने कार्यकाल में नितिन गडकरी कोई भी ऐसी छाप नहीं छोड़ सके जिससे कहा जाए कि संघ ने इनकी नियुक्ति सही की थी। इनको राजनीतिक अनुभव भी राष्ट्रीय स्तर का नहीं था। महाराष्ट्र सरकार में यह मंत्री थे पर इससे आगे नहीं बढ़े। हां, एक उद्योगपति थे और पैसा उगाना जानते थे और शायद यही संघ चाहता भी था। नितिन गडकरी के कार्यकाल में कर्नाटक में पार्टी टूटी। येदियुरप्पा ने मिसहैंडलिंग की वजह से पार्टी छोड़ी और राजनाथ सिंह के लिए पहली चुनौती बनकर उभरा है कर्नाटक में भाजपा सरकार को बचाना। झारखंड में पैसों के बल पर जोड़तोड़ कर गडकरी ने सरकार तो बनवा दी पर उसका क्या हश्र हुआ सभी के सामने है। नितिन गडकरी के नेतृत्व में भाजपा ने हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में अपनी सरकारें गंवाईं। इतना अनुकूल माहौल होने के  बावजूद गडकरी जनता में यह विश्वास पैदा नहीं कर सके कि भाजपा कांग्रेस का विकल्प बन सकती है। राजनाथ सिंह ने कांटों का ताज पहन लिया है। चार साल तक भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष की कमान और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके राजनाथ सिंह की पहचान जमीन से जुड़े हुए एक कड़े तेवर वाले, ईमानदार छवि वाले राजनेता के रूप में है। राजनीति में उन्हें हिन्दुत्ववादी विचारधारा के प्रति समर्पित नेता के तौर पर देखा जाता है। उत्तर प्रदेश के चंदौली जिले के चकिया तहसील में एक किसान परिवार में जन्मे राजनाथ सिंह ने अपना कैरियर विज्ञान के टीचर के रूप में शुरू किया। राजनाथ सिंह का राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से पुराना जुड़ाव रहा है। वे 1975 में महज 24 साल की उम्र में जनसंघ के जिला अध्यक्ष बने। बाद में जनसंघ के भाजपा में परिवर्तित होने पर पार्टी के युवा नेता के रूप में उनका कद तेजी से बढ़ा। 2005 से 2009 तक वे भाजपा  के राष्ट्रीय अध्यक्ष का कार्यकाल सम्भाल चुके हैं। हालांकि उनकी अगुवाई में 2006 में पांच राज्यों में हुए चुनावों में पार्टी ने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया था पर 2007 में भाजपा ने उत्तराखंड और पंजाब में अच्छा प्रदर्शन किया। साथ ही 2008 में उनके अध्यक्ष के कार्यकाल में ही भाजपा ने दक्षिण भारत के राज्य कर्नाटक में पहली बार सरकार बनाई। राजनाथ सिंह के कार्यकाल में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में भी भाजपा की शानदार वापसी हुई। राजनाथ सिंह की ताजपोशी होने से राष्ट्रीय राजनीति में उत्तर प्रदेश की अहमियत फिर एक बार साफ हो गई है। लोकसभा चुनाव के ऐन पहले यूपी के इस वरिष्ठ, अनुभवी नेता को पार्टी की कमान सौंपे जाने से सूबे के भाजपाई फूले नहीं समा रहे हैं। राजनीतिक नब्ज की थाह रखने वालों का तो यहां तक अनुमान है कि अगर चुनावों में भाजपा का प्रदर्शन अच्छा रहता है तो राजनाथ सिंह भी प्रधानमंत्री पद के एक दावेदार बन सकते हैं। यह भी लग रहा है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश एक बार फिर केंद्र बनेगा। एक ओर भाजपा और राजनाथ सिंह की सरपरस्ती में एनडीए होगा और दूसरी ओर कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी की अगुवाई में यूपीए। भाजपा की काफी दिनों से यह कोशिश चल रही थी कि लोकसभा चुनाव का मुकाबला यूपी में सपा-बसपा के ध्रुवीकरण को तोड़कर राष्ट्रीय पार्टियों के बीच ही हो। माना जा रहा है कि राजनाथ सिंह और कल्याण सिंह की वापसी के साथ यूपी में भाजपा को नया जीवन मिलेगा। पार्टी को उम्मीद है कि पार्टी में निराशा का भाव खत्म होगा और कार्यकर्ता पूरे उत्साह से लोकसभा चुनाव की तैयारियों में जुटेंगे पर इससे पहले राजनाथ सिंह को कर्नाटक और लोकसभा चुनाव से पहले 9 राज्यों के विधानसभा चुनावों से निपटना होगा।

Thursday, 24 January 2013

जेबीटी शिक्षक भर्ती घोटाले में शिकायतकर्ता खुद भी फंस गया


 Published on 24 January, 2013
अनिल नरेन्द्र
एक अहम घटनाकम में मंगलवार को विशेष सीबीआई न्यायाधीश विनोद कुमार ने हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम पकाश चौटाला और उनके बेटे अजय चौटाला को जूनियर बेसिक ट्रेड (जेबीटी) शिक्षक भर्ती के 9 साल पुराने मामले में 10-10 साल के कारावास की सजा सुनाई। इससे पहले श्री ओम पकाश चौटाला ने अपने आपको अदालत को शारीरिक तौर पर 80 फीसदी विकलांग बताया। एक याचिका में श्री चौटाला ने कहा कि मेरी उम्र 78 की हो चुकी है और मेरा 80 फीसदी शरीर अयोग्य हो चुका है। मेरी स्थिति काफी खराब है और मैं बिना मदद के चल-फिर भी नहीं सकता। चौटाला के वकील आनंद राठी ने सोमवार को सीबीआई के विशेष न्यायाधीश विनोद कुमार के समक्ष यह याचिका पस्तुत की। चौटाला का कहना था कि रोहताश नामक उनका एक सहायक इन सब कामों में उनकी मदद करता था और अदालत चाहे तो रोहताश को फिर से उनकी सहायता में तैनात किया जा सकता है। अदालत ने इस दलील का भी संज्ञान लिया कि वह बिना किसी सहायता के अपनी दिनचर्या के आवश्यक कार्य भी नहीं रह पाते हैं। न्यायाधीश ने तिहाड़ के जेल अधीक्षक को जेल मैन्युअल के मुताबिक इस बारे में निर्णय लेने को कहा है। यह सारा मामला आखिर है क्या? जेबीटी शिक्षक भर्ती घोटाले को उजागर करने में अहम भूमिका तत्कालीन पाथमिक शिक्षा निदेशक संजीव कुमार ने निभाई थी। संजीव कुमार ने ही इस मामले में सुपीम कोर्ट में एक अर्जी दायर की थी। सुपीम कोर्ट के आदेश पर सीबीआई ने पारम्भिक जांच 2003 में शुरू की। जनवरी 2004 में सीबीआई ने ओम पकाश चौटाला, उनके पुत्र अजय चौटाला, शिकायतकर्ता, संजीव कुमार सहित कुल 62 लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किया था। सबसे ताज्जुब तो इस बात का है कि मामले को उजागर करने में अहम भूमिका निभाने वाले संजीव कुमार को भी सीबीआई ने इस मामले में आरोपी बनाते हुए उनके खिलाफ भी मामला दर्ज किया। सीबीआई के अनुसार संजीव कुमार भी इस घोटाले में बराबर शामिल रहे थे। सीबीआई के अनुसार अन्य लोगों से विवाद होने पर ही उन्होंने घोटाले के खिलाफ आवाज उठाई। कोर्ट ने अपने फैसले में संजीव कुमार को भी दोषी ठहराया और उन्हें भी 10 साल की सजा सुनाई है। हालांकि कोर्ट ने संजीव कुमार को सजा सुनाने में थोड़ी परेशानी महसूस की। कानून व्हिसल ब्लोअर (घोटाला उजागर करने वाला) का स्वागत करता है। अगर व्हिसल ब्लोअर निर्दोष है, केवल वह परिस्थितियों का शिकार हो तो उसे अभियोजन पक्ष का गवाह बनाया जाना चाहिए। यह टिप्पणी जज विनोद कुमार ने सजा सुनाते समय की। अदालत ने कहा कि संजीव मामले में व्हिसल ब्लोअर है। ऐसे में उन्हें सजा सुनाने में परेशानी महसूस कर रहा हूं, क्योंकि इससे गलत संदेश जा सकता है कि कानून व्हिसल ब्लोअर को पोत्साहित नहीं करता है। लेकिन मौजूदा समय में ऐसा कोई कानून नहीं है। अदालत ने कहा कि संजीव कुमार अगर उच्चतम न्यायालय नहीं जाते तो यह मामला पकाश में नहीं आता। इनेलो ने जेबीटी टीचरी भर्ती मामले में सीबीआई अदालत के फैसले के खिलाफ हाईकोर्ट में अपील करने का निर्णय लिया है। ऐलनाबाद से इनेलो विधायक अभय सिंह चौटाला ने कहा कि कॉपी मिलते ही इसे ऊपरी अदालत में चुनौती दी जाएगी। उन्होंने कहा कि देश के इतिहास में यह पहली बार होगा कि धारा 467 के अंतर्गत किसी को दस साल की सजा सुनाई गई हो। मुख्य आरोपियों को चार साल और ओम पकाश चौटाला को धारा 120 वी साजिश में शामिल बताया गया, उन्हें दस साल की सजा सुना दी गई है। उन्होंने कहा कि पूरे मामले में कहीं यह उल्लेख नहीं किया गया कि वे साजिश में कैसे शामिल हैं। भर्ती में भ्रष्टाचार का आरोप लगाया जा रहा है जबकि नौकरी पर लगाए गए 3206 शिक्षकों में से एक भी ऐसा नहीं जिसने यह कहा हो कि उसने नौकरी में कोई पैसा दिया हो। वे निराश नहीं हैं। अगर लाभ पाने वाले टीचरों में से एक ने यह नहीं कहा कि उसने भर्ती के लिए पैसा दिया तो भ्रष्टाचार हुआ है यह साबित नहीं होता। चूंकि मामला अदालत में है इसलिए टिप्पणी नहीं हो सकती। हाईकोर्ट में शायद और खुलासा हो कि भ्रष्टाचार व साजिश का मामला कैसे बनता है? यह मामला सीधा-सीधा संजीव कुमार द्वारा सुपीम कोर्ट जाने की वजह से बना। इसमें कांग्रेस की हरियाणा सरकार की कोई भूमिका पतीत तो नहीं होती।

क्या कल्याण सिंह अपना पुराना करिश्मा दोहरा पाएंगे?


 Published on 24 January, 2013
 अनिल नरेन्द्र
उत्तर पदेश के पूर्व मुख्यमंत्री व दिग्गज माने जाने वाले नेता श्री कल्याण सिंह एक बार फिर भारतीय जनता पार्टी की शरण में आ गए हैं। सोमवार को जनकांति पार्टी (राष्ट्रवादी) का औपचारिक रूप से विलय की घोषणा लखनऊ की अटल शंखनाद रैली में कल्याण के बेटे राजवीर सिंह ने की। हालांकि दल बदल कानून के कारण कल्याण सिंह खुद अभी भाजपा की सदस्यता नहीं ले सके हैं। रैली के बाद पत्रकारों से बातचीत में कल्याण सिंह ने कहा कि मैं अभी भाजपा की सदस्यता नहीं ले रहा हूं। मुझे ऐसा करने के लिए पहले लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा देना होगा। इससे उपचुनाव की स्थिति बनेगी जो गैर जरूरी है क्योंकि 2014 में आम चुनाव हैं। भाजपा के साथ आए कल्याण सिंह ने जय श्रीराम के साथ जय हनुमान का भी नारा लगाया, भारत माता की जय का नारा लगाते हुए वे बेहद भावुक हो गए और कहा कि मेरी अर्थी भी भाजपा के झंडे में लिपट कर जाए। वरिष्ठ भाजपा नेता कल्याण सिंह पर उत्तर पदेश में पार्टी के कल्याण की उम्मीदें लगाए हुए हैं। कल्याण सिंह की दूसरी बार भाजपा में वापसी के पीछे कुछ हद तक केन्द्र में भाजपा के संतुलन का समीकरण भी काम कर रहा है। एक तरह से यह भाजपा में पधानमंत्री पद के दावेदारों की पेशबंदी है। जिन्हें कल्याण सिंह के कंधों की दरकार है। पार्टी सूत्रों का कहना है कि कल्याण सिंह के आने से भाजपा की उत्तर पदेश में लोकसभा सीटें बढ़ेंगी। केन्द्र में सरकार बनाने का मौका मिलने पर उत्तर पदेश के भाजपा नेता पधानमंत्री पद के लिए दावा मजबूती से पेश कर सकेंगे। दूसरी ओर कल्याण सिंह का उद्देश्य अपने बेटे राजवीर सिंह को राजनीति में स्थापित करना भी है। सोमवार को राजवीर ने मंच से भाजपा रैली को सम्बोधित भी किया। 2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तर पदेश का विशेष महत्व होगा। 2004 के चुनाव में उत्तर पदेश की वजह से ही भाजपा पिटी। भाजपा के एक राष्ट्रीय नेता का कहना है कि गुजरात में जितनी लोकसभा सीटें हैं भाजपा उत्तर पदेश में उससे ज्यादा सीटें जीतने की स्थिति में अभी भी है। कल्याण सिंह के आने से इसमें इजाफा होगा। रैली में राजनाथ सिंह ने कहा कि पार्टी ने कम से कम 50 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा है। अगर हम उत्तर पदेश में 50 से अधिक सीटें जीत गए तो केन्द्र में राजग की सरकार बनने से कोई नहीं रोक सकता। जवाब में कल्याण सिंह ने कहा कि हम तो पहले ही साठ सीटें जीत चुके हैं। उनका इशारा 1998 की ओर था। क्या भाजपा कल्याण सिंह को वापस ला कर अयोध्या मुद्दे को फिर से उभारना चाहती है? अयोध्या विवाद के इतिहास के अकेले नेता कल्याण सिंह हैं जिन्हें सुपीम कोर्ट ने विवादित ढांचा गिरने के बाद शपथ पत्र पर अमल न कर पाने का दोषी ठहराया था और उन्हें सजा भी दी थी। सवाल यह है कि अपनी दूसरी पारी में क्या कल्याण सिंह अपना पुराना करिश्मा दोहरा पाएंगे? वह दो बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं। 10 बार यूपी के विधायक रह चुके हैं। भाजपा से नाराज होकर कल्याण सिंह ने 1999 में अपने 77वें जन्मदिन पर राष्ट्रीय कांति पार्टी बनाई। फिर कुछ समय तक वह मुलायम सिंह यादव से भी जुड़े। 2002 का विधानसभा चुनाव भाजपा और कल्याण ने अलग-अलग लड़ा था। यही वह चुनाव था जहां से भाजपा का यूपी में ग्राफ गिरना शुरू हुआ था। सीटों की संख्या 177 से घटकर 88 हो गई। पदेश की 403 सीटों में से 72 पर कल्याण सिंह की जनकांति पार्टी ने दावेदारी ठोंकी थी। इन्हीं सीटों पर भाजपा को सबसे अधिक नुकसान हुआ था।




Wednesday, 23 January 2013

फिर लौटी टीम इंडिया अपने पुराने रंग में ः नम्बर वन रैंकिंग पर पहुंची


 Published on 23 January, 2013
 अनिल नरेन्द्र
टीम इंडिया ने रांची में इंग्लैंड को तीसरे वन डे मैच में सात विकेट से हराकर आईसीसी वन डे रैंकिंग में एक बार फिर नम्बर वन की पोजीशन हासिल कर ली है। आईसीसी रैंकिंग हर श्रृंखला के बाद अपडेट की जाती है, लेकिन श्रृंखला के बीच में फिलहाल स्थानों में परिवर्तन हुआ है जिसमें भारतीय टीम 2009 के बाद पहले स्थान पर पहुंचने में सफल रही। सितम्बर 2009 में श्रीलंका में त्रिकोणीय श्रृंखला के दौरान करीब एक दिन के लिए टीम इंडिया वन डे रैंकिंग में नम्बर वन बनी थी। जहां हम टीम इंडिया को बधाई देना चाहते हैं वहीं कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी के शानदार व्यक्तिगत परफारमेंस व टीम की कप्तानी की सराहना करते हैं। अकेले अपने कंधों पर दो मैचों में जीत का सेहरा उन्हीं के सिर पर बंधता है। यह ठीक है कि मेहनत पूरी टीम करती है और क्रिकेट भी टीम गेम है पर अगर कप्तान फ्रंट से लीड करे तो फील्डिंग, बैटिंग व बालिंग सब में सुधार आ जाता है। बुधवार को इंग्लैंड व टीम इंडिया का चौथा वन डे मैच है। इस मैच से श्रृंखला डिसाइड होगी। जिस ढंग से टीम इंडिया का जोश और आत्मविश्वास है उसमें इंग्लैंड द्वारा टीम इंडिया को हराना आसान नहीं लगता पर 20-20 गेम ऐसी है कि जो भी टीम उस दिन बेहतर प्रदर्शन करेगी वही सिकंदर होगी। टीम इंडिया का रैंकिंग में अव्वल नम्बर पर पहुंचना इसलिए भी बेहद खास है क्योंकि कई शीर्ष खिलाड़ियों ने संन्यास ले लिया है और इस टीम का नए सिरे से पुनर्गठन हुआ है। पाकिस्तान के हाथों मिली शिकस्त और इंग्लैंड के खिलाफ जारी श्रृंखला की शुरुआती हार होने के बाद यह आशंका जरूर पैदा हो गई थी कि अंग्रेजों के सामने भी टीम इंडिया उसी तरह से घुटने टेक देगी जैसा पाकिस्तान के साथ हुआ। लेकिन पहले कोच्चि और फिर रांची में टीम इंडिया ने अंग्रेजों को लगातार बड़े अन्तर से पराजित कर यह साबित कर दिया कि वह बाउंस बैक कर सकती है। नए युवा खिलाड़ियों ने भी समा बांध दिया है। भुवनेश कुमार की जितनी तारीफ की जाए कम है। उसे देखते-देखते इशांत शर्मा और अशोक डिंडा ने भी अपनी गेंदबाजी सुधारी है। सबसे बड़ा अन्तर युवा खिलाड़ियों के टीम में शामिल होने से फील्डिंग पर पड़ा है। वन डे मैच में अगर आप अपनी बेहतरीन फील्डिंग से 20-25 रन बचा लेते हैं तो इससे हार-जीत में कई बार फर्प पड़ जाता है। यह भी संतोष का विषय है कि युवराज सिंह अपने पुराने रंग में लौटते दिख रहे हैं। अब उम्मीद तो यही है कि टीम इंडिया इंग्लैंड के खिलाफ शेष बचे दो मैचों में ही अपना शानदार प्रदर्शन जारी रखेगी और साबित कर देगी कि वह वाकई ही नम्बर वन वन डे टीम है। टीम इंडिया, महेन्द्र सिंह धोनी, चयनकर्ताओं को बधाई।

आतंक न तो रंग देखता है, न मजहब, समाज को इस तरह बांटने का प्रयास निंदनीय है


 Published on 23 January, 2013
 अनिल नरेन्द्र
आमतौर पर गृहमंत्री का पद सम्भालने के बाद श्री सुशील कुमार शिंदे ने संतुलित बयान दिए हैं और विवादास्पद बयानों से बचे रहे पर अब उन्होंने सारी कसर पूरी कर दी है। कांग्रेस के चिन्तन शिविर के आखिरी दिन गृहमंत्री शिंदे ने कांग्रेस कार्य समिति की खुली बैठक में कह दिया कि भाजपा और संघ के शिविरों में हिन्दू आतंकवाद का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। समझौता एक्सप्रेस, मक्का मस्जिद और मालेगांव के धमाकों के पीछे संघ का हाथ होने के सुबूत मिले हैं। शिंदे के इस बयान ने राजनीतिक माहौल ही बदल दिया है और सियासत में एक नया विवाद पैदा कर दिया है। गृहमंत्री का बयान इसलिए भी गम्भीर है क्योंकि यह भारत के गृहमंत्री ने दिया है। शिंदे बिना कांग्रेस हाई कमान की मर्जी से ऐसा बयान दे ही नहीं सकते थे। पिछले कुछ सालों से कांग्रेस की वोट बैंक की राजनीति उसकी रणनीति का हिस्सा बन गया है। अल्पसंख्यक वोट बैंक को किसी भी कीमत पर अपनी ओर रिझाने के लिए कांग्रेस किसी भी हद तक जा रही है। उसे इस बात की भी परवाह नहीं कि उसकी कथनी का देश के दुश्मन अनुचित लाभ उठाएंगे। हुआ भी यही। दुनिया के मोस्ट वांटेड आतंकवादी लिस्ट में अव्वल नम्बर के लश्कर-ए-तैयबा के प्रमुख हाफिज सईद ने शिंदे के बयान पर अविलम्ब रिएक्ट करते हुए कहाöभारत हमेशा पाकिस्तानी संगठनों के खिलाफ आतंकवाद फैलाने का दुप्रचार करता रहा है, लेकिन अब वह बेनकाब हो गया है। जख्म पर नमक छिड़कने की कसर कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने पूरी कर दी। दिग्वजिय सिंह ने हाफिज सईद को हाफिज सईद साहब कहकर पूरी कर दी। यह बहुत दुख की बात है कि कांग्रेस पार्टी अब आतंकवाद को मजहब और रंग के हिसाब से चिन्हित करने में लगी है। आतंकवाद का न तो कोई रंग होता है और न ही मजहब। हमने तो यह कभी नहीं कहा कि यह मुस्लिम आतंकवादी हैं, हिन्दू आतंकवादी हैं, सिख आतंकवादी हैं, ईसाई आतंकवादी हैं या यहूदी आतंकवादी हैं। न ही हमने कभी यह कहा कि यह लाल रंग का आतंकी है, हरे रंग का है या भगवे रंग का। जब कोई आतंकवादी किसी सार्वजनिक स्थान पर बम मारता है तो वह नहीं सोचता कि उस बम के टुकड़े किसी बच्चे, महिला, बुजुर्ग या फिर हिन्दू, सिख, मुसलमान, ईसाई को लगेंगे? वह तो अपने उद्देश्य के लिए हिंसा के माध्यम से अपना उद्देश्य प्राप्त करता है। जयपुर चिन्तन शिविर में दिया गया शिंदे का बयान इसलिए ज्यादा गम्भीर बन जाता है क्योंकि उन्होंने जो कुछ कहा वह भारत के गृहमंत्री की हैसियत से कहा और यह भी दावा किया कि उनके पास इसके सुबूत हैं। सवाल यह है कि यदि शिंदे के पास इस आशय के सुबूत हैं तो वह इस कथित खुलासे के लिए जयपुर चिन्तन शिविर का इंतजार क्यों कर रहे थे? जब पर्याप्त सुबूत हैं तो इनके आधार पर अपेक्षित कार्रवाई क्यों नहीं की? यदि वाकई उनके पास राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के आतंकवाद को बढ़ावा देने के पुख्ता प्रमाण हैं तो उन्हें आवश्यक कार्रवाई करने से किसने रोका है? भले ही दिग्विजय सिंह शिंदे के बयान का समर्थन कर रहे हों और अन्य कांग्रेस नेता भी उनकी पीठ थपथपा रहे हों लेकिन यह मान लेना सही नहीं होगा कि शिंदे ने जो कुछ कहा वह वास्तव में सही है। यदि यह सब सही है कि कांग्रेस के नेताओं को सिर्प बयानबाजी करने के स्थान पर ठोस कार्रवाई करते हुए दिखना चाहिए इसलिए और भी क्योंकि केंद्र में उनके दल के नेतृत्व वाली सरकार है। अब यदि इस तरह से समाज को बांटने वाले बयानों के आधार पर विपक्ष की घेराबंदी की जाएगी अथवा आगामी लोकसभा चुनावों के लिए माहौल तैयार किया जाएगा तो ऐसा लगता है कि इस बयान का मकसद मूल मुद्दों से आम जनता का ध्यान हटाना है। एक ऐसे समय पर जब सीमा पर तनाव के कारण भारत को न केवल गम्भीर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है बल्कि देश के भीतर आतंकवाद और नक्सलवाद के खतरे कहीं अधिक रूप धारण करते जा रहे हैं गृहमंत्री के स्तर पर ऐसे बयानों का औचित्य हमारी समझ से तो बाहर है। इसका हमें तो एकमात्र उद्देश्य केवल अपने राजनीतिक विरोधियों को कठघरे में खड़ा करने के अलावा दूसरा नजर नहीं आ रहा। राजनीति का स्तर इस हद तक गिर जाना जहां से भारत विरोधी लाभ उठा सकें चिन्तन तो इस पर होना जरूरी हो गया है। राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप की सभी लक्ष्मण रेखाएं मिटती जा रही हैं। यह न तो देश के लिए अच्छा है, न राजनीतिक पार्टियों के लिए और न ही जनता के लिए। समाज को इस तरह से बांटना कभी भी सही नहीं ठहराया जा सकता।

Tuesday, 22 January 2013

जनरल बिक्रम सिंह का शहीद परिवारों के घर जाना सराहनीय है


 Published on 22 January, 2013
 अनिल नरेन्द्र
हम थल सेना अध्यक्ष जनरल बिक्रम सिंह को इस बात की बधाई देना चाहते हैं कि वह हाल में हुए दो शहीद लांस नायक हेमराज और लांस नायक सुधाकर सिंह के घर पर उनके परिजनों से मिलने गए। यह पहली बार हुआ है कि आर्मी चीफ खुद चलकर किसी लांस नायक के घर पर गया हो। इससे जाहिर होता है कि जिस तरीके से पाकिस्तान ने इन शहीदों के साथ बर्ताव किया उसका सेना प्रमुख जनरल सिंह को कितना दुख व रोष है। यह सेना के बाकी जवानों के मनोबल को बढ़ाने के लिए भी एक तरह से जरूरी था। मेंढर सैक्टर की इस घटना ने न केवल प्रभावित राजपूत रेजिमेंट को ही हिलाकर रख दिया है बल्कि पूरे देश में इसका व्यापक रोष है। दो देशों की सेनाओं में लड़ाई होती है, जंग होती है, एक-दूसरे के सैनिकों को मारना लड़ाई में होता है पर दुश्मन के सैनिकों का सिर कलम करना आज के युग में स्वीकार्य नहीं है। आज से दो सौ साल पहले होता होगा। आज नहीं! जनरल सिंह ने शहीदों के परिजनों के लिए नौकरी का प्रबंध किया है और शहीद लांस नायक सुधाकर सिंह के परिवार को अब तक लगभग 65 लाख रुपए की मदद की जा चुकी है। सेना द्वारा 44 लाख रुपए, रक्षा राज्यमंत्री जितेन्द्र सिंह द्वारा पांच लाख रुपए तथा मध्य प्रदेश सरकार 15 लाख रुपए शामिल हैं। इसी तरह लांस नायक हेमराज के परिवार को भी आर्थिक मदद की गई है। मध्य प्रदेश के जुझारू मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने शहीद जवान की अर्थी को कंधा दिया, शहीद की पत्नी के लिए शासकीय नौकरी एवं परिवार के लिए उसी गांव में एक भूखंड तथा शहीद सुधाकर की याद में गांव में ही एक स्मारक बनाने की घोषणा भी की है। लगभग इसी प्रकार की कई सुविधाएं उत्तर प्रदेश सरकार ने भी शहीद हेमराज के परिवार को दी हैं। ऐसा नहीं कि राज्य सरकारें अपनी ओर से शहीदों की मदद नहीं है करतीं पर जब थल सेना अध्यक्ष खुद चलकर सेना की स्थापित परम्पराओं को तोड़कर उनके घरों में पहुंच रहा हो तो राज्य सरकारें भी ज्यादा सक्रिय हो गई हैं। इन कदमों का हमारे बहादुर जवानों के मनोबल पर भारी असर पड़ेगा। उन्हें यह तो लगेगा कि चलो हम अगर मारे भी जाते हैं तो पीछे हमारे परिवार को भीख तो नहीं मांगनी पड़ेगी। हमें दुख तो इस बात का है कि पूर्व आर्मी चीफ कभी भी इस प्रकार के केसों में शहीदों के घर नहीं गए। लांस नायक हेमराज की शहादत ने महाराष्ट्र के कालेगांववासियों को 12 साल पुरानी कहानी याद दिला दी है। छोटे से गांव का सपूत भाऊ साहब तलेकर भी हेमराज की तरह शहीद हुआ था। पाकिस्तानी फौज ने घात लगाकर हमला किया और भाऊ साहब तलेकर का सिर अपने साथ ले गए। अब इस परिवार के पास कुछ है तो बेटे की यादें और मातम। जब हेमराज और सुधाकर के साथ हुई वारदात की खबर टीवी पर आई तो परिवार बर्दाश्त नहीं कर सका और फूट-फूटकर रो पड़े। यह बात 27 फरवरी 2000 की है इस घटना में भी पाक सेना ने हमारी सीमा में घात लगाकर, घुसकर हमला किया। ग्रेनेड से हमला किया। छह भारतीय सैनिक शहीद हुए। भाऊ साहब ने जवाबी हमला किया और उनके भी पांच सैनिक मार गिराए। फिर अपनी जान गंवा दी। हमलावरों में इलियास कश्मीरी भी था। उसी ने भाऊ साहब का सिर काटा था और साथ ले गया था। मुशर्रफ ने इसी कश्मीरी को पांच लाख रुपए का इनाम भी दिया। उस वक्त पाक फौज का हिस्सा रहा कश्मीरी आज कुख्यात आतंकी है। भाऊ साहब की बहन मीनाक्षी कहती हैं, ताबूत लाया गया तो मां ने बेटे का चेहरा देखने की जिद की। सेना वालों से कहा, कैसे मानें कि इसमें उन्हीं का बेटा है। उन्हें समझाया गया कि इसका आई कार्ड और घड़ी पास ही मिली थी। हमारा मन तब भी नहीं मान रहा था। उन्होंने ताबूत सहित शव का अंतिम संस्कार कर दिया। उन्हें सेना ने करीब 12 लाख रुपए दिए थे। उन पैसों से मीनाक्षी की शादी की, घर ठीक करा लिया। गांव के बुजुर्ग विट्ठल सदाशिव कहते हैं कि 12 साल में तलेकर परिवार का सुख-दुख पूछने सेना का कोई भी आदमी नहीं आया। दुख तो इस बात  का है कि क्या शहीदों के परिवार की सुध सिर्प भूख हड़ताल करने के बाद ही ली जाएगी? हेमराज के परिवार ने गुस्सा दिखाया तो सेना और सरकार उनके घर पहुंच गई।

राहुल गांधी ने अपने स्वर्गीय पिता राजीव की याद ताजा कर दी


 Published on 22 January, 2013
 अनिल नरेन्द्र
नया पद सम्भालने के बाद राहुल गांधी ने जो जयपुर कांग्रेस चिंतन शिविर में भाषण दिया। उसमें मुझे स्वर्गीय राजीव गांधी के भाषण और स्टाइल की झलक नजर आई। राजीव ने भी इसी तरह सत्ता के दलालों पर सीधा हमला करते हुए कहा था कि सरकार जो गरीबों के लिए पैसा खर्चती है उसमें मुश्किल से 15 पैसे ही उस व्यक्ति तक पहुंचता है जिसके लिए दिया जाता है। बेटे राहुल आगे बढ़ गए और कहा कि हम यह पक्का करेंगे कि पूरा पैसा जिस आदमी के लिए भेजा है उस तक पहुंचे। राहुल का भाषण बेहद भावुक था और वह कार्यकर्ताओं के दिलों को छूने वाली भाषा में बोला गया था। उन्होंने दरअसल कांग्रेस संगठन में आई कमजोरियों को एक-एक कर गिनाया और इन्हें दूर करने का प्लान भी बताया। राहुल ने पिछले वर्षों में खुद गांव-गांव जाकर जनता के दुख-दर्द को समझा है इसलिए जनता की समस्याओं को समझने में भी उन्हें कोई दिक्कत नहीं है। यह भाषण संगठन संबंधित कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के गिरते मनोबल से उबारने के लिए था और इसने काफी हद तक कांग्रेस कार्यकर्ताओं में एक नया जोश व उम्मीद जरूर भरी है। जिस तरीके से राहुल का स्वागत हुआ उससे लगा मानो कांग्रेस पार्टी ने सन 2014 का चुनाव ही जीत लिया हो। राहुल गांधी के कांग्रेस में नई जिम्मेदारी सम्भालने से पार्टी में हर तरफ खुशी का माहौल है लेकिन मां सोनिया गांधी को एक डर परेशान करने लगा। उन्हें डर है कि सत्ता के उस स्याह पहलू का जिसे सोनिया  ने अपने कई करीबियों को खोकर देखा है और महसूस किया है। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने देश को बताया कि मेरे उपाध्यक्ष बनने के बाद कल रात मां मेरे कमरे में आईं, पास बैठीं और रो पड़ीं क्योंकि वह समझती हैं कि सत्ता जहर की तरह है। राहुल के भाषण में इतनी भावुकता थी कि मंच पर मौजूद उनकी मां सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कई कांग्रेसी नेताओं की आंखों में आंसू आ गए। राहुल ने संगठन में आई कमियों की तो बात की पर उनकी बनाई हुई यूपीए सरकार की जन विरोधी नीतियों पर एक शब्द नहीं कहा। न तो उन्होंने महंगाई कैसे दूर होगी, भ्रष्टाचार पर अंकुश कैसे लगेगा, देश में  बिगड़ती कानून व्यवस्था कैसे चुस्त-दुरुस्त होगी, इन पर एक शब्द कहा। आखिर यह सरकार भी तो कांग्रेस की है और राहुल गांधी हमेशा से इस स्थिति में रहे हैं कि वह सीधा प्रधानमंत्री से बात कर उनकी नीतियों को प्रभावित कर सकते थे। फिर आज तक उन्होंने क्यों नहीं किया? आगे कैसे करेंगे? राहुल ने कहा कि हमें 40-50 ऐसे नेता तैयार करने हैं जो जरूरत पड़ने पर पीएम या सीएम बन सकें। ऐसे नेताओं की तो लम्बी कतार पहले से ही कांग्रेस में मौजूद है। जरूरत तो ऐसे नेताओं की है जो कार्यकर्ता की भावनाओं को उन तक सही तरीके से पहुंचा सकें। आज चाहे वह कांग्रेस पार्टी हो या भाजपा हो जन समर्थन और जनता से जुड़े नेता उनमें कम रह गए हैं, सत्ता के दलाल ज्यादा नजर आते हैं। इन सत्ता के दलालों को राहुल कैसे दूर रखेंगे। यह देखना होगा। राहुल को अपनी योजनाओं को प्रभावी ढंग से लागू करने का अवसर भी 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले मिलने वाला है। अब से लोकसभा चुनाव (2014) के बीच 9 विधानसभा चुनाव होने हैं। इनमें कई राज्य महत्वपूर्ण हैं जैसे राजस्थान, मध्य प्रदेश, दिल्ली इत्यादि। देखना यह होगा कि क्या इनमें कांग्रेस की कारगुजारी और रिजल्ट पहले से बेहतर आता है? राहुल के हाथों चुनावी कमान तो पहले भी रही पर बिहार, उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का क्या हाल हुआ, यह किसी से छिपा नहीं। क्या राहुल गांधी के साथ कांग्रेस के रणनीतिकारों, के बीच चेंज भी होगा? क्योंकि आज कांग्रेस की सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि नेतागण न तो कार्यकर्ताओं की परवाह करते हैं और चूंकि वह कार्यकर्ताओं से कटे हुए हैं इसलिए जनता की सही भावनाओं का उन्हें पता नहीं चल पाता। राहुल को इस स्थिति को बदलना होगा। कार्यकर्ताओं से जहां तक सम्भव हो सके सीधा सम्पर्प बनाना होगा, कार्यकर्ताओं की बातें उन तक बिना नमक मिर्च के पहुंचे यह सुनिश्चित करना होगा। वैसे तो जयपुर के चिंता शिविर में बहुत कुछ हुआ है और आने वाले दिनों में इन पर चर्चा भी करूंगा पर यह जरूर कहना चाहूंगा कि जयपुर कांग्रेस के इस चिंता शिविर में दो बातें साफ उभर कर आई हैं। पहला कि कांग्रेस ने 2014 के चुनाव को जीतने का लक्ष्य तय कर लिया है और दूसरा कि राहुल गांधी 2014 में पार्टी को सत्ता में लाने की पूरी जिम्मेदरी खुद सम्भालेंगे। आज तक बेशक राहुल गांधी हमेशा से नम्बर दो पर थे पर पहली बार उन्होंने सार्वजनिक रूप से पद सम्भाला है। इस मामले में कांग्रेस ने लीड ले ली है। प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी तो दल-दल में फंसी पड़ी है न तो पार्टी के प्रमुख पर विवाद खत्म हो रहा है और 2014 में कौन पार्टी का नेतृत्व करेगा यह तो दूर की बात है। कम से कम कांग्रेस ने 2014 पर अपना फोकस कर लिया है।

Obama takes bold step to control gun culture

Anil Narendra
US President Barack Obama must be congratulated for the unparalleled bold steps which he has taken just four days prior to his oath taking for his second tenure on Wednesday. No American President had ever taken such bold steps. And, these steps intend to put control over the spreading gun culture in America. Today, in America 89 out of 100 Americans have their private guns. It is well known that America is today, governed by multi-national companies. The gun industry worth billions of dollars is quite powerful. That is why no American President dared put control over it, but in view of the increasing number of killing in public places in America, the common American has started thinking about putting control over this gun culture. In fact, during recent years, incidents of firing in public places have increased. In the year 2012 itself, 64 persons were killed, while 71 others injured in more than seven such incidents of firing. Newtown in Connecticut State witnessed firing in Sandy Hook primary school on 14th December 2012, where 26 persons including 20 innocent children were killed. After the Connecticut incident, President Obama wept during his address to the nation. He declared to take immediate steps to stop recurrence of such incidents. He has issued 23 orders after the Newtown incident. Now, it will be difficult to buy and keep weapons. These orders have been issued to control the sale of weapons. It is significant that it would neither be necessary to obtain clearance for these orders from the Congress (American Parliament) nor these could be challenged in the Congress. According to important orders: background of the customer will be completely be scrutinized while issuing new licenses, weapons will not be sold to persons with criminal background and to persons having record of domestic violence, schools will be provided with better security and people will be provided more opportunities to avail psychological services. The American gun lobby has started protesting vehemently against these steps taken by Obama. As I had said earlier, no American President has dared confront the very influential and powerful gun lobby. Obama has been getting huge public support for his efforts to control gun culture in the country. The American Sikh community has openly appreciated Obama’s efforts. Remembering the firing incident at Gurudwara at Wisconsin State in August last year, Rajwant Singh, Chairman, Sikh Community said that many innocent persons are being targeted in these senseless killings. He said that the Sikh community supports these steps taken by President Obama to stop the spread of lethal weapons in the American society.

Sunday, 20 January 2013

डीजल नियंत्रणमुक्त फैसला जन घातक है जिसके दूरगामी दुप्रभाव होंगे


 Published on 20 January, 2013
 अनिल नरेन्द्र
आर्थिक सुधारों के नाम पर मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार भारत की गरीब जनता की कमर तोड़ने पर तुल गई है। पहले से ही दो वक्त की रोटी जुटाने में किसान, मजदूर, छोटे तबके के लोगों को जीने के लिए पेट काटने पर मजबूर होना पड़ रहा है। रही-सही कसर इस सरकार ने डीजल की कीमत को नियंत्रणमुक्त करने का फैसला लिया है। 51 पैसे प्रति लीटर तो बढ़ भी गया है डीजल और अब हर महीने बढ़ता ही रहेगा। डीजल की कीमत बढ़ने से महंगाई बढ़ेगी और हर वस्तु महंगी होगी। इस फैसले का चौतरफा विरोध होना स्वाभाविक ही है। चाहे विपक्षी दल हों या इस सरकार के समर्थक दल,  सभी खुलकर विरोध कर रहे हैं। भाजपा का कहना है कि यह जन विरोधी निर्णय है। चाहिए तो यह था कि सरकार इस कदम को उठाने से पहले तेल क्षेत्र में जरूरी सुधार करती। डीजल के मूल्य बढ़ाने के लिए समय भी सही नहीं है क्योंकि लोग पहले ही महंगाई से जूझ रहे हैं। माकपा महासचिव प्रकाश करात ने कहा कि डीजल के दाम नियंत्रणमुक्त करने से आम आदमी पर अतिरिक्त बोझ पड़ेगा, जो पहले ही रोजमर्रा की चीजों के दाम बढ़ने से मुश्किल में है। भाकपा के सचिव डी. राजा ने कहा कि सरकार की इस दलील को स्वीकार नहीं किया जा सकता कि वित्तीय घाटे को कम करने के लिए यह फैसला किया गया है क्योंकि जो भी घाटा है वह इस सरकार की अर्थव्यवस्था के कुप्रबंधन के कारण हुआ है। यूपीए-2 के संकटमोचक बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी जैसे समर्थक दल भी डीजल की कीमतों को बाजार के हवाले करने के सरकार के फैसले का विरोध कर रहे हैं। मायावती ने कहा कि डीजल और रसोई गैस महंगी कर सरकार जनता पर बोझ बढ़ा रही है, सरकार न सिर्प डीजल की कीमत बढ़ाने का अधिकार तेल कम्पनियों को दे रही है बल्कि समय-समय पर उन्हें डीजल की कीमतें बढ़ाने की पूरी छूट भी दे रही है। पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों को देखते हुए हालांकि अभी ऐसे फैसले की उम्मीद नहीं थी लेकिन सरकार ने निर्वाचन आयोग के सामने यह दलील रखते हुए इसकी मंजूरी प्राप्त कर ली कि यह निर्णय आचार संहिता लागू होने से पहले ही लिया जा चुका था और उनकी घोषणा अब की जा रही है। सवाल यह है कि सरकार को यह फैसला लेने में जल्दी क्या थी? इस फैसले को लागू करने के पीछे सरकार तर्प भले ही कुछ भी दे लेकिन सच यह है कि यह फैसला सरकार की दूरगामी सियासी सोच का नतीजा है। पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में विधानसभा चुनावों के अलावा 2014 में लोकसभा चुनाव भी होने हैं। जिसके चलते सरकार को अगले महीने पेश होने वाले आम बजट को लोक लुभावना बनाना है। आम बजट में सरकार ऐसी कोई घोषणा नहीं करना चाहती थी जिससे मतदाता कांग्रेस से विमुख हो, इसलिए उसने बजट से ठीक पहले डीजल को नियंत्रणमुक्त किए जाने का बड़ा फैसला ले लिया। डीजल के दाम बढ़ने से आम आदमी के इस्तेमाल की लगभग सभी चीजें महंगी हो जाएंगी। महंगाई बढ़ेगी तो रिजर्व बैंक ब्याज दर में वृद्धि करेगी। जिससे कर्ज महंगा होगा और उद्योगों का उत्पादन घटेगा। जीडीपी में महत्वपूर्ण योगदान रखने वाला कृषि क्षेत्र भी बुरी तरह प्रभावित होगा। किसानों को सिंचाई और जुताई के लिए डीजल महंगा मिलेगा तो उनकी आमदनी प्रभावित होगी और वे कर्ज लेने पर मजबूर होंगे। कर्ज न अदा करने की स्थिति में किसानों की आत्महत्या दर बढ़ने का भी खतरा है। चाहिए तो यह था कि सरकार डीजल की कीमतें नियंत्रणमुक्त करने से पहले एक ऐसा खाका तैयार करती जिसमें खाद्य व अन्य आवश्यक वस्तुओं की ढुलाई पर लगने वाले भाड़े में डीजल मूल्य वृद्धि का असर न होता, साथ ही किसानों को भी बिना रोक-टोक के सस्ता डीजल मिलता रहता। आने वाले दिनों में इस फैसले का चेंज रिएक्शन देखने को मिलेगा।

गन कल्चर पर नियंत्रण करने का ओबामा का साहसी कदम


 Published on 20 January, 2013
 अनिल नरेन्द्र
अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा इस बात के लिए बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने अपने दूसरे कार्यकाल की शपथ लेने के महज चार दिनों में (बुधवार) एक ऐसा साहसी कदम उठाया है जो आज तक कोई अमेरिकी राष्ट्रपति नहीं उठा सका। यह ऐतिहासिक कदम है अमेरिका में बढ़ता गन कल्चर यानी बन्दूक की संस्कृति पर अंकुश लगाना। आज अमेरिका में हालात यह हैं कि हर 100 अमेरिकियों में से 89 के पास अपनी निजी  बन्दूकें हैं। अमेरिका जैसा सभी जानते हैं में यह बड़ी-बड़ी कम्पनियों, मल्टी नेशनल्स का राज है। अरबों डॉलर का गन उद्योग अमेरिका में अत्यंत शक्तिशाली है। इसी वजह से कोई भी अमेरिकी राष्ट्रपति आज तक इस पर कंट्रोल नहीं कर सका पर पिछले कुछ समय से अमेरिका में बढ़ते नरसंहारों की वजह से अब आम अमेरिकियों की भी यह धारणा बन गई है कि गन कल्चर पर कंट्रोल होना चाहिए। दरअसल कटु सत्य तो यह है कि अमेरिका में पिछले कुछ सालों से सार्वजनिक स्थलों पर गोलीबारी की घटनाएं लगातार बढ़ी हैं। साल 2012 में ही इस तरह की सात से अधिक घटनाओं में 64 लोगों की मौत हुई जबकि 71 के करीब घायल हुए। कनेकटिकट प्रांत के न्यूटाउन में तो एक हमलावर ने सैंडी हुक प्राइमरी स्कूल के मासूम बच्चों पर ही गोलियां चला दी थीं। दिसम्बर की 14 तारीख को हुए इस हमले में 20 बच्चों सहित 26 लोग मारे गए थे। कनेकटिकट की घटना के बाद ओबामा देश के नाम सम्बोधन देते हुए रो पड़े थे। उन्होंने कहा था कि आगे ऐसी घटनाएं रोकने के लिए हर सम्भव कदम उठाए जाएंगे। न्यूटाउन की घटना के एक महीने के भीतर ही उन्होंने 23 शासनादेश जारी कर दिए। अमेरिका में हथियार खरीदना और रखना अब मुश्किल होगा। राष्ट्रपति ओबामा ने इसके लिए 23 शासनादेश जारी किए हैं।  इन आदेशों के जरिए हथियारों की बिक्री पर नियंत्रण स्थापित किया जाना है। खास बात यह है कि इन आदेशों को कांग्रेस (अमेरिकी संसद) से मंजूर कराना जरूरी नहीं होगा और न ही इन्हें संसद में चुनौती दी जा सकती है। प्रमुख आदेश कुछ इस तरह है ः  नए हथियार लाइसेंस जारी करते वक्त ग्राहक की पृष्ठभूमि की पूरी जांच होगी,  आपराधिक पृष्ठभूमि वाले या घरेलू हिंसा में शामिल रहे व्यक्ति को हथियार नहीं बेचे जाएंगे, स्कूलों को अधिक सुरक्षा मुहैया कराई जाएगी और जनता को  मानसिक सेवाओं तक पहुंचने के ज्यादा अवसर दिए जाएंगे। ओबामा द्वारा उठाए गए इन कदमों का अमेरिकी गन लॉबी ने जमकर विरोध करना शुरू कर दिया है। जैसा मैंने पहले कहा कि आज तक कोई भी अमेरिकी राष्ट्रपति इस अत्यंत प्रभावशाली गन लॉबी से टक्कर लेने का साहस नहीं जुटा पाया पर ओबामा को व्यापक जन समर्थन भी मिल रहा है। अमेरिका में रहने वाले सिख समुदाय ने खुलकर ओबामा की सराहना की है। विस्कान्सिन राज्य के गुरुद्वारे में बीते वर्ष अगस्त में हुई गोलीबारी की घटना को याद करते हुए सिख समुदाय के नेता ने कहा कि बहुत सारे निर्दोष लोग इन मूर्खतापूर्ण हत्याओं का शिकार बन रहे हैं। अध्यक्ष राजवंत सिंह ने कहा कि सिख समुदाय अमेरिकी समाज में घातक हथियारों का प्रसार रोकने के लिए राष्ट्रपति ओबामा द्वारा उठाए गए कदमों का समर्थन करता है।

Saturday, 19 January 2013

हर आम-ओ-खास क्या पुलिस सुरक्षा का हकदार है?


 Published on 19 January, 2013
 अनिल नरेन्द्र
वैसे देखा जाए तो सुप्रीम कोर्ट को यह सवाल पूछने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए थी पर जब सरकार-प्रशासन इतना लापरवाह हो जाए तो पब्लिक सेफ्टी के लिए माननीय अदालत को पूछना ही पड़ा कि सांसदों और विधायकों सहित तमाम ऐसे व्यक्तियों को भी पुलिस सुरक्षा क्यों दी जा रही है जिनकी सुरक्षा को कोई खतरा नहीं है? न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने कहा कि संवैधानिक पदों पर आसीन व्यक्तियों या ऐसे व्यक्तियों  जिनकी जिन्दगी को खतरा हो, को  पुलिस सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए। न्यायाधीशों ने कहा, `राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, प्रधान न्यायाधीश, संवैधानिक पदों पर आसीन व्यक्तियों और राज्यों में ऐसे ही समकक्ष पदों पर आसीन व्यक्तियों को सुरक्षा प्रदान की जा सकती है। लेकिन हर आम और खास व्यक्ति को लाल बत्ती की गाड़ी और सुरक्षा क्यों?' स्थिति यह है कि मुखिया और सरपंच भी लाल बत्ती की गाड़ी लेकर घूम रहे हैं। न्यायाधीशों ने राज्यों में लाल बत्तियों की गाड़ियों के दुरुपयोग को लेकर दायर जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान यह आदेश दिए। न्यायाधीशों ने कहा कि आखिर सरकार इस व्यवस्था को खत्म करने के  बारे में कोई फैसला करके यह स्पष्ट क्यों नहीं करती कि लाल बत्ती कौन इस्तेमाल कर सकता है? दिल्ली पुलिस बृहस्पतिवार को उस समय सुप्रीम कोर्ट में हंसी की पात्र बन गई जब उसने दलील दी कि सरकार में उच्च पदों पर आसीन व्यक्तियों को स्पष्ट खतरे के कारण नहीं बल्कि निडर और निष्पक्ष होकर निर्णय करने की सुविधा देने के लिए प्रदान की जाती है। दिल्ली पुलिस ने न्यायालय में दाखिल आठ पेज के हल्फनामे में यह  बात कही। बेतुकी  इस दलील पर जजों ने पुलिस को आड़े हाथों लेते हुए सवाल किया, `सुरक्षा के कारण हमारे फैसले कैसे निडर हो सकते हैं?' क्या यही अधिकारी की समझ का स्तर है? यह निश्चित ही आईपीएस अधिकारी होगा और उसने आईपीसी और सीआरपीसी ही पढ़ी होगी। सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में इसलिए दखल देना पड़ा क्योंकि केंद्र और राज्य सरकारें सुरक्षा कारणों से कम और राजनीतिक कारणों से ज्यादा मनमानी करने पर तुली हुई हैं। विधायकों-सांसदों को तो छोड़िए रसूखदार नेताओं यहां तक कि बैड कैरेक्टर तक के लोगों को सुरक्षा मिली हुई है। दरअसल आज यह एक तरह का स्टेटस सिम्बल बन गया है। मैंने तो ऐसे नजारे भी देखे हैं कि साइकिल नेता चला रहा है और पीछे बन्दूकधारी पीएसओ बैठा है और यह सब आम जनता की सुरक्षा की कीमत पर हो रहा है। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा मुल्क हो जहां नेताओं को ऐसी सुरक्षा प्रदान की जाती हो? इससे इंकार नहीं  किया जा सकता कि महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोगों को सुरक्षा मिलनी ही चाहिए, लेकिन यह काम आम आदमी की सुरक्षा की कीमत पर बिल्कुल भी नहीं हो सकता। दुर्भाग्य से इस समय यही स्थिति है। यदि पंच से लेकर प्रधानमंत्री तक सभी महत्वपूर्ण पदों वाले लोग खुद को विशिष्ट समझने लगेंगे और इस नाते सरकारी सुरक्षा चाहेंगे तो आम आदमी की सुरक्षा का बेड़ा गर्प होना तय है। चाहिए तो यह कि केंद्र और राज्य सरकारें सुप्रीम कोर्ट की ओर से उठाए गए सवालों पर गम्भीरता से विचार करें और विशिष्ट व्यक्ति कौन है, इसकी पहले परिभाषा तय करें और प्रेट परसेप्शन अनुसार सुरक्षा प्रदान करें।